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रविवार, 17 सितंबर 2023

वासुदेव शरण अग्रवाल : चयन और मूल्यांकन की दो दृष्टियाँ

वासुदेव शरण अग्रवाल मेरे प्रिय लेखकों में एक हैं। भारतीय संस्कृति की मेरी थोड़ी बहुत समझ जिन लेखकों को पढ़कर बनी है, वे उनमें से प्रमुख हैं। दुर्भाग्यवश साहित्य के अंचल में उनकी चर्चा थोड़ी कम होती है। इसका और कोई कारण हो या न हो एक कारण यह जरूर है कि साहित्य की चर्चाएँ प्रायः कविता और कथा की देहरी पर आकर ठिठक जाती है। इनकी सरस और सम्मोहिनी भंगिमा के आकर्षण में बंध आगे निबंध, आलोचना और कथेतर गद्यविधाओं तक पहुँच ही नहीं पाती हैं, अवश्य ही अचार्य शुक्ल और अचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे अक्खड़ और फक्कड़ निबंधकर इसके अपवाद हैं। फिर,  कला और इतिहास के अध्येता होने के कारण उन्हें साहित्येतर खाते में खतियाने की पर्याप्त छूट भी मिल जाती है।
 साहित्य अकादेमी की भारतीय साहित्य के निर्माता शृंखला में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी द्वार लिखित विनिबंध, 2012 में साहित्य अकादमी द्वारा ही प्रकाशित कपिला वात्स्यायन जी द्वारा संकलित - संपादित 'वासुदेवशरण अग्रवाल: रचना-संचयन' के बाद महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्वावधान में प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'राष्ट्र, धर्म और संस्कृति' पुस्तक विशिष्ट लगी। कपिला जी ने अपने सम्पादित संचयन में आचार्य अग्रवाल के प्रति शिष्या भाव से श्रद्धांजलि तथा उनकी समग्र झाँकी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नए पाठक को अग्रवाल जी के साहित्य और उनके लेखन की विविधता से अधिक से अधिक परिचित कराने की चाह के कारण पुस्तक का आकर संचयन की दृष्टि से समृद्ध हो गया है। 
'राष्ट्र, धर्म और संस्कृति' पूर्व संचयन की तुलना में संक्षिप्त है।
यहां निबंधों के चयन में प्रतिनिधित्व की तुलना में संपादक की अंतर्दृष्टि प्रभावी है, जिसका संकेत बहुत दूर तक पुस्तक के शीर्षक और फिर उसकी भूमिका में बहुत स्पष्ट मिल जाता है। भूमिका का समापन इन पंक्तियों के साथ होता है: ' भारत राष्ट्र का निर्माण और संस्कृति की भित्ति पर हुआ है। इसलिए इस संचयन का नाम 'राष्ट्र धर्म और संस्कृति' रखा गया है। इसमें द्वीपांतर से लेकर ईरान और मध्य एशिया तक तथा असेतुहिमाचल मृण्मय भारत और चिन्मय भारत से संबद्ध वासुदेव जी के लेख संकलित हैं। चिन्मय भारत सहस्र - सहस्र वर्षों से प्रवाहित अजस्र धारा का सनातन प्रवाह है, यही इन निबंधों की टेक है; प्रतिपाद्य है।"

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

कुबेरनाथ राय का सहजानंद विषयक चिंतन

हिंदी पाठकों के सम्मुख कुबेरनाथ राय की पहली पहचान ललित निबंधकार के रूप में बनी । उनके आरंभिक निबंध, जो प्रिया नीलकंठी’ ‘रस आखेटक और गंधमादन में संकलित हैं, इसी विधा से संबद्ध हैं । इसी अर्थ में वे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय के रूप में एक त्रयी भी बनाते हैं । किन्तु, यह उनकी अधूरी पहचान है । वे सर्वांशतः एक भारतीय लेखक हैं । भारतीयता उनके लेखन का मेरुदंड है, जिसपर उनका समूचा चिंतन और सृजन टीका हुआ है । यह संस्कार-लब्ध और भारतीय आर्ष-चिंतन की परंपरा तथा लोक मन के गहन अनुशीलन और तादात्मीकरण से सहज-संपुष्ट भारतीयता है ।  उन्हें अपने भारतीय होने का औसत से अधिक घमंड’ है । वे कहते हैं कि 
इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा, ‘अहं भारतोSस्मि। 
भारतीयता’ न केवल भूगोल है न इतिहास है, न केवल चिंतन या संस्कार-प्रवाह । यह इन तीनों का संश्लेष है । इन्हें ही कुबेरनाथ राय क्रमशः मृण्मय भारत, शाश्वत भारत और चिन्मय भारत कहते हैं । इनका आपस में पूर्वापर या रैखिक संबंध नहीं, बल्कि अंग-अंगी-संबंध  है । मृण्मय भारत से चिन्मय भारत तक की यात्रा देह से आत्मा की ओर ऊर्ध्वगमन है । और, यह संयोग ही है कि रचना-क्रम की दृष्टि से उनकी अंतिम पूर्ण कृति भी चिन्मय भारत ही है । यह अपने प्रकाशित रूप में ठीक उसी दिन उनके परिवार के हाथ में आयी, जिस दिन (5 जून 1996 को) वे अपनी मृण्मय सत्ता को त्याग कर चिन्मय सत्ता में विलीन हो चुके थे ।

            पहली कृति प्रिया नीलकंठी के प्रकाशन (1971 ई.) से लेकर आगम की नाव (2005 ई.) तक कुबेरनाथ राय की अबतक 21 कृतियाँ प्रकाशित हैं और बाइसवीं कृति महाजागरण का शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ प्रकाशन-क्रम में है । इनके कुछ आलोचनात्मक निबंध तथा अन्य रचनाएँ इतस्ततः पत्रिकाओं-पुस्तकों में बिखरी हुई हैं। स्वाहा-शिखा शीर्षक से इनके एक अन्य संकलन का प्रकाशन प्रस्तावित था, किन्तु प्रकाशक के प्रमादवश न आ सका और उसकी अंधिकांश सामाग्री भी अब अनुपलब्ध है । अपनी समग्रता में ये सभी रचनाएँ भारतीय चिंतन-परंपरा और लोक-मन के बीच संवाद का उपक्रम हैं । इनके बीच लेखक नेरेटर या दुभाषिये की भूमिका में नहीं है, बल्कि दोनों का एक साथ प्रतिनिधित्व कर रहा है । उसके रचना-कर्म की साधारण प्रतिज्ञा तो पाठकों की चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना और उसे परिमार्जित भव्यता देना है, लेकिन वह साथ-साथ स्वयं भी क्रमशः विस्तृत और उदात्त होता गया है । सत्य, ऋत और शील कुबेरनाथ राय के चिंतन की धुरी हैं । जो असत्य है, दुःशील है, अनृत है, वह उन्हें ग्राह्य नहीं है । उनकी जीवन-दृष्टि और सौंदर्य-दृष्टि औदात्य के साथ-साथ माधुर्य के साहचर्य पर टिकी है । आधुनिक शिक्षा और पश्चिमी साहित्य तथा चिंतन के गंभीर अध्येता होने के बावजूद उनका मन भारतीय किसान के गृहस्थ-लोक का वासी है, जहाँ अति या चरम के लिए कोई स्थान नहीं है, चरम विराग या चरम राग दोनों उसके लिए अग्राह्य हैं । महाश्रमण इतना विराग असह्य है शीर्षक अपने निबंध में उन्होंने यह साफ-साफ लिखा भी है । बहु-अधीत और शास्त्रज्ञ होने का कारण उनके पास कहने के अन्य तरीके भी थे और अनेक प्रसंगों में इस बात को उन्होंने अलग-अलग तरह से कहा भी है; जैसे रघुवंश की कीर्ति बांसुरी में राम के शील को भारत का राष्ट्रीय शील कहना या कई स्थलों पर मधु वाता ऋतायते का उल्लेख आदि ।  अतः अनायास नहीं कि उनके साहित्य-नायक राम, गांधी और बुद्ध हैं । राम और गाँधी को केंद्र में रखकर तो उनके स्वतंत्र निबंध-संग्रह भी हैं । पत्रमणि पुतुल के नाम महात्मा गाँधी पर केंद्रित है और महाकवि की तर्जनी’, ‘त्रेता का वृहतसाम तथा रामायण महा तीर्थम् राम-केंद्रित । इसके अतिरिक्त भी इन दोनों पर उनके अनेक निबंध विभिन्न संग्रहों में संकलित हैं ।

            कुबेरनाथ राय का लेखन भारतीय संस्कृति के अस्ति-पक्ष के साथ-साथ भवति-प्रवाह को लेकर चला है । चिन्मय भारत के साथ ही शाश्वत भारत भी यहाँ मौजूद है।  शाश्वत भारत अर्थात् इतिहास-प्रवाह, जिसकी धार के से छिल-मँज कर चिन्मय भारत का भव्य प्राकार खड़ा हुआ है।  उसका सौंदर्य और उसकी चमक उसी की देन है। इसके चिह्न हमारे लोक और शास्त्र दोनों में मौजूद हैं और सबसे बढ़ कर हमारी दृष्टि और बोध में। हमारे महाकाव्य, हमारे कला-प्रतीक, हमारे जीवन-मूल्य और हमारे मिथक सब उसीके रचे हैं। श्री राय ने अपनी रचनाओं में भारतीय प्रतीकों की व्याख्या इसी संदर्भ में की है। कामधेनु संग्रह के  निबंध इस दृष्टि से खास महत्त्व रखते हैं। निषाद बांसुरी’ ‘मन पवन की नौका और उत्तरकुरु के निबंध भी इसी क्रम की रचनाएँ हैं। दरअसल, उनका बल भारतीयता के अस्ति-पक्ष के बजाय भवति-प्रवाह पर अधिक रहा है। वे स्थिरता के बजाय गतिशीलता में विश्वास रखते हैं। इसलिए यह उनके रचना-कर्म की मुख्य दिशा है। वे भारतीय संस्कृति की संरचना को जिस तरह ग्रहण करते हैं या व्याख्यायित करते हैं, उसे देखकर संभव है किसी को भ्रम हो कि लेखक अतीतोन्मुखी है; खासकर उनको, जिन्हें गतिशीलता उनके खास रास्ते पर ही नज़र आती है; अन्यत्र नहीं ।

            कुबेरनाथ राय इतिहास का प्रयोग न करके भवति-प्रवाह का प्रयोग कराते हैं तो उसका भी कुछ खास अर्थ है । इतिहास में बीत चुके का भाव है, जबकि बीतता कुछ नहीं; स्थितियाँ परिवर्तनशील होती है और समय के अनुसार अपने रूपाकार में परिवर्तन भर कर लेती हैं ।  लेकिन, उनकी रेखाएँ आसानी से नहीं मिटती । एक रचनाकार के लिए भारत जैसे समृद्ध अतीत वाले देश की हर स्थिति या घटना और उसके प्रभाव को दर्ज़ कर पाना संभव नहीं है, फिर भी इतिहास कि कई महत्वपूर्ण स्थितियों और उनके प्रभावों के चित्र श्री राय की रचनाओं में सहज ही मिल जाते हैं । चाहे वह भारतीय इतिहास कि अप्सरा नाभि या अगस्त तारा’ निबंधों की तरह साहित्य या लोक-आख्यान के आश्रय से ही क्यों न हो । आधुनिक काल में महात्मा गाँधी को लेकर उन्होंने जो निबंध लिखे हैं, उसका एक कारण संभवतः यह भी है । हमारे निकट अतीत में गाँधी इस भवति-प्रवाह की सबसे सशक्त धारा रहे हैं ।  सतह पर उनकी भूमिका केवल भारत के राजनीतिक मुक्ति आंदोलन तक दिखती हो, पर उनकी लहरों की रगड़ भारतीय जीवन और मनोरचना पर बहुत बाद तक महसूस कि जाएगी ।

            आलोच्य पुस्तक महात्मा गाँधी के ही समकालीन किसान गुरु स्वामी सहजानंद सरस्वती पर केंद्रित है । वे एक साथ ही किसान आंदोलन के गुरु, नेता और सेनानी तीनों थे । वे संस्कारतः किसान थे और व्यवहारतः संन्यासी । सामाजिक नेतृत्व तो उनके कर्म-वेदान्त का हिस्सा था । संभव है, किसी को उन्हें व्यवहारतः संन्यासी मानने में आपत्ति हो तो उसे अंत तक अपने हाथ में धरण किए हुए दंड और अपने अंतिम दिनों में अखिल भारतीय विरक्त महामंडल की अध्यक्षता को याद करना चाहिए; साथ ही, उनके भाषणों को भी जो वहाँ दिए गए । उसमें उन्होंने संन्यासियों को अपने समान ही लोक-संग्रह का अर्थ-विस्तार उन्हें कर्म-वेदान्त से जुड़ने की सलाह दी थी । वे राष्ट्रीय आंदोलन और किसान आंदोलन में लोक-संग्रह के इसी अर्थ को मूर्त करने की प्रेरणा से जुड़े और निरंतर जुड़ते चले गए । घर-परिवार छोड़ा आरंभ में जिससे सामाजिक पहचान और सहयोगी मिले वह जाति-सभा छोड़ी पर एक बार जुड़ने के बाद अंत तक जो नहीं छूट सका वह था किसान। इसके अन्य तमाम कारण हो सकते हैं, पर एक महत्त्वपूर्ण कारण उनका संस्कार था । वे किसान-कुटुंब में जन्मे थे । उनका परिवार एक खाता-कमाता माध्यम किसान था । उन्होंने परिवार त्यागा पर देस (परिवेश) नहीं त्यागा । वैराग्य के बाद वे विरागी होने के बाद विशिष्ट रागी होते गए । कई अवसरों पर किसानों को उन्होंने भगवान तक कहा है । 

            किसान और उसका आंदोलन स्वामी जी के जीवन का धर्म बन गया । इसे राजनीति कि तुलना में धर्म कहना इसलिए समीचीन है कि यह उनके लिए अस्तित्व का प्रश्न बन था ।  वे तत्कालीन राजनीति की अनेक धाराओं और नेताओं के संपर्क में आए; कांग्रेसी तो वे अंतिम वर्षों तक रहे, सोसलिस्टों से भी एक समय में ताल-मेल बैठाने कि कोशिश की और मार्क्सवाद की सतीर्थ्यता का रंग तो गीताहृदय’, ‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा, ‘किसान क्या करें ?’ ‘किसान कैसे लड़ते हैं?’ आदि पुस्तकों में काफी गहरा है। परन्तु, नीभी किसी से नहीं । सदैव अकेले रहे । निभाती भी कैसे ? कहाँ तो स्वामी जी की किसान में अनन्या आस्था थी और कहाँ दूसरी ओर पार्टियों और उनके धड़ों की किसान राजनीति! कुबेरनाथ राय ने अपनी पुस्तक मराल में और आलोच्य पुस्तक में भी स्वामी जी को जो किसान गुरु कहकर संबोधित किया है, वह इस दृष्टि से सर्वथा तर्क-संगत है । आजके प्रचलित अर्थ में वे नेता नहीं हो सकते । उन्होंने किसानों को संघर्ष की दीक्षा दी, उनका पग-पग पर मार्गदर्शन किया और उनकी उन्नति कि शुभेच्छा से उनसे अंत तक जुड़े रहे । किसान-सभा का रथ बिखर गया, फिर भी (आजादी के बाद) नए धर्म-युद्ध में अंत तक अकेले अभिमन्यु की तरह रथ का पहिया उठाए रहे ।

महाजागरण का शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती कुबेरनाथ राय ने एक विशेष उद्देश्य से लिखी थी। सन् 1990-91 में स्वामी जी के रचना-कर्म को संग्रहीत कर समग्र साहित्य के प्रकाशन की योजना बनी और उसमें कुबेरनाथ राय को भूमिका लेखन की ज़िम्मेदारी दी गई । समग्र साहित्य पाँच खंडों में में विभाजित था और उसके अनुसार ही श्री राय ने पाँचों की अलग-अलग भूमिका लिखी हैं । किन्तु, यह योजना साकार न हो सकी । इसलिए यह भूमिका भी अप्रकाशित ही पड़ी रही। बाद मेंस्वामी सहजानंद सरस्वती कि ग्रंथावली उस पूर्व-योजना से इतर प्रकाशित भी हो गई। किन्तुउनके जीवनकाल या उसके बाद भी यह इतस्ततः पत्र पत्रिकाओं में या इधर-उधर अधूरे रूप में भले ही प्रकाशित हुई; इसका समग्र रूप में प्रकाशन अब तक प्रतीक्षित है ।

          कुबेरनाथ राय के लेखन को देखते हुए यह मानना ठीक नहीं होगा कि इसे उन्होंने केवल किसी योजना या आग्रह के कारण लिखा था । वे मांग आधारित लेखन करने वाले लेखक नहीं थे । इसीलिए उनका समूचा लेखन अत्यंत व्यवस्थित और सूचिन्तित है, यहाँ तक कि ये भूमिकाएँ भी । संभवतः इसका कारण उनके द्वारा उत्तर भारत की किसान-चिंता में स्वामी जी की केंद्रीय उपस्थिति और उसके प्रभाव को भारतीय इतिहास की एक अनिवार्य घटना की तरह देखना ही है । स्वामी जी को महाजागरण का शलाका पुरुष’ कहने का कारण बताते हुए उन्होंने लिखा है—

 

“1889 में महा शिवरात्रि को स्वामी सहजानंद सरस्वती का जन्म हुआ ।....महज कुछ मास पूर्व या बाद में इस भारत वर्ष में पं. जवाहर लाल नेहरू, डॉ. अंबेडकर, आचार्य नरेन्द्र देव और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हेडगेवार महाशय का भी जन्म हुआ था । एक तरह से देखा जाय तो भारतीय इतिहास के उन्नीसवीं शती के पुनर्जागरण के शलाका पुरुषों की यह आखिरी पीढ़ी है । अपने-अपने दृष्टि-भेद और कर्म-भेद के बावजूद ये पाँचों महापुरुष ही भारतीय पुनर्जागरण के शलाका पुरुष रहे हैं और इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के धक्के से इतिहास का चक्र चालित हुआ है । इन पाँचों में स्वामी सहजानंद सरस्वती तो विशेष रूप से उस पुनर्जागरण की विकासशील मानसिकता के सारे परिवर्तनों के सहयात्री रहे हैं ।”

 

इसके अतिरिक्त 1857 के आंदोलन और उत्तर भारत में नवजागण के पीछे कुछ लेखकों ने जो किसानों की भूमिका को भी रेखांकित किया हैउनका प्रतिनिधित्व सन् 1930 बाद सही अर्थों में स्वामी सहजानंद ही कर रहे थे । इसलिए उन्हें नवजगरण (महाजागरण) का शलाका पुरुष कहना तर्कसंगत ही है । अपने सहजानंद शीर्षक पहले लेख में श्री राय ने स्वामी जी की इसी भूमिका को रेखांकित किया है ।

            ब्रह्मर्षि वंश विस्तर का मंथन और हिंदू संस्कार विधि का प्रयोजन और कर्मकलाप दोनों ही स्वामी जी के जीवन के पूर्व-पक्ष से संबंधित लेख हैं। उन्होंने अपने जीवन के दो-फाड़ होने का उल्लेख जहाँ-तहाँ खुद भी किया है— 

पूर्व-पक्ष और उत्तर-पक्ष के रूप में । उनके कुछ भक्तों (जातिवादी)  के लिए पूर्व-पक्ष और कुछ (वामपंथी) के लिए उत्तर-पक्ष महत्त्व और चर्चा का विषय रहा है । इसलिए दोनों ही अपनी-अपनी सुविधा से इसकी चर्चा करते हैं। इसे ही धूर्तश्रद्धा कहा है । दरअसल यह आराम का मामला है । 

इसमें वे स्वामी जी की जय भी बोल लेते हैं और उनकी अपनी जमीन भी सुरक्षित रह जाती है । इस पूरी पुस्तक का महत्त्व ही इस बात में है कि वह अंध-श्रद्धा और धूर्त-श्रद्धा दोनों से मुक्त है । लेखक ने अपनी असहमतियों को दबाया या छुपाया नहीं है; उनके कर्म-योगी रूप के प्रति अपने सम्मान के बावजूद,  खुलकर व्यक्त किया है । इस पूर्व-पक्ष के बिना स्वामी जी की न तो ऐतिहासिक भूमिका तय होती है और न ही पूरा स्केच बन पाता है । और, उसके बिना लेखक की यह स्थापना भी भला कैसे प्रमाणित हो पाती कि — उस पुनर्जागरण की विकासशील मानसिकता के सारे परिवर्तनों के सहयात्री रहे हैं

            गीताहृदय और मार्क्सवाद श्रीमद्भगवत गीता पर स्वामी सहजानंद का भाष्य है, जिसकी भूमिका में उन्होंने मार्क्सवाद और गीता की स्थापनाओं में साम्य दिखाने की कोशिश की है और शंकराचार्य तथा अपने भाष्य को तिलक के भाष्यों से विलक्षण बताया है । 

कुबेरनाथ राय की स्वामी जी से असहमति बहुत-साफ साफ देखी जा सकती है। जिस तरह से गीता हृदय की भूमिका में स्वामी जी की शास्त्रार्थ-प्रतिभा का साक्षात्कार होता हैउसीतरह यहाँ कुबेरनाथ राय की आलोचकीय प्रतिभा का। वे स्वामी जी और मार्क्सवाद दोनों के सामने अपनी आस्तिक बुद्धि और और खाँटी भारतीय मनोरचना के साथ अकेले अड़े हुए हैं। 

अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वामी जी ने तत्कालीन वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण उक्त पुस्तक में गीता को ठोंक-पीट कर बैठाने कि असाध्य चेष्टा भर की है; वह भी केवल भूमिका में । बाकी तो बस शांकर अद्वैत वेदांती  और कर्मयोगी का भाष्य है । स्वामी जी गीता ने यहाँ स्वयं जिए गए कर्म-योग को, अर्थात् उनके अपने जीवन में भोगी गयी गीता को द्वापरकालीन गीता से जोड़ने का प्रयास कर रहे थे । यहाँ उनकी मूल स्थापना है कि वे आजीवन हथियार गढ़ते रहे, किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर । एक से एक तेज धारदार हथियार । उनका हर ग्रंथ सामाजिक भूमिका लेकर उतारा है । परंतु, हर ग्रंथ के भीतर वे स्वयं भी स्थित हैं अपने स्वानुभूत यथार्थ के साथ । गीता हृदय भी इसका अपवाद नहीं । इसे वे सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति के हथियार के रूप में रचते हैं ।”

            सहजानंद का किसान साहित्य’ में स्वामी जी के उस साहित्य की चर्चा है, जिसे उन्होंने अपने आंदोलन के नीति-निर्देशन या पुनरावलोकन के लिए लिखा। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उनकी आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष तथा क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा। इनमें से पहली को कुबेरनाथ राय ने सिंहावलोकन कहा है और इस शब्द-बिम्ब कि व्याख्या भी की है । यह व्याख्या और बिंब सचमुच स्वामी सहजनन्द सरस्वती के व्यक्तित्व और कर्म के सर्वथा उपयुक्त है । दूसरी बात जो लेखक ने कही है वह यह कि यह आत्मकथा न होकर आत्म-जीवनी है । स्वामी जी ने इसे अपने जीवन और किसान सभा तथा राजनीति से जुड़ी घटनाओं के ब्योरे तक ही सीमित रखा है, इसलिए लेखक को निजता का अभाव  यहाँ खटकता है और एक विधा के रूप में आत्मकथा की जो विशेषता है, वह नहीं पाता। 

आत्मजीवनी कहने का अर्थ केवल इतना ही है कि आत्मकथा में जो अंतरंगता होनी चाहिए, वह इसमें नहीं है । लेकिन, लेखक इसे आजादी के दौर के कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेजों में शुमार करता है । जिस अर्थ में स्वामी जी की ऐतिहासिक भूमिका असंदिग्ध है, उसी अर्थ में उनकी आत्मकथा की भी ।

            क्रांति और संयुक्त मोर्चा की आलोचना में कुबेरनाथ उसी मुद्रा का सहारा लेते हैं, जिसमें स्वामी जी ने गीताहृदय की  भूमिका में तिलक के सामने खड़े हैं । वहाँ स्वामी जी के हाथ में मार्क्सवाद का डंडा था, पर कुबेरनाथ राय निहत्थे उनसे जूझ पड़े हैं। गुत्थम-गुत्था तो भरपूर ही हुए हैं, लेकिन खेल-भावना का पूरा खयाल रखा है । हालाँकि, स्वामी जी गीताहृदय और मेरा जीवन संघर्ष में दंड-प्रहार करते हुए कई जगह इसे भी भूल गए हैं । क्रांति और संयुक्त मोर्चा में स्वामी जी ने मार्क्सवाद का उत्खाद प्रतिरोपण ही किया है, फर्क यह है कि समुद्रगुप्त राजाओं को जहाँ पराजित करता था, वहीं पुनः स्थापित भी कर देता था । यही था उनका उत्खाद प्रतिरोपण । लेकिन, स्वामी जी ने उखाड़ा कहीं से और रोप भारतीय धरती पर दिया है । कुबेरनाथ राय ने उचित ही रेखांकित किया है कि वे महान सर्वहारा के किसान का ख़याल भी नहीं रखते । यह अनायास नहीं, उनकी कम्युनिस्ट राजनीति के सतीर्थ्य बनने के आग्रह का ही प्रतिफलन था । इन पार्टियों जिन सर्वहारा मिलमजदूरों की बात उस समय कि जा रही थी और स्वामी जी स्वयं जिनके साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कर रहे थे, वे तब संख्या में ही अत्यल्प थे । उनकी तुलना में किसानों की संख्या कहीं अधिक थी । लेखक ने कई बार यह रेखांकित किया है कि यह मैत्री स्वाभाविक न होकर विवश-मैत्री थी जो बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में अनिवार्य-सी हो गई थी । स्वामी जी का कांग्रेस में रहते हुए भी मुख्यधारा के राजनीतिज्ञों से मोहभंग और समाजवादियों के अवसरवादी रुख के बीच और रास्ता भी क्या था ?

            अंतिम लेख महाजागरण के शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद’ दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । एक तो इसमें स्वामी जी के कर्म-पक्ष की आलोचना है, जिसके आधार पर कुबेरनाथ राय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वामी जी किसान गुरु हैं । दूसरा यहाँ इस सवाल का उत्तर  भी मिल जाता है कि स्वामी जी के पास मार्क्सवादी पार्टी से जुड़ाव का  विकल्प क्या था ? वस्तुतः यह उस पराजेय योद्धा की अंतिम नियति का भी व्योरा है, जो अपने लक्ष्य के लिए सभी मोर्चों पर अकेले-अकेले लड़ रहा है । वह न तो किसी से समझौता करना चाहता है और न लक्ष्य से च्युत होना; परिणामतः अपनी समूची ईमानदारी, निष्ठा और सचाई के बावजूद आवाह निरंतर युद्ध कर रहा है और अंत में नए रास्ते और सहचर की तलाश भी उसके लिए युद्ध का विषय बन जाता है । इस पुस्तक को समाप्त करते हुए कुबेरनाथ राय के ही एक अन्य निबंध का शीर्षक जेहन में उभरता है, ‘वत्स! में निरंतर युद्ध कर रही हूँ । यह वाक्यांश ही संभवतः इस पूरी पुस्तक का निचोड़ भी है, जिसे श्री राय ने स्वामी सहजानंद के कृतित्व के माध्यम से पाठकों को दिखने की कोशिश की है। 

स्वामी सहजानंद के लोकनायकत्व का सम्मान के बावजूदकुबेरनाथ राय उन्हें वह सहानुभूति नहीं दे पाए हैं, जो पत्र मणिपुतुल के नाम में गाँधी जी को सहज-लब्ध है। 

लेकिन, इससे स्वामी जी का भला ही हुआ है। अंधभक्तों और एकाकांगी आलोचकों के बीच उन्हें एक ऐसा आलोचक मिला है, जो उनकी एक रेडीमेड छवि बनाने के बजाय पाठकों के सम्मुख उनके व्यक्तित्व की विभिन्न गांठों (Ambiguities) और ऐठनों को खोलकर रख देता है, फिर कबीर की तरह कहता है ऐसा लो नहीं वैसा लो और अंत में यह अनूठा है या नहीं इसका विवेक पाठकों पर छोड़ देता है । एक बहुलता-विश्वासी लोकतान्त्रिक लेखक के लिए यही उपयुक्त रास्ता भी है।  


बुधवार, 21 नवंबर 2018

विचार और अंतर्दृष्टि : अरथ अमित आखर अति थोरे


राजीवरंजन
 “आलोचना में विश्लेषण या विवेचन के विवरण की संपूर्णता का महत्त्व नहीं होता; महत्त्व विवेचन या विश्लेषण के पीछे सक्रिय अंतर्दृष्टि या समझ का भी होता है । कभी-कभी तो यह इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि इसके पीछे की और बातें गौण या उपेक्षणीय हो जाती हैं ।” ‘आलोचना और अंतर्दृष्टि’ पुस्तक प्रोफेसर  हनुमानप्रसाद शुक्ल की इस आलोचना-दृष्टि का सर्जनात्मक दृष्टांत है । पुस्तक का आकार सीमित होते हुए भी इसकी अंतर्वस्तु बहु-आयामी है । इसमें भाषा, साहित्य और इन दोनों के रास्ते संस्कृति के अनेक प्रश्नों पर विचार के साथ ही यह इनसे जुड़े तमाम नए प्रश्नों का प्रस्थान भी है । 


इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लेखक ने साहित्य को भाषायी सीमाओं और माध्यम विशेष की सीमित परिधि से बाहर निकालकर देखने-पढ़ने की हिमायत की है । उनके अनुसार ‘भारतीय चित्त को उन्मथित करने वाले बुनियादी प्रश्नों और उसकी चेतना को व्याप्त करने वाली अवधारणाओं’ के आधार पर भारत की सभी भाषायी इकाइयों के साहित्य में एक आत्मीय रिश्ते की तलाश की जानी चाहिए । अतः भारतीय साहित्य की संकल्पना और उसे साकार करने में तुलनात्मक भारतीय साहित्य और तुलनात्मक भारतीय साहित्य-मीमांसा की भूमिका को पहचानने की कोशिश इस पुस्तक की दो महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं । पुस्तक की लघु आकृति और उसके विषय वैविध्य के बावजूद लेखक ने इसकी सैद्धांतिकी ही नहीं पेश की है, प्रत्युत् अपने आलोचनात्मक लेखों द्वारा उसे व्यावहारिक आधार भी दिया है । यह महत्वपूर्ण है कि यहाँ 'भारतीयता' एक रूढ़ पद या स्थानीय अस्मिताओं का विरोधी नहीं है । बल्कि, साहित्य में ‘भारतीयता’ की तलाश के क्रम में लेखक ने लोक-निष्ठा के साथ उसके अविरोधी संबंध और सह-अस्तित्व को समझाने की कोशिश भी की है । जायसी केन्द्रित ‘जायस नगर मोर अस्थानू ...’ लेख इसका सटीक उदाहरण है, जिसमें जायसी की लोकनिष्ठा को ही लेखक ने उनके साहित्य की ताकत और उनके एक ‘भारतीय कवि’ होने का प्रमाण माना है ।

हिन्दी भाषा और उससे जुड़े विभिन्न सवालों पर लिखे गए अपने लेखों में लेखक ने भारतीयता के इस पक्ष को और अधिक स्पष्ट और तार्किक रूप में विश्लेषित किया है । ये लेख हिंदी और उसकी आधार भाषाओं (बोलियों) तथा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के आपसी संबन्धों को देखने की एक नई दृष्टि देते हैं । उनके अनुसार हिंदी एक भाषा नहीं, बल्कि उत्तर भारत में बोली जाने वाली जनपदीय भाषाओं का एक संयुक्त उत्तराधिकार (कॉमनवेल्थ) है, जिसकी और अधिक समृद्धि या स्वीकार्यता दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ सहकार पर निर्भर है । आज जबकि एक ओर उत्तर भारत की विभिन्न क्षेत्रों में उनकी भाषाओं के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति की मांगे चल रही हैं और दूसरी ओर दक्षिण में हिंदी के प्रति अस्वीकार्यता की बर्फ अभी पूरी तरह पिघली नहीं है, प्रोफेसर शुक्ल का भाषा के प्रति यह उदार दृष्टिकोण विशेष महत्त्व का है । दरअसल, वे भारत में भाषा के प्रश्न को अधिक उदार और हिंदी को कहीं अधिक खुली भाषा बनाने के पक्षधर हैं । भाषा के प्रति उनकी लोकतान्त्रिक दृष्टि का एक दूसरा उदाहरण भी है हिन्दी भाषा की लैंगिक एकांगिता को रेखांकित करना और उसे एक लिंग-निरपेक्ष भाषा के रूप में विकसित करने का उनका प्रस्ताव । ‘स्त्री विमर्श और हिंदी भाषा का पुनर्संवाद’ शीर्षक लेख में इसी विषय को आधार बनाया है । 


भाषा और साहित्य संबंधी लेखक की मान्यताओं का मूल आधार उनका ‘भारत-बोध’ है । उन्होंने भारत को एक जीवंत और बहुलतावादी देश के रूप में रेखांकित किया है । उनके अनुसार यह बहुलता ही भारत की आत्मा है— “भारत एक बहुभाषिक-बहुजातीय-बहुसांस्कृतिक-बहुधर्मी-बहुपंथी इकाई है; इन सबका संश्लेष और समवाय है । भारतीय मानस की निर्मिति इसी समझ से बनी है । भारतीय साहित्य इसी ‘भारतीय मानस’ की अभिव्यक्ति है ।” यह बहुलता सहजात और स्वाभाविक है— “भारत एक भौगोलिक सांस्कृतिक इकाई भी है । भूगोल का विस्तार बहुत अधिक है । कहीं-कहीं उसमें जो कुछ भेदक रेखाएँ दिखाई देती हैं, वे भारत नामक ‘विराट्’ विग्रह के  संयोजक ‘संधि-बिंदु’ हैं । जैसे मानव वपु अनेक अंग संस्थानों के संयोजन से जीवंत आवयविक अस्तित्व पाता है; ठीक वैसा ही जीवंत और आवयविक अस्तित्व है ‘भारत’ । इसलिए राजनीतिक इकाई या इकाइयों के रूप में भारत को देखने की भूल नहीं करनी चाहिए । यह भौगोलिक एकता भारत की सांस्कृतिक एकता की रीढ़ है । इसके कारण मूल्यों, आदर्शों, धर्मों, विचारों, विश्वासों, दर्शनों, कलाओं आदि के अखिल भारतीय प्रसार में सहजता रही है । इस एकता और संवेदना के साझे के कारण ही एक भारतीय ‘चित्त’ या ‘मानस’ बनाता है । इस मानस द्वारा सृजित-सर्जित वस्तु को ही हम ‘भारतीय संस्कृति’, ‘भारतीय दर्शन’, ‘भारतीय संगीत’, ‘भारतीय साहित्य’ आदि नामों से संबोधित करते हैं । इसी आधार पर एक ‘भारतीय जीवन-दृष्टि’ अस्तित्वमान' होती है । यह ‘भारतीय जीवन-दृष्टि’ ही भारतीय साहित्य की ‘आत्मा’ है ।” ये उद्धरण आज के हमारे परिवेश के संदर्भ में खास अर्थ रखते हैं, जबकि हम एकरूपता को ही एकता का आधार मानने के लिए लिए विवश किये जा रहे हों । 

यह पुस्तक प्रोफेसर हनुमानप्रसाद शुक्ल के एक सुधी आलोचक, भाषाविद और संकृतिचेता व्यक्ति की अभिव्यक्ति और पाठक के लिए इन विषयों पर एक विशेष दृष्टि से साक्षात्कार के अवसर के साथ-साथ आधुनिक भारतीय साहित्य के अध्ययन के लिए एक नए शास्त्र प्रस्तावना भी प्रस्तुत करती है ।  उन्होंने ‘तुलनात्मक साहित्य-मीमांसा’ और ‘भारतीय रस-चिंतन’ की ओर पाठकों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया है । दादेगावाकर की पुस्तक ‘रसचर्चा’ की समीक्षा ‘शास्त्र सूचिन्तित पुनि-पुनि देखिय’ में लेखक ने ‘भारतीय रस-चिंतन’ को देखने और समझने पाठकों के लिए एक नया वातायन खोलने की कोशिश की है और एक लेख के सीमित आकार के बावजूद उसे उद्घाटित करने में सफल भी रहे हैं ।

भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, तुलनात्मक साहित्य-मीमांसा, हिंदी भाषा के विभिन्न पक्षों आदि पर केन्द्रित लेखों के साथ ही यहाँ हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों, लेखकों और उनकी कृतियों पर आलोचनाएँ और समीक्षाएं भी मौजूद हैं । इनमें जायसी, एषुत्तछन, आचार्य शुक्ल, प्रेमचंद, नवीन, आचार्य वाजपेयी, निर्मल वर्मा, विजय मोहन सिंह ,चंद्रकांत देवताले, तिलोत्तमा मजूमदार, सुरेन्द्रवर्मा आदि शामिल हैं । ये चुनाव लेखक के साहित्य-बोध के दायरे और उनकी अंतर्दृष्टि के भी प्रमाण हैं और तीन खंडों में अन्तःविभक्त यह पुस्तक अपनी समग्रता में पाठक की चित्त-रिद्धी का एक महत्तर उपक्रम । अतः सीमित पृष्ठों में इतना सब समाहित करने वाली इस पुस्तक की पहचान गोस्वामी जी के इन शब्दों में ही संभव है कि ‘अरथ अमित आखर अति थोरे ।’ 

पुस्तक: विचार और अंतर्दृष्टि               लेखक: प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्ल
प्रकाशक : शिल्पायन, दिल्ली               मूल्य: 550/-    

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

उठ जाग मुसाफ़िर : विवेकी राय




विवेकी राय हिन्दी ललित निबन्ध परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं. इस विधा में उनकी गिनती आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदि, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय जैसे शीर्षस्थानीय निबन्धकरों के साथ की जाती है. उनके निबन्ध सग्रह ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ और ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ उनकी पहचान के शुरुआती आधार बनते हैं तो ‘वन तुलसी की गन्ध’ और ‘जगत तपोवन सो कियो’ निबन्ध के क्षेत्र में नए क्षितिज के विस्तर के प्रमाण हैं . इस विधा में उनके अब तक ग्यारह संग्रह प्रकशित हो चुके हैं. ‘उठ जाग मुसफ़िर’ उनका बारहवां निबन्ध संग्रह है. 

     ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ की भूमिका में विवेकी राय ने लिखा है- ‘‘कई बार चर्चाओं में यह बात आई कि ललित निबन्ध एक ठहरी हुई विधा है और इसमें अब ज्यादा कुछ लिखने-करने की सम्भावना नहीं है .’’(पृष्ठ ७) ठीक यही बात रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य संवेदना का विकास’ में लिखी है- ''पर इस माध्यम की कठिनाई यह है कि इसका स्वरुप और इसके आंतरिक तत्व कुछ ऐसे प्रतिमानीकृत हो चुके हैं कि उसमें किसी बड़े प्रयोग की  सम्भावना नहीं रह जाती। प्रताप नारायण लेकर अब तक ललित निबंध के ढांचे में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ" (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास-255). एक ललित निबन्धकार के लिए यह एक बडी चुनौती है . विवेकी राय इस चुनौती  को स्वीकर करते हैं- “मेरे भीतर एक प्रबल संकल्प बनकर उठ गया ‘ अवश्य, ऐसा लग रहा है कि ललित-निबन्ध ठहरी हुई विधा है ' मगर यह ललित निबन्धकार ठहरा हुआ नहीं है.” यही वह चुनौती है जिसने उक्त संग्रह के निबन्धों के लेखन की भूमिका तैयार की. इस पूरी कृति में कुल १० निबन्ध हैं- ‘मेरी दिनचर्या : कुछ आयाम’, ‘नमो वक्षेभ्यः’, ‘उठ जाग मुसाफ़िर’, ‘केना’, ‘ग्रीष्म बहार’, ‘ततः किम्’, ‘तिनडंडिया चोट से उभरा समय और सवाल’, ‘चिन्ता भारत के उजडते गांवो की’, ‘गांव पर बनाम गांव में,’ ‘सवाल जीवन का’.   

विवेकी राय की पहचान बहुआयामी है. वे ललित निबन्ध के साथ ही कथा और कविता विधा में भी सक्रिय रहे हैं. यही कारण है कि कथात्मकता, काव्यत्मकता और वैचारिकता उनके निबन्धों में भी साथ-साथ उपस्थित रहे हैं . ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ समूचा संग्रह इसका अद्वितीय उदहरण है . ‘उठ जग मुसफ़िर’ संग्रह में भी इस तरह के उदहरणों की भरमार है.  इस पुस्तक का ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ निबन्ध मस्टर साहब से मिलने जाने की घटना से शुरू होता है - “वहां जाते समय कल्पना कर रहा था कि सदा की भांति तन-मन से पूर्ण स्वस्थ होंगे , पूर्ववत् धधाकर सहास मिलेंगे, सदाबहार से दिखेंगे फ़ुल्ल-कुसमित...’’( पृष्ठ ४२). यह अन्दाज़ किस्सागोई का है. लेकिन, निबन्ध के अन्त तक आते-आते, सन्दर्भों और तर्कों से गुजरते हुए,वे क्रमशः वैचरिक होते जाते हैं - “यह है माता, मातृ-भूमि, जन्मभूमि, स्वर्गलोक से भी प्यारी, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, एक जगा हुआ व्यक्ति इसके लिए तडप रहा है. इस तडपन में गीता के ऊंचे ज्ञान की गूंज है. यह भूमि (अष्टभेदी प्रकृति में प्रमुख) ही माता है और पुरुष ही परमात्मा पिता है. और न कोई माता है न पिता. वे तो निमित्त मात्र हैं. इसी माता, भूमि, मातृभूमि और सबका भाव जिसके सपनो में डूबा मुसाफ़िर पूरे देश को जगाता है. माता बिन आदर कौन करे, एक धन्यता का भाव है एक भावभीनी जननी जन्मभूमि की प्रार्थना है, एक मन्त्र है, सुमिरन भजन और कीर्तन है, जीवन साधना का सार है,....अन्तिम परीक्षा की घडी में वाल्मीकि की सीता जी ने भी पुकारा था- ‘माधवी देवी विवंर दातुमर्हति.’”. (पृष्ठ-५२) वैचरिक अनुशासन और कथात्मक प्रवाह की यह समन्विति ही विवेकी राय के निबन्धों को अलग पहचान देती है, जो इस संग्रह के अधिकांश निबन्धों में मौजूद है. इसी तरह इस पुस्तक से निबन्धों पर लेखक के कवि मन की छाप के भी कई उदारहरण दिये जा सकते हैं; जैसे, “वह वृक्ष भी आम का ही था जिसे सडक के पास एक खेत में अकेले मस्ती में झूमते हुए देखा था. अरे, वह झूम क्या रहा था, उद्धत-उन्मत्त नृत्य कर रहा था. फल-भार से झुकी डालियां पुरवा हवा के झकोरे खाकर जैसे अंग-अंग मरोडकर, झहर-झहरकर, दाहिने-बाएं झूम-झूमकर, कुछ ऊपर उठ, नीचे झटक जैसे झूले के पेंग में लहरकर स्वयं उत्सवी त्यौहार मना रही थीं. नीचे से ऊपर तक हर डाली का, हर टहनी का, हर पत्ती का और लट्टू-से डांटियों में लटके, झूमते भूरे-कष्णाभ फलों का, अकेले या झोंप-के-झोंप फलों का अलग-अलग जलवा था” (पृष्ठ३०). यहां वर्णन में कविता की-सी लय है और कला जैसी सजीव चित्रात्मकता.            
          ग्रामीण जीवन के प्रति गहरी रागात्मकता उनके लेखन की अपनी एक खास पहचान है. गंवई जीवन के प्रति ऐसा जुडाव हिन्दी के किसी भी निबन्धकार में सर्वथा दुर्लभ रहा है. रेणु के उपन्यासों ने उपन्यास विधा को नई पहचान और एक नया विशेषण ‘आंचलिक उपन्यास’ दिया, उसी तरह विवेकी राय के निबन्ध भी निबन्ध विधा के भीतर खुद को आंचलिक निबन्ध के रूप मे अलग पहचन दे पाते, यदि आचर्य द्विवेदि और उनके पर्वर्ती निबन्धकारों ने ‘ललित निबन्ध’ पद को स्वीकार कर सारे व्यक्ति-व्यंजक निबन्धों को इसकी परिभाषा में समहित न कर लिया होता. ‘नवनिकष’ के विवेकी राय विशेषांक में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में उन्होंने कहा है -“ मेरे लेखन की पष्ठ्भूमि ग्राम-जीवन है. वास्तव में वही मेरा जीवन भी है. लगभग आधी उमर धुर देहत के एक गांव मे गुजारने के बाद  एक अत्यन्त पिछडे और छोटे शहर में आया भी तो शहरी नहीं बन पाया...एक पैर गाजीपुर में रहता है तो एक पैर गांव सोनवानी में रहता है. भारत सरकार की कृपा से गांव वाले पैर को आराम बहुत है क्योंकि गाज़ीपुर से गांव पर जाने के लिए छोटी लाइन के पांचवे स्टेशन ताज़पुर-डेहमा पर उतरने के बाद जाडे-गरमी के दिनों में डेढ घंटा पदयात्रा करना अनिवार्य होता है. बाढ-बरसात के दिनो में यह समय दुगुना से ले कर चौगुना तक हो जाता है. सडक एक दुःस्वप्न है. भारत के लाखों गावों की भांति अभी मेरा गांव भी बिजली और सडक से वंचित है.”(पृष्ठ-७) यही कारण है कि उनके यहां ग्रामीण जीवन के प्रति गहरी लोक-संसक्ति है. उन्होंने अपने समूचे लेखन में गांव को बेहद संजीदगी से जिया है . प्रेमचन्द के ’लमही’ और विवेकी राय के ‘सोनवानी’ में फ़र्क है . लमही बनारस से बहुत नज़दीक है और इसलिए शहर से गांव का लगभग सीधा सम्वाद भी है, गांव और शहर के बीच सम्वाद की यह झलक प्रेमचन्द के लेखन में बार-बार दिखाई भी देती है. ‘गोदान’ में भी ग्रामीण और शहरी परिवेश की एक साथ उपस्थिति है. होरी, धनिया, गोबर, मतादीन, सिलिया आदि ग्रामीण पत्रों के साथ ही रायसाहब, मेहता, मालती, खान्ना जैसे नगरीय जीवन के अभ्यस्त पात्र भी हैं. लेकिन, विवेकी राय ने जिस गांव की बात की है वह इसससे अलग है. यदि सीधे-सीधे कहने की सुविधा हो तो यही कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द के यहां ग्रामीण जीवन का चित्रण है और विवेकी राय के यहां गंवई जीवन और परिवेश की आत्मीय उपस्थिति. गंवई जीवन के प्रति उनके जैसी आत्मियता और उसमें घटित होने वाले बदलावों का वैसा सूक्ष्म रेखांकन केवल फ़णीश्वर नाथ रेणु के उपन्यसों में ही देखा जा सकता है. 
             निबन्ध विधा के भीतर भी उनकी पहचान का एक मजबूत आधार ग्रमीण जीवन के प्रति गहरा लगाव है. ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ संग्रह के दो निबन्ध ‘चिन्ता भारत के उजडते गावों की’ और ‘गांव पर बनाम गांव में’ तो शीर्षक से ही ग्रामीण परिवेश से जुडाव व्यक्त करते हैं. ‘तिनडंडिया चोट से उभरा समय और सवाल’ शीर्षक निबन्ध में उन्होंने लिखा है,- “सायंकाल किसी के खेत में ‘कोठा’ छूट जाने का अनुमान होता, अर्थात लगता कि खेत का कुछ भाग छूट जाएगा, तो कुछ समय पहले काम समाप्त हुए किसी भाई का सहयोग मिल जाता-बिना मांगे भी. एक दिन मुझे भी अकस्मात ऐसा ही सहयोग मिल गया और सूर्यास्त होते-होते ‘मेरा कोठा मार दिया गया’...यह प्रेम,भाईचारा,सहयोग और सहकार का अमृत है, जिसे पीकर अकाल पीडित गरीब गांव जीवित है...साठ-सत्तर साल पूर्व का था यह जीता जागता परिदृश्य...स्वराज्य, विकास, नई खेती, नए ढांचे, नई-नई साधन-सम्पन्नता, सुविधा, नए तन्त्र-यन्त्र और मनी-मन्त्र में फंस किसान निरानन्द और गांव उदास क्यों हो गए ?...यह तुम्हरी कैसी सुराजी विकास की नई यान्त्रिक-व्यापरिक खेती है, जिसने ग्राम-देवता को मार डाला और गांव भलमानुस-विहीन हो गया? "(८५-८६). यहां स्वराज, पंचायती राज और समन्वित-विकास की सरकारी होर्डिंगों पोस्टरों और बैनरों से इतर, सरकारी स्लोगनों के ठीक उलट, आज के गांव की वास्तविक तस्वीर है जो पुरानी पिढी की स्मृतियों के गांव के रूप में आज के गांव के सामने डट कर खडी है. लेखक स्मृतियों के उस गांव को अपने लेखन में फ़िर से जी रहा है. यह पुरातनता का मोह या उसके पुनर्जीवन कि आकांक्षा नहीं बल्कि, परम्परा के ‘अस्ति-पक्ष’ को बचाए रखने की एक रचनात्मक जिद है.गांवों की उपेक्षा और उनसे निरन्तर कटते जाने का आभास महात्मा गांधी को बहुत पहले ही हो गया था. ‘हरिजनसेवक’ में ३०-०७-१९३८ को उन्होंने यह लिखा था-“जिन्हें शिक्षा का सौभाग्य प्राप्त है, उन्हें गावों की बहुत समय से उपेक्षा की है. उन्होंने अपने लिए शहरी जीवन चुना है.” इसके बर-अक्स उन्होंने जिस ‘ग्राम-स्वराज’ की बात की थी वह उस ‘सुराज’ से बहुत अलग है, जिसपर विवेकी राय ने व्यंग किया है. उनके सुराज में सहकारी खेती और सहकारी पशुपालन की बात शामिल थी. वे ग्रामीण जीवन के सहयोग और सहकारिता से परिचित थे. उन्होंने गांवों के लिए एक अहिंसक अर्थव्यवस्था की कल्पना की थी, “अहिंसा की रचना कारखानों की सभ्यता की बुनियाद पर नहीं हो सकती है. मेरी कल्पना की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था शोषण का पूरा बहिष्कार करती है और शोषण ही तो हिंसा का सार-तत्व है. इस लिए आपको अहिंसक बनने के लिए पहले ग्रामदृष्टि का विकास करना पडेगा. ” (हरिजन सेवक,१.९.१९४०) स्पष्ट है गांधी ‘ग्राम-दृष्टि’ और ‘ग्राम-जीवन’ को नष्ट किए बिना विकास की बात कर रहे थे गांवों के तथाकथित नगरीकरण और आधुनिकीकरण के नाम पर संसाधनों से लेकर जीवन तक अन्धाधुन्ध यांत्रिकीकरण की नहीं. विवेकी राय की चिन्ता इसी ‘यान्त्रिकीकरण’ के विरोध से जन्मी है. पुराने जमाने की बात करते हुए उक्त अंश में विवेकी राय जिस रागत्मकता को रेखांकित कर रहे हैं, वह आज यांत्रिक होते ग्रामीण जीवन के कारण क्रमशः छीजती जा रही है-“ इसी करवट में ग्राम-विकास की बढती गाडी गावों के उजाड तक पहुंची. विकास तन्त्र, नवजीवित जातिवाद, चुनाव की राजनीति. इन चार रास्तों से चार चोर शनैः शनैः काल्क्रम से, छद्म वेश में घुसे गावों में...गांव बेपहचान हो गया. उसकी सामजिक एकता, पारस्परिक राह-रस्म. भाईचारा और भोज-भात की अन्यतम विशेषताएं तथा ग्राम-भाव के केंद्रीय तत्व-स्वरूप सांस्कृतिक परंपराएं सबकुछ घिस-पिट बदरंग हो समाप्त प्राय है. ”(पृष्ठ-८८) उनकी चिन्ता इन छीजते हुए जीवन-मूल्यों को बचाने की चिन्ता है जो एक बाहरी आदमी के लिए सम्भव नहीं, उसके लिए गांव या तो पिकनिक-स्पाट है या तमाम कुरूपताओं, विसंगतियों और विडम्बनाओं की शरणस्थली. वह या तो उसे संरक्षित करना चाहता है, या फ़िर बदलना. लेकिन विवेकी राय के निबन्ध उससे जुडने, उसे अनुभव करने और जीने के लिए आमंत्रित करते हैं.
विवेकी राय का मन गांव-घर और सिवान-मथार में खूब रमा है. अर्ध-नगरीय कस्बाई जीवन से आ जुडने के बावजूद, वह अब भी उनकी सैर करने निकल जाता है. निबन्ध उनकी इसी मनोयात्रा के सहचर हैं. गांवों के प्रति गहरा आकर्षण बल्कि, मोह की स्थिति के कारण प्रायः यह महसूस होता है कि उनके यहां एक ही विषय का अतिशय दोहराव है और वे इससे बाहर नहीं निकल पाए हैं. लेकिन यह एक सतही अनुभव है. उनके निबन्धों में आहिस्ते-आहिस्ते उतरा जाय तो ऊपर से बहुत सरल और सीधे लगने वाले या रोचक लालित्यपूर्ण निबन्ध भी बहुत गहरी अर्थ-व्यंजकता, उदात्त जीवन-दर्शन और सामजिक-बोध से सम्पन्न हैं. गांव उनके लिए शहस्र-शीर्षा, शहस्र-पाद भारत की एक लघु इकाई हैं. कहा जाता है, एक चावल देख कर तसले के भात के पकने का अंदाज़ा लग जाता है, गांव तसले के उसी चावल की तरह हैं जिनसे भारत में हो रहे बदलावों की नब्ज टटोली जा सकती है. विवेकी राय गांवों के बहाने पूरे भारत की बात करते हैं. भूख, बेरोजगारी, बेकारी, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी तमाम समस्याएं, उनके यहां इसी माध्यम से व्यक्त हुई हैं. ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ संकलन के ‘सोने की लूट’ निबन्ध में गांव के दशहरे के बहाने उन्होंने सामजिक-यथार्थ के अनेक धूप-छाहीं रंगों को मिलाकर ललित निबन्ध के फ़लक पर भारतीय जीवन का एक वास्तविक चित्र अंकित किया है “अब मेरे सामने यह मुट्ठीभर मिट्टी है.यह मिट्टी नहीं लंका का सोना है. सकल विश्व-सम्पदा की राशि को चाकर रखने वाला रावण जल गया. उसकी सोने की लंका में ‘रहा न कुल कोऊ रोवनिहारा’. रामराज्य का श्रीगणेश हो गया.....काश कि वह दिन दूर न होता जब विश्वमंच पर शोषण,बर्बरता,अन्याय...धर्मान्धता और पैशचिकता के दशानन का बध होता” (फ़िर बैतलवा डाल पर,४४). यह एक स्वप्न है, एक शुभाकांक्षा है, जो उनके निबंधों में बार-बार ध्वनित होती है, ‘ग्राम-जीवन’ इसी स्वप्न की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और ऐसा शायद इसलिए कि यहां नगरीय जीवन से कम जतिलताएं हैं और सहज मानुस-भाव अब भी कुछ-न-कुछ हद तक बचा हुआ है-“ रामलीला है, त्यौहारी उल्लास हैं, उर्जस्वित अखाडे हैं, आह्लादक मंगलिक गीत हैं, एक परिवार का मंगलिक महोत्सव जैसे पूरे गांव का है..... सह जीवन सामूहिकता और सहयोग-भाव सर्वोपरि है. ऐसा तो एक दम नहीं हमसे क्या मतलब ?”(पृष्ठ,९८). लेकिन, इन स्थितियों के भीतर भी आधुनिकता ने एक फ़ांक पैदा कर दी है. मांगलिक गीतों की धुन फ़िल्मी गीतों के तिलिस्म में  कहीं खोती जा रही है. कंहरुआ,लोरकी,बिरहा से लेकर विवह गीत, सोहर और देवी गीत तक धीरे -धीरे संग्रहालयों की ओर रुख कर रहे हैं. ‘मास-कल्चर’ और ‘पपुलर कल्चर’ के वर्तमान दौर में देशी; गंवई परंपराओं की बहुरंगी संस्कृति, ‘फ़िल्मी कल्चर’ के छ्तनार वृक्ष के नीचे ‘बोनसाई’ जैसी या एकरूपता के नीरस असीमित विस्तार के बीच किसी ‘ओएसिस’(मरुद्यान) की तरह भूले भटके ही दिखाई दे जाती है. विवेकी राय के शब्दों में, “गांव नकलबाजी में शहर का कर्टून बनकर रह गया है”(पृष्ठ,८९)
देश की आजादी के बाद व्यवस्था के नये तंत्र में गांव सबसे अधिक पीसे गए हैं-उनकी सर्वाधिक क्षति हुई है. शहर जहां आधुनिकता की दौड में बहुत तेजी से आगे निकल गए हैं और उन्होंने अपना ऊपरी केंचुल उतार फ़ेंका है (यह बात अलग है कि मनोग्रंथियां और जटिल हुई हैं) वहीं गांव आधुनिक जीवन की विसंगतियों और पुराने केंचुल दोनों को एक साथ ढो रहे हैं-“ बदलाव के संक्रमणशील आधुनिक स्रोतों के प्रभाव से सीधा-सादा गांव अब विचित्र प्रकार का तिकडमी-फ़ितरती हो गया है.शहर के लोग यदि गांव में चले गए तो ग्रामीण उन्हें लंगी मारकर गिरा सकता है”(चिंता भारत के गावों की,उठ जाग मुसाफ़िर,९३).या फ़िर “ लगता है गांव सडक से उठकर सडक पर आता जा रहा है.  किसान दुकानदार बनता जा रहा है. खेत में खडा है तो उसका चेहरा कुछ और तरह का है तथा सडक पर कुछ और तरह का...अच्छा है बदलाव को विकास कहें...”(गांवपर बनाम गांव में, उठ जाग मुसाफ़िर,१०७). कारण; ‘विकास’, यानी एक बहुत बडा छद्म, जिसे वर्तमान व्यवस्था ने रचा है. विवेकी राय इस छ्द्म का प्रतिवाद करते हैं,“ मैंने वैसे आत्मतुष्ट गावों को देखा है और जिया है जिनके आधे-अधूरे लोग भी अपने आपमें पूरे थे और गांव-पर-गांव का अधिकार रखते थे.” ( वही,८९).  तो फ़िर क्या गांवई जीवन की ओर फ़िर लौट चला जाय, फ़िर उस परम्परा का पुनरुत्थान किया जाय जो पुरानी पड गई है, जो लगातार कदम-कदम पर तार-तार हो रही है, “ मेरा उत्तर है नहीं, यह असम्भव है”(वही,९९). फ़िर उपाय क्या है - शहरों के निरन्तर विस्तार और गांव में घुस आए शहरीपन का स्वागत ! विवेकी राय इससे भी असहमत हैं. वे पुनरुत्थान को तो नकारते ही हैं, अन्धाधुन्ध नगरीकरण के भी परम विरोधी हैं- “मगर उसे इस प्रकार उपेक्षित, प्रवंचित और अधकचरी शहरी मानसिकता में प्रवाहित-पतित आत्मघाती अवस्था में लुढकते जाने देने का समर्थन भी तो नहीं किया जा सकता.”(पृष्ठ-९९). यह द्वंद्व लेखक का निजी द्वंद्व नहीं समुचे गंवई समाज का द्वंद्व है. वह खुद को, अपनी परम्परा को बचए रखने की जद्दोजहद भी कर रहा है और साथ ही आधुनिक जीवन से ताल-मेल बिठाने की कोशिश भी कर रहा है. इन दोनों के बीच वह निरन्तर लिथड रह है-“ पुरातन परम्पराओं, रीति-रहनि और वैश्विक सटाव के दो ध्रुवांतों के बीच आज का ग्राम जीवन अटका-भटकापरम अनिश्चय की स्थिति में है. यह अपने पुरानेपन के सुखद व्यामोह को विस्मृत नहीं कर पाता है...नई पीढी के लिए पुरानी परंपराएं असंगत हो गई हैं. उसे लगता है पुरातनता मात्र एक निष्क्रिय भावात्मक सत्ता है”(पृष्ठ-९१). विवेकी राय इसके समाधान की बात भी करते हैं, जो गांधी-मार्गी है. उनके लिए यही स्वाभाविक भी है क्योंकि वे गांधी-चिन्तन में आस्था रखते हैं. यह बात उनके लेखन से गुजरते हुए, एक सचेत पाठक सहजता से समझ सकता है.
‘उठ जाग मुसाफ़िर’ को पढते समय कभी यह अनुभव होता है कि अपने ही गांव का कोई बडा-बुजुर्ग, कोई पुरनिया नई पीढी के किसी पढे-लिखे युवक को अपनी स्मृतियों की दुनिया की सैर करा रहा है तो कभी लगता है कि ‘कविर्मनीषी परिभूस्वयंभू’ को चरितार्थ करता हुआ कोई लेखक आधुनिक गंवई जीवन की संहिता का दर्शन (ऋषयः मंत्र द्रष्टारः) कर उसके मंत्रों का गान कर रहा है. फ़र्क यह है कि ये मंत्र आदिम मन के मुग्ध-गायन नहीं जैसा कि वैदिक ऋचाओं के सम्बन्ध में माना जाता है, बल्कि लेखक ने यहां असहमतियों के लिए प्रर्याप्त छूट ली है. वह स्वयं उनका भाष्य भी करता चल रहा है.  इस पूरी प्रक्रिया में लेखक का ‘किसान-मन’ अत्यन्त सजग है. इसलिए खेती-बारी, घर-दुआर, गांव-जवार की ही बात नहीं करता बल्कि, वह ऋतु और मौसम की, बतास और बयार की खबर भी रखता है. जब वह प्रकृति में रमता है, तो निरन्तर डूबता जाता है; आकण्ठ नहीं आपद-मस्तक. उसका दर्शन ही है- ‘ज्यों-जों बूडे श्याम रंग त्यॊं-त्यॊं उज्ज्वल होय’. बिना इसके ग्रिष्म जैसे भुतहे मौसम में ‘बहार’ (ग्रिष्म बहार) की कल्पना कहां संभव है ? एक किसान ही है जिसे इस मौसम में भी मजा लेने की आदत है. चैती कटी है, बाग में महुए की मादक गन्ध है, आम के टिकोरे हैं, जौ या चने का सत्तू और आम की चटनी या ‘पन्ना’ है. बारहों महीने यह मौज कहां - कभी फ़ांका और कभी आधा-पेट.  लेखक आज की ‘अपरिचित’ गरमी के बीच उन्हीं दिनों की याद कर रहा है- “किसी बगीचे में पेड के नीचे आराम से सोते-बैठते, हंसते-बोलते लू भरी दोपहरी कट जाती. अब न बाग न वृक्ष ! झंखन में अचेत पडे-पडे भीतर-ही-भीतर गुनावट में डूबे हैं गांव या शहर के वृद्धजन!”(पृष्ठ-६२). किसान का प्रकृति से गहरा नाता है. वह भी उसके परिवार की एक सदस्य है- “गांव के बाहर कचनार अमराइयां हैं, चीं-चीं चहचह से गुलजार बंसवारियां हैं.....वृक्ष देवता भी मानवी रिश्तों में बंधे हैं. नया लगाया गया बाग फ़लदार होने लगा तो उसका विधिवत विवाह हुआ. लगाने वाला व्यक्ति फ़ल नहीं खाएगा” (पृष्ठ-९८). यह है किसान और प्रकृति का रिश्ता. यहां मानव विजेता और प्रकृति विजित नहीं है. डार्विन के ‘श्रेष्ठतम् की उत्तरजीविता’ और सम्भावनावादी भूगोलवेत्तओं का मनव-प्रकृति संबंध यहां लागू नहीं है. यहां मानव  उपभोक्ता और प्रकृति उपभोज्य नहीं है. दोनों में रागात्मक संबन्ध है, साहचर्य और आत्मीयता है. विवेकी राय की चिन्ता मानव और प्रकृति के बीच इस साहचर्य और आत्मीयता को बचए रखने की चिन्ता है. यही गांधी के अहिंसा दर्शन की भी विशेषता है. ये दोनों ही ‘ईशावास्योपनिषद्’ के इस श्लोक से प्रभावित जान पडते हैं –
ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्.
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्चिद्धनम्..
यह केवल आस्था और आस्तिकता की बात नहीं है; बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन है, जिसपर समूचा भारतीय मानस टिका है. भोग के लिए भोग या अनन्त लिप्सा और अनन्त उपभोग नहीं, त्याग और भोग का समन्वय- दोनों की सम स्थिति, यही भारतीय जीवन-दर्शन है- ‘तत्तु  समन्वयात्’. यही भारतीय सौन्दर्य-दृष्टि और भारतीय आर्ष-चिन्तन की रीढ है. यहां वृक्ष देवता है, नदी देवता है, पर्वत देवता है, सूर्य, अग्नि, वायु, थल सब देवता हैं. यहां तक कि अन्न भी देवता है, उससे फ़ूटा अंकुर और हरीभरी फ़सल भी देवता है. भोजपुरी किसान के लिए ‘हर-हर महादेव’ का नारा नहीं; ‘हरियर-हरियर महादेव’ की कामना अधिक महत्व रखती है. विवेकी राय ने उसी किसान और उसकी चेतना की बात की है- “वृक्ष देवता हैं उन्हें काटना या क्षतिग्रस्त करना पाप है”(९८).


 इसी संग्रह में ‘नमो वृक्षेभ्यः’ शीर्षक पूरा निबन्ध ही प्रकृति-मानव-सबन्धों के इसी साहचर्य पर केन्द्रित है. इसमें इस साहचर्य की अनेक स्थितियों का वर्णन किया गया है और  इस परस्परता के क्रमशः क्षरण की चिन्ता भी है- “आश्रय वाली पैरों तले की जमीन खिसकती रहे और ग्लोबल वार्मिंग अफ़वाह नहीं सिर घहराई नाना रूपों वाली सत्यानाशी आपदा बन गहराती रहे तथा वृक्षाश्रित पक्षी-प्राणी बंजर जन-मन को कोसते रहें,मरते रहें,विलुप्त होते रहें, चिन्ता कौन करता है ? भीड में पैर उठे हैं सबका जो होगा, हमारा भी वही होगा.” स्पष्ट है, लेखक के प्रकृति से लगाव का कारण किसान-मन की प्रकृति से सहजात आत्मीयता मात्र नहीं है बल्कि, वैश्विक जीवन की चुनौतियों के प्रति सजग और विवेक-संयुत् मानस की मानव-हित चिन्ता की अभिव्यक्ति भी है. अतः गंवई जीवन और प्राकृतिक परिवेश से विवेकी राय का यह लगाव और आत्मीयता ‘भावुकतापूर्ण अरण्यरोदन’ नहीं, वर्तमान उपभोक्तावादी समय की चुनौतीयों का एक सार्थक विकल्प भी है.