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मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

कुबेरनाथ राय का सहजानंद विषयक चिंतन

हिंदी पाठकों के सम्मुख कुबेरनाथ राय की पहली पहचान ललित निबंधकार के रूप में बनी । उनके आरंभिक निबंध, जो प्रिया नीलकंठी’ ‘रस आखेटक और गंधमादन में संकलित हैं, इसी विधा से संबद्ध हैं । इसी अर्थ में वे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय के रूप में एक त्रयी भी बनाते हैं । किन्तु, यह उनकी अधूरी पहचान है । वे सर्वांशतः एक भारतीय लेखक हैं । भारतीयता उनके लेखन का मेरुदंड है, जिसपर उनका समूचा चिंतन और सृजन टीका हुआ है । यह संस्कार-लब्ध और भारतीय आर्ष-चिंतन की परंपरा तथा लोक मन के गहन अनुशीलन और तादात्मीकरण से सहज-संपुष्ट भारतीयता है ।  उन्हें अपने भारतीय होने का औसत से अधिक घमंड’ है । वे कहते हैं कि 
इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा, ‘अहं भारतोSस्मि। 
भारतीयता’ न केवल भूगोल है न इतिहास है, न केवल चिंतन या संस्कार-प्रवाह । यह इन तीनों का संश्लेष है । इन्हें ही कुबेरनाथ राय क्रमशः मृण्मय भारत, शाश्वत भारत और चिन्मय भारत कहते हैं । इनका आपस में पूर्वापर या रैखिक संबंध नहीं, बल्कि अंग-अंगी-संबंध  है । मृण्मय भारत से चिन्मय भारत तक की यात्रा देह से आत्मा की ओर ऊर्ध्वगमन है । और, यह संयोग ही है कि रचना-क्रम की दृष्टि से उनकी अंतिम पूर्ण कृति भी चिन्मय भारत ही है । यह अपने प्रकाशित रूप में ठीक उसी दिन उनके परिवार के हाथ में आयी, जिस दिन (5 जून 1996 को) वे अपनी मृण्मय सत्ता को त्याग कर चिन्मय सत्ता में विलीन हो चुके थे ।

            पहली कृति प्रिया नीलकंठी के प्रकाशन (1971 ई.) से लेकर आगम की नाव (2005 ई.) तक कुबेरनाथ राय की अबतक 21 कृतियाँ प्रकाशित हैं और बाइसवीं कृति महाजागरण का शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ प्रकाशन-क्रम में है । इनके कुछ आलोचनात्मक निबंध तथा अन्य रचनाएँ इतस्ततः पत्रिकाओं-पुस्तकों में बिखरी हुई हैं। स्वाहा-शिखा शीर्षक से इनके एक अन्य संकलन का प्रकाशन प्रस्तावित था, किन्तु प्रकाशक के प्रमादवश न आ सका और उसकी अंधिकांश सामाग्री भी अब अनुपलब्ध है । अपनी समग्रता में ये सभी रचनाएँ भारतीय चिंतन-परंपरा और लोक-मन के बीच संवाद का उपक्रम हैं । इनके बीच लेखक नेरेटर या दुभाषिये की भूमिका में नहीं है, बल्कि दोनों का एक साथ प्रतिनिधित्व कर रहा है । उसके रचना-कर्म की साधारण प्रतिज्ञा तो पाठकों की चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना और उसे परिमार्जित भव्यता देना है, लेकिन वह साथ-साथ स्वयं भी क्रमशः विस्तृत और उदात्त होता गया है । सत्य, ऋत और शील कुबेरनाथ राय के चिंतन की धुरी हैं । जो असत्य है, दुःशील है, अनृत है, वह उन्हें ग्राह्य नहीं है । उनकी जीवन-दृष्टि और सौंदर्य-दृष्टि औदात्य के साथ-साथ माधुर्य के साहचर्य पर टिकी है । आधुनिक शिक्षा और पश्चिमी साहित्य तथा चिंतन के गंभीर अध्येता होने के बावजूद उनका मन भारतीय किसान के गृहस्थ-लोक का वासी है, जहाँ अति या चरम के लिए कोई स्थान नहीं है, चरम विराग या चरम राग दोनों उसके लिए अग्राह्य हैं । महाश्रमण इतना विराग असह्य है शीर्षक अपने निबंध में उन्होंने यह साफ-साफ लिखा भी है । बहु-अधीत और शास्त्रज्ञ होने का कारण उनके पास कहने के अन्य तरीके भी थे और अनेक प्रसंगों में इस बात को उन्होंने अलग-अलग तरह से कहा भी है; जैसे रघुवंश की कीर्ति बांसुरी में राम के शील को भारत का राष्ट्रीय शील कहना या कई स्थलों पर मधु वाता ऋतायते का उल्लेख आदि ।  अतः अनायास नहीं कि उनके साहित्य-नायक राम, गांधी और बुद्ध हैं । राम और गाँधी को केंद्र में रखकर तो उनके स्वतंत्र निबंध-संग्रह भी हैं । पत्रमणि पुतुल के नाम महात्मा गाँधी पर केंद्रित है और महाकवि की तर्जनी’, ‘त्रेता का वृहतसाम तथा रामायण महा तीर्थम् राम-केंद्रित । इसके अतिरिक्त भी इन दोनों पर उनके अनेक निबंध विभिन्न संग्रहों में संकलित हैं ।

            कुबेरनाथ राय का लेखन भारतीय संस्कृति के अस्ति-पक्ष के साथ-साथ भवति-प्रवाह को लेकर चला है । चिन्मय भारत के साथ ही शाश्वत भारत भी यहाँ मौजूद है।  शाश्वत भारत अर्थात् इतिहास-प्रवाह, जिसकी धार के से छिल-मँज कर चिन्मय भारत का भव्य प्राकार खड़ा हुआ है।  उसका सौंदर्य और उसकी चमक उसी की देन है। इसके चिह्न हमारे लोक और शास्त्र दोनों में मौजूद हैं और सबसे बढ़ कर हमारी दृष्टि और बोध में। हमारे महाकाव्य, हमारे कला-प्रतीक, हमारे जीवन-मूल्य और हमारे मिथक सब उसीके रचे हैं। श्री राय ने अपनी रचनाओं में भारतीय प्रतीकों की व्याख्या इसी संदर्भ में की है। कामधेनु संग्रह के  निबंध इस दृष्टि से खास महत्त्व रखते हैं। निषाद बांसुरी’ ‘मन पवन की नौका और उत्तरकुरु के निबंध भी इसी क्रम की रचनाएँ हैं। दरअसल, उनका बल भारतीयता के अस्ति-पक्ष के बजाय भवति-प्रवाह पर अधिक रहा है। वे स्थिरता के बजाय गतिशीलता में विश्वास रखते हैं। इसलिए यह उनके रचना-कर्म की मुख्य दिशा है। वे भारतीय संस्कृति की संरचना को जिस तरह ग्रहण करते हैं या व्याख्यायित करते हैं, उसे देखकर संभव है किसी को भ्रम हो कि लेखक अतीतोन्मुखी है; खासकर उनको, जिन्हें गतिशीलता उनके खास रास्ते पर ही नज़र आती है; अन्यत्र नहीं ।

            कुबेरनाथ राय इतिहास का प्रयोग न करके भवति-प्रवाह का प्रयोग कराते हैं तो उसका भी कुछ खास अर्थ है । इतिहास में बीत चुके का भाव है, जबकि बीतता कुछ नहीं; स्थितियाँ परिवर्तनशील होती है और समय के अनुसार अपने रूपाकार में परिवर्तन भर कर लेती हैं ।  लेकिन, उनकी रेखाएँ आसानी से नहीं मिटती । एक रचनाकार के लिए भारत जैसे समृद्ध अतीत वाले देश की हर स्थिति या घटना और उसके प्रभाव को दर्ज़ कर पाना संभव नहीं है, फिर भी इतिहास कि कई महत्वपूर्ण स्थितियों और उनके प्रभावों के चित्र श्री राय की रचनाओं में सहज ही मिल जाते हैं । चाहे वह भारतीय इतिहास कि अप्सरा नाभि या अगस्त तारा’ निबंधों की तरह साहित्य या लोक-आख्यान के आश्रय से ही क्यों न हो । आधुनिक काल में महात्मा गाँधी को लेकर उन्होंने जो निबंध लिखे हैं, उसका एक कारण संभवतः यह भी है । हमारे निकट अतीत में गाँधी इस भवति-प्रवाह की सबसे सशक्त धारा रहे हैं ।  सतह पर उनकी भूमिका केवल भारत के राजनीतिक मुक्ति आंदोलन तक दिखती हो, पर उनकी लहरों की रगड़ भारतीय जीवन और मनोरचना पर बहुत बाद तक महसूस कि जाएगी ।

            आलोच्य पुस्तक महात्मा गाँधी के ही समकालीन किसान गुरु स्वामी सहजानंद सरस्वती पर केंद्रित है । वे एक साथ ही किसान आंदोलन के गुरु, नेता और सेनानी तीनों थे । वे संस्कारतः किसान थे और व्यवहारतः संन्यासी । सामाजिक नेतृत्व तो उनके कर्म-वेदान्त का हिस्सा था । संभव है, किसी को उन्हें व्यवहारतः संन्यासी मानने में आपत्ति हो तो उसे अंत तक अपने हाथ में धरण किए हुए दंड और अपने अंतिम दिनों में अखिल भारतीय विरक्त महामंडल की अध्यक्षता को याद करना चाहिए; साथ ही, उनके भाषणों को भी जो वहाँ दिए गए । उसमें उन्होंने संन्यासियों को अपने समान ही लोक-संग्रह का अर्थ-विस्तार उन्हें कर्म-वेदान्त से जुड़ने की सलाह दी थी । वे राष्ट्रीय आंदोलन और किसान आंदोलन में लोक-संग्रह के इसी अर्थ को मूर्त करने की प्रेरणा से जुड़े और निरंतर जुड़ते चले गए । घर-परिवार छोड़ा आरंभ में जिससे सामाजिक पहचान और सहयोगी मिले वह जाति-सभा छोड़ी पर एक बार जुड़ने के बाद अंत तक जो नहीं छूट सका वह था किसान। इसके अन्य तमाम कारण हो सकते हैं, पर एक महत्त्वपूर्ण कारण उनका संस्कार था । वे किसान-कुटुंब में जन्मे थे । उनका परिवार एक खाता-कमाता माध्यम किसान था । उन्होंने परिवार त्यागा पर देस (परिवेश) नहीं त्यागा । वैराग्य के बाद वे विरागी होने के बाद विशिष्ट रागी होते गए । कई अवसरों पर किसानों को उन्होंने भगवान तक कहा है । 

            किसान और उसका आंदोलन स्वामी जी के जीवन का धर्म बन गया । इसे राजनीति कि तुलना में धर्म कहना इसलिए समीचीन है कि यह उनके लिए अस्तित्व का प्रश्न बन था ।  वे तत्कालीन राजनीति की अनेक धाराओं और नेताओं के संपर्क में आए; कांग्रेसी तो वे अंतिम वर्षों तक रहे, सोसलिस्टों से भी एक समय में ताल-मेल बैठाने कि कोशिश की और मार्क्सवाद की सतीर्थ्यता का रंग तो गीताहृदय’, ‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा, ‘किसान क्या करें ?’ ‘किसान कैसे लड़ते हैं?’ आदि पुस्तकों में काफी गहरा है। परन्तु, नीभी किसी से नहीं । सदैव अकेले रहे । निभाती भी कैसे ? कहाँ तो स्वामी जी की किसान में अनन्या आस्था थी और कहाँ दूसरी ओर पार्टियों और उनके धड़ों की किसान राजनीति! कुबेरनाथ राय ने अपनी पुस्तक मराल में और आलोच्य पुस्तक में भी स्वामी जी को जो किसान गुरु कहकर संबोधित किया है, वह इस दृष्टि से सर्वथा तर्क-संगत है । आजके प्रचलित अर्थ में वे नेता नहीं हो सकते । उन्होंने किसानों को संघर्ष की दीक्षा दी, उनका पग-पग पर मार्गदर्शन किया और उनकी उन्नति कि शुभेच्छा से उनसे अंत तक जुड़े रहे । किसान-सभा का रथ बिखर गया, फिर भी (आजादी के बाद) नए धर्म-युद्ध में अंत तक अकेले अभिमन्यु की तरह रथ का पहिया उठाए रहे ।

महाजागरण का शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती कुबेरनाथ राय ने एक विशेष उद्देश्य से लिखी थी। सन् 1990-91 में स्वामी जी के रचना-कर्म को संग्रहीत कर समग्र साहित्य के प्रकाशन की योजना बनी और उसमें कुबेरनाथ राय को भूमिका लेखन की ज़िम्मेदारी दी गई । समग्र साहित्य पाँच खंडों में में विभाजित था और उसके अनुसार ही श्री राय ने पाँचों की अलग-अलग भूमिका लिखी हैं । किन्तु, यह योजना साकार न हो सकी । इसलिए यह भूमिका भी अप्रकाशित ही पड़ी रही। बाद मेंस्वामी सहजानंद सरस्वती कि ग्रंथावली उस पूर्व-योजना से इतर प्रकाशित भी हो गई। किन्तुउनके जीवनकाल या उसके बाद भी यह इतस्ततः पत्र पत्रिकाओं में या इधर-उधर अधूरे रूप में भले ही प्रकाशित हुई; इसका समग्र रूप में प्रकाशन अब तक प्रतीक्षित है ।

          कुबेरनाथ राय के लेखन को देखते हुए यह मानना ठीक नहीं होगा कि इसे उन्होंने केवल किसी योजना या आग्रह के कारण लिखा था । वे मांग आधारित लेखन करने वाले लेखक नहीं थे । इसीलिए उनका समूचा लेखन अत्यंत व्यवस्थित और सूचिन्तित है, यहाँ तक कि ये भूमिकाएँ भी । संभवतः इसका कारण उनके द्वारा उत्तर भारत की किसान-चिंता में स्वामी जी की केंद्रीय उपस्थिति और उसके प्रभाव को भारतीय इतिहास की एक अनिवार्य घटना की तरह देखना ही है । स्वामी जी को महाजागरण का शलाका पुरुष’ कहने का कारण बताते हुए उन्होंने लिखा है—

 

“1889 में महा शिवरात्रि को स्वामी सहजानंद सरस्वती का जन्म हुआ ।....महज कुछ मास पूर्व या बाद में इस भारत वर्ष में पं. जवाहर लाल नेहरू, डॉ. अंबेडकर, आचार्य नरेन्द्र देव और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हेडगेवार महाशय का भी जन्म हुआ था । एक तरह से देखा जाय तो भारतीय इतिहास के उन्नीसवीं शती के पुनर्जागरण के शलाका पुरुषों की यह आखिरी पीढ़ी है । अपने-अपने दृष्टि-भेद और कर्म-भेद के बावजूद ये पाँचों महापुरुष ही भारतीय पुनर्जागरण के शलाका पुरुष रहे हैं और इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के धक्के से इतिहास का चक्र चालित हुआ है । इन पाँचों में स्वामी सहजानंद सरस्वती तो विशेष रूप से उस पुनर्जागरण की विकासशील मानसिकता के सारे परिवर्तनों के सहयात्री रहे हैं ।”

 

इसके अतिरिक्त 1857 के आंदोलन और उत्तर भारत में नवजागण के पीछे कुछ लेखकों ने जो किसानों की भूमिका को भी रेखांकित किया हैउनका प्रतिनिधित्व सन् 1930 बाद सही अर्थों में स्वामी सहजानंद ही कर रहे थे । इसलिए उन्हें नवजगरण (महाजागरण) का शलाका पुरुष कहना तर्कसंगत ही है । अपने सहजानंद शीर्षक पहले लेख में श्री राय ने स्वामी जी की इसी भूमिका को रेखांकित किया है ।

            ब्रह्मर्षि वंश विस्तर का मंथन और हिंदू संस्कार विधि का प्रयोजन और कर्मकलाप दोनों ही स्वामी जी के जीवन के पूर्व-पक्ष से संबंधित लेख हैं। उन्होंने अपने जीवन के दो-फाड़ होने का उल्लेख जहाँ-तहाँ खुद भी किया है— 

पूर्व-पक्ष और उत्तर-पक्ष के रूप में । उनके कुछ भक्तों (जातिवादी)  के लिए पूर्व-पक्ष और कुछ (वामपंथी) के लिए उत्तर-पक्ष महत्त्व और चर्चा का विषय रहा है । इसलिए दोनों ही अपनी-अपनी सुविधा से इसकी चर्चा करते हैं। इसे ही धूर्तश्रद्धा कहा है । दरअसल यह आराम का मामला है । 

इसमें वे स्वामी जी की जय भी बोल लेते हैं और उनकी अपनी जमीन भी सुरक्षित रह जाती है । इस पूरी पुस्तक का महत्त्व ही इस बात में है कि वह अंध-श्रद्धा और धूर्त-श्रद्धा दोनों से मुक्त है । लेखक ने अपनी असहमतियों को दबाया या छुपाया नहीं है; उनके कर्म-योगी रूप के प्रति अपने सम्मान के बावजूद,  खुलकर व्यक्त किया है । इस पूर्व-पक्ष के बिना स्वामी जी की न तो ऐतिहासिक भूमिका तय होती है और न ही पूरा स्केच बन पाता है । और, उसके बिना लेखक की यह स्थापना भी भला कैसे प्रमाणित हो पाती कि — उस पुनर्जागरण की विकासशील मानसिकता के सारे परिवर्तनों के सहयात्री रहे हैं

            गीताहृदय और मार्क्सवाद श्रीमद्भगवत गीता पर स्वामी सहजानंद का भाष्य है, जिसकी भूमिका में उन्होंने मार्क्सवाद और गीता की स्थापनाओं में साम्य दिखाने की कोशिश की है और शंकराचार्य तथा अपने भाष्य को तिलक के भाष्यों से विलक्षण बताया है । 

कुबेरनाथ राय की स्वामी जी से असहमति बहुत-साफ साफ देखी जा सकती है। जिस तरह से गीता हृदय की भूमिका में स्वामी जी की शास्त्रार्थ-प्रतिभा का साक्षात्कार होता हैउसीतरह यहाँ कुबेरनाथ राय की आलोचकीय प्रतिभा का। वे स्वामी जी और मार्क्सवाद दोनों के सामने अपनी आस्तिक बुद्धि और और खाँटी भारतीय मनोरचना के साथ अकेले अड़े हुए हैं। 

अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वामी जी ने तत्कालीन वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण उक्त पुस्तक में गीता को ठोंक-पीट कर बैठाने कि असाध्य चेष्टा भर की है; वह भी केवल भूमिका में । बाकी तो बस शांकर अद्वैत वेदांती  और कर्मयोगी का भाष्य है । स्वामी जी गीता ने यहाँ स्वयं जिए गए कर्म-योग को, अर्थात् उनके अपने जीवन में भोगी गयी गीता को द्वापरकालीन गीता से जोड़ने का प्रयास कर रहे थे । यहाँ उनकी मूल स्थापना है कि वे आजीवन हथियार गढ़ते रहे, किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर । एक से एक तेज धारदार हथियार । उनका हर ग्रंथ सामाजिक भूमिका लेकर उतारा है । परंतु, हर ग्रंथ के भीतर वे स्वयं भी स्थित हैं अपने स्वानुभूत यथार्थ के साथ । गीता हृदय भी इसका अपवाद नहीं । इसे वे सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति के हथियार के रूप में रचते हैं ।”

            सहजानंद का किसान साहित्य’ में स्वामी जी के उस साहित्य की चर्चा है, जिसे उन्होंने अपने आंदोलन के नीति-निर्देशन या पुनरावलोकन के लिए लिखा। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उनकी आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष तथा क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा। इनमें से पहली को कुबेरनाथ राय ने सिंहावलोकन कहा है और इस शब्द-बिम्ब कि व्याख्या भी की है । यह व्याख्या और बिंब सचमुच स्वामी सहजनन्द सरस्वती के व्यक्तित्व और कर्म के सर्वथा उपयुक्त है । दूसरी बात जो लेखक ने कही है वह यह कि यह आत्मकथा न होकर आत्म-जीवनी है । स्वामी जी ने इसे अपने जीवन और किसान सभा तथा राजनीति से जुड़ी घटनाओं के ब्योरे तक ही सीमित रखा है, इसलिए लेखक को निजता का अभाव  यहाँ खटकता है और एक विधा के रूप में आत्मकथा की जो विशेषता है, वह नहीं पाता। 

आत्मजीवनी कहने का अर्थ केवल इतना ही है कि आत्मकथा में जो अंतरंगता होनी चाहिए, वह इसमें नहीं है । लेकिन, लेखक इसे आजादी के दौर के कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेजों में शुमार करता है । जिस अर्थ में स्वामी जी की ऐतिहासिक भूमिका असंदिग्ध है, उसी अर्थ में उनकी आत्मकथा की भी ।

            क्रांति और संयुक्त मोर्चा की आलोचना में कुबेरनाथ उसी मुद्रा का सहारा लेते हैं, जिसमें स्वामी जी ने गीताहृदय की  भूमिका में तिलक के सामने खड़े हैं । वहाँ स्वामी जी के हाथ में मार्क्सवाद का डंडा था, पर कुबेरनाथ राय निहत्थे उनसे जूझ पड़े हैं। गुत्थम-गुत्था तो भरपूर ही हुए हैं, लेकिन खेल-भावना का पूरा खयाल रखा है । हालाँकि, स्वामी जी गीताहृदय और मेरा जीवन संघर्ष में दंड-प्रहार करते हुए कई जगह इसे भी भूल गए हैं । क्रांति और संयुक्त मोर्चा में स्वामी जी ने मार्क्सवाद का उत्खाद प्रतिरोपण ही किया है, फर्क यह है कि समुद्रगुप्त राजाओं को जहाँ पराजित करता था, वहीं पुनः स्थापित भी कर देता था । यही था उनका उत्खाद प्रतिरोपण । लेकिन, स्वामी जी ने उखाड़ा कहीं से और रोप भारतीय धरती पर दिया है । कुबेरनाथ राय ने उचित ही रेखांकित किया है कि वे महान सर्वहारा के किसान का ख़याल भी नहीं रखते । यह अनायास नहीं, उनकी कम्युनिस्ट राजनीति के सतीर्थ्य बनने के आग्रह का ही प्रतिफलन था । इन पार्टियों जिन सर्वहारा मिलमजदूरों की बात उस समय कि जा रही थी और स्वामी जी स्वयं जिनके साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कर रहे थे, वे तब संख्या में ही अत्यल्प थे । उनकी तुलना में किसानों की संख्या कहीं अधिक थी । लेखक ने कई बार यह रेखांकित किया है कि यह मैत्री स्वाभाविक न होकर विवश-मैत्री थी जो बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में अनिवार्य-सी हो गई थी । स्वामी जी का कांग्रेस में रहते हुए भी मुख्यधारा के राजनीतिज्ञों से मोहभंग और समाजवादियों के अवसरवादी रुख के बीच और रास्ता भी क्या था ?

            अंतिम लेख महाजागरण के शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद’ दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । एक तो इसमें स्वामी जी के कर्म-पक्ष की आलोचना है, जिसके आधार पर कुबेरनाथ राय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वामी जी किसान गुरु हैं । दूसरा यहाँ इस सवाल का उत्तर  भी मिल जाता है कि स्वामी जी के पास मार्क्सवादी पार्टी से जुड़ाव का  विकल्प क्या था ? वस्तुतः यह उस पराजेय योद्धा की अंतिम नियति का भी व्योरा है, जो अपने लक्ष्य के लिए सभी मोर्चों पर अकेले-अकेले लड़ रहा है । वह न तो किसी से समझौता करना चाहता है और न लक्ष्य से च्युत होना; परिणामतः अपनी समूची ईमानदारी, निष्ठा और सचाई के बावजूद आवाह निरंतर युद्ध कर रहा है और अंत में नए रास्ते और सहचर की तलाश भी उसके लिए युद्ध का विषय बन जाता है । इस पुस्तक को समाप्त करते हुए कुबेरनाथ राय के ही एक अन्य निबंध का शीर्षक जेहन में उभरता है, ‘वत्स! में निरंतर युद्ध कर रही हूँ । यह वाक्यांश ही संभवतः इस पूरी पुस्तक का निचोड़ भी है, जिसे श्री राय ने स्वामी सहजानंद के कृतित्व के माध्यम से पाठकों को दिखने की कोशिश की है। 

स्वामी सहजानंद के लोकनायकत्व का सम्मान के बावजूदकुबेरनाथ राय उन्हें वह सहानुभूति नहीं दे पाए हैं, जो पत्र मणिपुतुल के नाम में गाँधी जी को सहज-लब्ध है। 

लेकिन, इससे स्वामी जी का भला ही हुआ है। अंधभक्तों और एकाकांगी आलोचकों के बीच उन्हें एक ऐसा आलोचक मिला है, जो उनकी एक रेडीमेड छवि बनाने के बजाय पाठकों के सम्मुख उनके व्यक्तित्व की विभिन्न गांठों (Ambiguities) और ऐठनों को खोलकर रख देता है, फिर कबीर की तरह कहता है ऐसा लो नहीं वैसा लो और अंत में यह अनूठा है या नहीं इसका विवेक पाठकों पर छोड़ देता है । एक बहुलता-विश्वासी लोकतान्त्रिक लेखक के लिए यही उपयुक्त रास्ता भी है।  


शुक्रवार, 26 मार्च 2010

कुबेरनाथ राय : परिचय

 कुबेरनाथ राय से उनके जीवन के बारे में पूछने पर एक बार उन्होंने कहा था- ‘‘मेरे जीवन में कुछ भी ऐसा उग्र, उत्तेजक, रोमांटिक, अद्भुत या विशिष्ट नहीं जो कहने लायक हो। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अर्ळ अभावग्रस्त सवर्ण किसान परिवार के शिक्षित और दायित्व-चेतनासम्पन्न युवक की जो नियति होती है, जैसा जीवन होता है, वैसा हमारा भी है। ...ऐसे में अपने जीवन के बारे में कौन सी अनोखी बात बताऊँ? पढ़ा-लिखा, नौकरी की, घर का खर्चा चलाया। अगल से औरों से भिन्न कुछ किया तो ललित निबन्ध लिखा। मैंने क्या लिखा, मेरे ‘अन्तर्यामी पुरूष’ ने लिखवाया। अन्यथा, इस भोजपुरी देहाती से थोड़े ही लिखा जाता।’’ यह बात वे तब कह रहे थे, जब उनका जीवन छठवें दशक के ढलान पर था। सातवें दशक से उसका फासला महज एक-दो साल का रहा होगा। तब तक वे अपने लेखन का ऐसा बहुत कुछ दे चुके थे जो आज भी मूल्यवान है। अब भी उनकी पहचान का एक बड़ा आधार उसी से तय होता है। तब तक ‘कामधेनु’ छप चुकी थी। ‘उत्तरकुरू’ और ‘मराल’ प्रकाशन के क्रम में थे। इनसे पहले के बारह निबन्ध-संग्रह पाठकों के सामने थे। उनकी पहचान तब तक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र के साथ ललित निबन्ध के शीर्षपुरूषों में होने लगी थी। अस्तु, उनका यह कथन उनके व्यक्तित्व की सरलता का प्रमाण है। वे अपने निकट के लोगों में इसी रूप में जाने जाते थे। दूर के लोगों को उनकी एकान्तप्रियता के कारण अहंकारी और आत्ममुग्ध होने का भ्रम अवश्य हो सकता था।

कुबेरनाथ राय का जन्म 26 मार्च 1933 को गाजीपुर जनपद के मतसाँ गाॅंव में हुआ। उनके पिता बैकुंठनाथ राय एक सामान्य किसान थे और माता लक्ष्मी देवी एक घरेलू महिला। कुबेरनाथ राय अपने माता-पिता की सन्तानों में सबसे बड़े थे। उनके बाद दो भाई और तीन बहनें और हैं। उनसे पहले भी माता-पिता को दो संतानें और हुईं। परन्तु, जीवित नहीं बचीं। पिता अपने कुल की अकेली पुरूष सन्तान थे। बाकी पाँच-छः बहनें ही थी। कुबेरनाथ राय के बाबा चार भाई थे। इनमें सबसे छोटे थे पंडित बटुकदेव शर्मा। अक्खड़, अविवाहित, गृहत्यागी और स्वतन्त्रतासंग्राम सेनानी। उनसे पहले भी परिवार में एक गृहत्यागी ;संन्यासीद्ध हो चुके थे। इन सब बातों का प्रभाव उनके प्रारम्भिक जीवन पर बड़ा गहरा रहा। उन पर अत्यधिक स्नेह के साथ-साथ कठोर अनुशासन भी रहा। उनका विवाह भी बारह-तेरह वर्ष की अवस्था में ही महारानी देवी के साथ कर दिया गया। उनकी अनिच्छा के बावजूद। उनके व्यक्तित्व की बनावट में इन सबने अपनी-अपनी भूमिका अदा की। वे भीतर से सहज और स्नेही थे तो बाहर से धीर और प्रशान्त।
कुबेरनाथ राय की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के प्राथमिक विद्यालय में हुई। मिडिल करने के लिए उन्हें कई किलोमीटर चलकर ढढँ़नी जाना पड़ता था। बाद में मलसाँ इण्टर काॅलेज से उन्होंने कृषि विज्ञान वर्ग से हाई-स्कूल किया। इण्टर के लिए वे बनारस चले गये। वहाँ क्विंस-काॅलेज में विज्ञान वर्ग में दाखिला लिया। स्नातक उन्होंने गणित-दर्शन- अॅंग्रेजी विषयों के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से किया। इसके बाद परास्नातक के लिए वे कलकत्ता चले गये। वहाॅं कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंॅग्रेजी विभाग के छात्र रहे। 1958 ई. में उन्होंने अॅंग्रेजी साहित्य में परास्नाक की उपाधि प्राप्त की। उनके कलकत्ता प्रवास के दिन बहुत कठिन रहे। परिवार धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा था। दस-बारह जन के कुनबे में कमाने वाले एक पिता ही थे। घर की अर्थ-व्यवस्था की आधार थी खेती। खेतिहर भी ये लोग ही बहुत बड़े नहीं थे। पंडित बटुक देव शर्मा की उच्च शिक्षा के इन्तजाम में उनके बड़े भाइयों ने कुछ खेत रेहन और पोतऊ पर भी चढ़ा रखे थे। कुछ पिता के जमाने में भी रखे ही गये होंगे- यदा-कदा हारी-बीमारी की स्थिति में। खेतिहर के पास दूसरा संसाधन तो होता नहीं। रहे-बचे में भी बाढ़-सुखाड़ का प्रभाव। कुल मिलाकर घर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। पिता उन्हें कलकत्ता में रखकर पढ़ाने में सक्षम नहीं थे। इसलिए उन्हें कलकत्ता पहुँचते ही अपने खर्चे के लिए ट्यूशन का सहारा लेना पड़ा। परास्नातक के बाद कुछ महीनोें वे हाबड़ा के विक्रम विद्यालय में अध्यापक रहे। बाद में पी-एच.डी. करने का मोह त्याग कर उन्हें कलकत्ता भी छोड़ना पड़ा। 1959 में वे नलबारी काॅलेज, नलबारी ;असमद्ध में आध्यापक नियुक्त हुए। यहाँ उन्होंने सत्ताइस- अट्ठाइस वर्ष तक सेवा दी। नौकरी के अन्तिम आठ- नौ वर्षों में असम की अशांति के कारण उन्हें गाजीपुर लौट आना पड़ा। परन्तु, उनके मन में असम और कामरूप हमेशा आबाद रहा। मराल की भूमिका में उन्होंने इसका उल्लेख भी किया है- ‘‘असम में मैं स्थानीय भाषा की दृष्टि से ‘आउट-साइडर’ था, परन्तु मन और आत्मा का वहाँ पर निबिड़ संयोग था, जिसे आयरिश कवि यीट्स ;ॅण्ठण् लमंजेद्ध ‘सत्ता का अद्वैत’ या ‘ सत्ता की एकात्मकता’ ;नदपजल व िठमपदहद्ध कहता है।’’ वे निरन्तर इस पर लिखते रहे। वे गाजीपुर में स्वामी सहजानन्द महाविद्यालय के प्राचार्य बनकर आये थे। यहाँ से वे 30 जून 1995 को सेवानिवृत्त हुए। इसके एक वर्ष के भीतर ही पाँच जून उन्नीस सौ छियानबे को उनका देहावसान हो गया।
कुबेरनाथ राय की पारिवारिक पृष्ठभूमि वैष्णव रामानुज सम्प्रदाय से जुड़ी रही है। उनके प्रपितामह पलकधारी राय ने इस सम्प्रदाय के स्वामी रामाचारी से दीक्षा ली थी। आज भी उनका परिवार प्रपितामह से उत्तराधिकार में प्राप्त शालीग्राम को पूजता है। चण्डी उनकी कुल देवी रही हैंµ उनकी यानी गाजीपुर के बावन गाँव दोनवारों ;वत्सगोत्रीयद्ध भूमिहार ब्राह्मणों की। इसका उल्लेख उन्होंने अपने निबन्धों में खुद भी कई बार किया है। कुल मिलाकर उनके घर का माहौल वैष्णव-शाक्त रंग में रंगा रहा है। धार्मिक प्रवृत्तियों के साथ-साथ इस परिवार का शिक्षा से भी बड़ा गहरा नाता रहा है। उनके बाबा के एक भाई गाँव के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक थे। दूसरे पंडित बटुकदेव शर्मा अपने जमाने में उच्चशिक्षित थे। उन्होंने पटना और कलकत्ता से कुछ पत्र-पत्रिकाएँ भी निकालीं। ‘तरूणभारत’, ‘देश’, ‘प्रणवीर’, ‘राष्ट्र भाषा’, और ‘कामधेनु’ इनमें प्रमुख थे। इन पत्रों का स्वर राष्ट्रवादी था। कुबेरनाथ राय ने ‘कामधेनु’ संग्रह का नामकरण अपने बाबा के ‘कामधेनु’ पत्र की स्मृति में ही किया है। इसका उल्लेख उन्होंने ‘मराल’ में स्वयं किया है। इन पत्रों में से कुछ डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद और अन्य स्वतन्त्रता सेनानियों के साथ मिलकर निकाले गये। कुछ का सम्पादन उन्होंने अकेले किया। एकाध पत्रों में कुबेरनाथ राय के पिता बैकुंठनाथ राय भी सहयोगी रहे। बाद में पटना से गाँव चले आने के बाद उनके पिता का पं. शर्मा सें संपर्क लगभग टूट गया। फिर भी वे स्थानीय स्तर पर राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय रहे।
धर्म और शिक्षा के इस मिश्रित वातावरण मंे उनकी शिक्षा का आरम्भिक रूप धार्मिक रहा हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। उनके छोटे भाई नागेश्वर प्रसाद राय के अनुसार घर में प्रतिदिन धार्मिक ग्रंथों का पारायण होता था। इसमें दोनों भाइयों को गहरी रूचि रही। छुटपन में ही उन्हांेने तमाम श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। सबल सिंह चैहान के ‘महाभारत’ के ज्ञान के आधार पर मित्रों में अपनी बाँह पुजवाने की बात का उल्लेख तो उन्होंने खुद ही किया है। तुलसीदास का ‘रामचरित मानस’ पूरे पूर्वी उत्तरप्रदेश की अनौपचारिक शिक्षा की पाठशाला ही रहा है। किसी जमाने में इसका पाठ शिक्षित होने का अलिखित प्रमाण था। बहुत हद तक आज भी ऐसा ही है। कुछ गावों में शाम की दिया-बाती के बाद मानस के पाठ का रिवाज आज भी है। कुबेरनाथ राय का परिवार इसी सांस्कृतिक इकाई का एक हिस्सा रहा है। अतः वह इसके प्रति सम्मान-भाव से वंचित रहा हो यह सम्भव नहीं। स्वयं उन के लेखन में भी तुलसीदास के प्रति एक गहरा आकर्षण दिखाई पड़ता है। वे अपने को तुलसीदास की जमीन से जुड़ा बताते रहे हैं।
नागेश्वर प्रसाद राय के अनुसार छोटे बाबा द्वारा सम्पादित पत्रों की पुरानी फाइलें घर मंे मौजूद थीं। समय-समय पर वे पुराने पत्र पत्रिकाओं के बंडल भी भेज दिया करते थे। इसमें ‘माधुरी’ और ‘विशाल भारत’ के पुराने अंक भी होते थे। राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ने के कारण उनके पिता सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर जागरूक थे। ‘आज’ और ‘संसार’ प्रतिदिन मँगाये जाते थे। वे बताते हैं कि छोटे बाबा द्वारा भेजी गयी ‘आनन्दमठ’, ‘देशेर कथा’ और घर में ‘भारत भारती’ जैसी जब्तशुदा पुस्तकें वे दोनों भाई बचपन में ही कोठे ;मिट्टी के घरों की पहली-दूसरी मंजिलद्ध पर छिप-छिपकर पढ़ गये थे। कुबेरनाथ राय के साहित्यिक संस्कारों की निर्मिति और ‘भारत-बोध’ के विकास में इनका अत्यंत महत्वपूर्ण अवदान है।

कुबेरनाथ राय आठवीं कक्षा से ही ‘विशाल भारत’ और ‘माधुरी’ में छपने लगे थे। उन्होंने छात्र-जीवन में क्विंस काॅलेज की ‘साइंस मैग्जीन’ का सम्पादन किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘प्रज्ञा’ में भी वे लिखते रहे। लेकिन उनके लेखन की व्यवस्थित शुरूआत 1962 में हुई। यह एक संयोग से जुड़ा है। इसी वर्ष संसद में भारत के शिक्षामंत्री प्रो. हुमायुँ कबीर का भारत के इतिहास लेखन पर एक वक्तव्य आया। कुबेर नाथ राय इससे सहमत नहीं थे। इसके प्रतिवाद में उन्होंने ‘इतिहास और शुक-सारिका कथा’ शीर्षक एक निबन्ध ‘सरस्वती’ मंे लिख भेजा। उन दिनों उसके सम्पादक श्रीनारायण चतुर्वेदी थे। उन्होंने इस निबन्ध को प्रकाशित किया और इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि निरन्तर लिखते रहें। इस घटना का स्मरण करते हुए कुबेरनाथ राय ने ‘प्रियानीलकंठी’ की भूमिका ;अन्त मेंद्ध में लिखा है-‘‘प्रोफेसर हुमायुँ कबीर की इतिहास सम्बन्धी ऊल-जलूल मान्यताओं पर मेरे तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबन्ध को पढ़कर पं. श्री नारायण चतुर्वेदी ने मुझे घसीटकर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष-बाण पकड़ा दिया। अब मैं अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग था।’’

कुबेरनाथ राय का पहला ललित निबन्ध ‘हेमन्त की संध्या’ 15मार्च 1964 के ‘धर्मयुग’ के अंक में छपा। यह उनकी पहली कृति ‘प्रिया नीलकंठी’ का पहला निबन्ध है। इसी निबन्ध-संग्रह में उनका एक निबन्ध ‘संपाती के बेटे’ भी संग्रहीत है। यह निबन्ध काफी चर्चित हुआ। यहाँ उन्होंने ग्रामीण परिवेश और उसके सिवान-मथार के वर्णन के बहाने आधुनिकता और आधुनिक मनुष्य की स्थिति पर विचार किया है। इस निबन्ध के ‘माध्यम’ मंे पहले-पहल प्रकाशन के बाद कइयों ने उनसे पूछा था-‘‘कौन हो तुम जो आसाम के घने जंगलों से बैठकर भी अपने गाँव की खिड़की में बैठे मेरे उदास मन को झकझोर जाने की क्षमता रखते हो, तुम कोई भी मेरे मन का असीम प्यार स्वीकारों।’’ ;निवेदिता ;कुबेरनाथ राय विशेषांकद्ध: ;सम्पा.द्ध मान्धाता राय, पृ.-198द्ध
‘हेमंत की संध्या के प्रकाशन से लेकर अपने देहावसान ;5जून,1996द्ध तक उन्होंने लगभग सवा दो-ढाई सौ निबन्ध लिखे। ये उनके बीस निबन्ध-संग्रहों में संग्रहीत है। इनके नाम हैं-‘प्रिया नीलकंठी’, ‘रस आखेटक’, ‘गंधमादन’ ‘निषाद बाँसुरी’ ‘विषादयोग’ ‘पर्णमुकुट’ ‘महाकवि की तर्जनी’ ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’, ‘पत्र: मणिपुतुल के नाम’, ‘मनपवन की नौका’, ‘दृष्टि-अभिसार’, ‘त्रेता का वृहत्साम’, ‘कामधेनु’ ‘मराल’, ‘उत्तरकुरू’ ‘चिन्मय भारत’ ‘अन्धकार में अग्नि शिखा’ ‘आगम की नाव’ ‘वाणी का क्षीर सागर’ और ‘रामायण महातीर्थम्’।
उनके निबन्धों में अभिव्यक्त और अभिव्यक्ति दोनों स्तरों पर विविधता है। शैली-शिल्प के स्तर पर उन्होंने रिपोर्ताज, संस्मरण, एकालाप, अनुचिन्तन, लघुकथा, बोधकथा, पत्र, संवाद आदि शैलियों का समाहर ललित निबन्ध के रूप में कर लिया है। सामान्य तौर पर इनके निबन्धों को दो वर्गों में रखा जाता हैµ ललित निबन्ध और चिन्तनपरक निबन्ध। यूं लालित्य का मनमौजीपन और चिन्तन की गम्भीरता उनके प्रायः सभी निबन्धों में रही है। वर्गीकरण का आधार प्रधानता है। इनके ‘प्रिया नीलकंठी’, ‘रस आखेटक’, और ‘गन्धमादन’ संग्रह के निबन्धों में लालित्य तत्व प्रभावी है तो ‘निषाद बाँसुरी’ से लेकर ‘रामायण महातीर्थम्’ तक के निबन्धों में चिन्तन तत्त्व। ‘दृष्टि अभिसार’ और ‘पर्णमुकुट’ इसके अपवाद हैं। इनमें दोनों प्रकार के निबन्ध एक साथ संकलित है। कुबेरनाथ राय ने अपने लेखन के विषय में बात करते हुए इसकी पाँच दिशाएँ बतायी हैंµ ‘1. भारतीय साहित्य, 2. गंगातीरी लोक जीवन और आर्येतर भारत, 3. रामकथा, 4. गांधी दर्शन, 5. आधुनिक विश्व-चिन्तन’।
कुबेरनाथ राय ने भारतीय साहित्य पर दो दृष्टियों से विचार किया हैµ मूल्यपरक और नृतात्त्विक। मूल्य की दृष्टि से वे साहित्य में दो प्रमुख तत्वों को आवश्यक मानते हैंµ रस और भूमा। रस को उन्होंने अपने आप में डूब जानेµ समाधिस्थ हो जाने की स्थिति का कारण माना है। वे रसवादियों द्वारा स्वीकृत रस से आनन्द के सम्बन्धµ‘रसोवैसः’µ को स्वीकार करते है। उनके अनुसार आनन्द का ही एक रूप मोक्ष है। इसे वे भारत की चिन्मय सत्ता का प्रतीक मानते हैं। मोक्ष और निर्वाण की प्रचलित परिभाषाओं से अलग वे इसकी व्यावहारिक व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार इसके लिए मृत्यु आवयश्क नहीं हैं। यह इस जीवन और इस लोक में भी किया जा सकता हैं। नृत्य, गीत, कला आदि के माध्यम से। वे इसके प्रमाण में ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के एक अंश ‘अहोलब्ध नेत्र निर्वाणम्’ का उल्लेख किया है। उनके अनुसार यहाँ नेत्र निर्वान का अर्थ आखों का नष्ट होना जाना नहीं है। यहाँ इसका अर्थ है चरम सुख या महासुख की प्राप्ति। इसका आधार लौकिक है- शकुन्तला का रूप। दूसरे तत्व भूमा का अर्थ उन्होंने विस्तृत होने की इच्छा माना है। उन्होंने रस की आत्मविभोरता और भूमा का विस्तार दोनों को साहित्य के लिए आवश्यक माना है। वे इन दोनों से समन्वित साहित्य को ही श्रेष्ठ साहित्य मानते हैं। उन्होंने शील को इनके समन्वय का आधार माना है। इस रूप को वे )ळिप्रधान कहते हैं।
        
कुबेरनाथ राय भारतीय साहित्य के तीन कोटियों में रखते हैंµ रसप्रधान, )ळि तथा रसप्रधान और )ळिप्रधान। बिहारी और गालिब को पहली कोटि में रखते हैं। उनके अनुसार ये दोनों ही रस प्रधान कवि हैं। दूसरी कोटि में उन्होंने व्यास वाल्मीकि, सूर कबीर और तुलसी को रखा है। ये रस, भूमा और शील से समन्वित )ळिप्रधान कवि हैं। वे इस वर्ग के कवियों को राष्ट्रीय शील के प्रशिक्षण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानते हैं। तीसरी कोटि में वे कालिदास, सूरदास और रवीन्द्र नाथ टैगोर को सम्मिलित करते हैं। इनमें रस और )ळि दोनों तत्त्व की एक साथ उपस्थिति हैं। उन्होंने इस सूची को कवि के छोटे बड़े कद के निर्धारण का आधार न बनाकर काव्य की प्रकृति की पहचान का आधार माना है। उन्होंने वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भवभूति, जयदेव, तुलसी से लेकर आधुनिक साहित्यकारों में प्रेमचन्द, दिनकर और मुक्तिबोध तक के साहित्य पर विचार किया है शंकरदेव और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे हिन्दी से इतर भाषाओं के कवियों पर भी उन्होंने अलग-अलग जगहों पर विचार किया है।
                
                भारतीय साहित्य के क्षेत्र में वैष्ण-शाक्त साहित्य परम्परा उनके लेखन का एक अन्य क्षेत्र रहा है। इसकी व्याप्ति ‘प्रिया नीलकंठी’ से लेकर ‘वाणी का क्षीर सागर’, ‘आगम की नाव’ और ‘रामायण महातीर्थम्’ तक सर्वत्र रही है। इनमें वैष्णव रसवाद का रंग अधिक चटख रहा है। ‘महाकवि की तर्जनी’, ‘त्रेता का वृहत्साम’, और ‘रामायण महातीर्थम््’ इस विषय से संबंधित उनकी स्वतंत्र कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त ‘राधवः करूणो रसः’ ;गंधमादनद्ध एवं ‘महाकवि की कन्या,’ ‘दिवस का महाकाव्य’ ‘शंख और पद्मः सांख्य और योग’ ;कामधेनुद्ध जैसे तमाम फुटकर निबन्धों में उन्होंने इस विषय पर विचार किया है। इसी प्रकार शाक्त परम्परा पर उन्होंने ‘चंडीथान’, ‘पुनः चंडीथान’,‘चंडीथान पुनः चंडीथान!’ ‘एक बार फिर वही चंडीथान’ चार निबन्ध लिखे हैं। ये चार संग्रहों क्रमशः ‘प्रिया नीलकंठी’,‘निषाद बाँसुरी’,‘दृष्टि-अभिसार’ और ‘आगन की नाव’ में संग्रहीत हैं। इसके अतिरिक्त ‘मायाबीज’,‘देवी’,‘श्री-तत्त्व: लोक और वेद में’ ;कामधेनुद्ध, ‘आगम की नाव और देवी का जलयान’ ;आगम की नावद्ध निबन्धों में भी उन्होंने शाक्त परम्परा और तांत्रिक साधना की दृष्टि से विचार किया है।

आर्येतर भारत और गंगातीरी लोक जीवन पर केन्द्रित उनकी प्रमुख कृतियाँ ‘निषाद बाँसुरी’,‘मनपवन की नौका’ ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’ और ‘उत्तरकुरू’ रही हैं। इनमें उन्होंने भारत की नृजातीय संरचना पर विस्तार से विचार किया है। ‘निषाद बाँसुरी’ मुख्यतः ‘गंगातीरी लोक जीवन’ पर केन्द्रित है। इसमें उन्होंने गंगातीरी निषाद संस्कृति की बात की है। इसके बहाने उन्होंने भारत की जातीय निर्मिति में निषाद ;आस्ट्रिकद्ध जाति के अवदान की विस्तार से चर्चा की है। ‘मन पवन की नौका’ द्वीपान्तर भारत ;दक्षिण-पूर्व एशियाद्ध का सांस्कृतिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करती है। इसमें उन्होंने इस क्षेत्र की नृजातीय संरचनाµ ‘चाम्’ ‘मान्-ख्मेर’µ एवं सांस्कृतिक संरचना में भारतीय तत्त्वों की उपस्थिति की तलाश की है। वे इसे नृजातीय एवं अन्य तत्त्वों की दृष्टि से सांस्कृतिक भारत का ही एक अंग मानते हैं। ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’ भारतीयता की निर्मिति के एक अन्य घटक ‘किरात’ जाति के सांस्कृति अवदानों की पहचान से संबंधित ‘निषाद बाँसुरी के अन्तिम दो निबन्धों ‘महाबाहु ब्रह्मपुत्र: ;1द्ध प्रवाहपर्व’ और ‘महाबाहु ब्रह्मपुत्र: ;2द्ध अवतरणपर्व’ में भी उन्होंने इसी क्षेत्र को लेखन का विषय बनाया है। ये तीनों संग्रह भारतीयता की निर्मिति में आर्येतर जातियों के अवदान की पहचान कराते हैं तो ‘उत्तर कुरू’आर्यों के साथ इनकी मिलीजुली बुनावट के स्वरूप को व्यक्त करता है। इसमें मुख्यतः कुरूओं की विभिन्न कथाओं को माध्यम बनाया गया है। यहाँ उन्होंने कालिदास के ही दो नाटकांे ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ और ‘विक्रमोर्वशीयम्’ को आधार बनाकर तीन निबन्ध लिखे गये हैंµ ‘शकुन्तलाः प्रतीक और अर्थ’ ‘शैवाल में उलझा एक मुख कमल’ तथा ‘भारतीय इतिहास की अप्सरा-नाभि’। ये तीनों निबन्ध भारतीयता की बनावट को व्यक्त करते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘उत्तरकुरू’ ‘कदलीवन’ आदि प्राचीन साहित्यिक रूढ़ियों के बहाने भारतीय इतिहास की अनेक ग्रंथियों को सुलझाया है। ‘अनार्यावर्त’ निबन्ध में उन्होंने भारतीयता की नृजातीय निर्मिति की संघटक जातियों की पहचान नृतात्विक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट की है। उनका मानना रहा है कि ‘‘सारा भारतवर्ष एक ‘मुस्तर्का मिल्कियत’ है। एक सर्वनिष्ट सांस्कृतिक उत्तराधिकार है और भारत का कोई अंश चाहे वह गंगा की घाटी हो या ब्रह्मपुत्र-कावेरी की एक ही साथ सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से ‘निषाद-किरात-द्रविण और आर्य’ चारों है, तो ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद या किरात राष्ट्रवाद का अलगाववादी तार्किक आधार स्वयं समाप्त हो जाता है’’ ;उत्तरकुरुः पृष्ठ, टप्प्प्द्ध। वे अपने समूचे लेखन में इस बात पर जोर देते रहे हैं कि भारत में कोई भी जाति विशुळ नहीं रही। सब के सब अविशुळ हैं। भारतीयता इन सभी जातियों की संयुक्त विरासतµ‘कामन-वेल्थ’ है।
        कुबेरनाथ राय के लेखन का तीसरा विषय-क्षेत्र हैµ रामकथा इसमें वे खूब रमे हैं। उन्होंने इस विषय पर तीन स्वतन्त्र किताबें ही लिख डाली हैं। ‘महाकवि की तर्जनी’ इस विषय पर लिखी गयी पहली उनकी स्वतंत्र पुस्तक है। इसमें रामकथा का आश्रय लेकर रस-बोध, बौळिकता और शील-बोध का एक त्रिकोण उपस्थित हुआ है। इसके तीन भाग हैं। पहले में वाल्मीकि ;रामकथा के रचयिताओं?द्ध पर विचार हुआ है। दूसरे भाग में राम-कथा में शील-तत्व सम्मिलित हैं। इसमें उन्होंने आदि कवि वाल्मीकि से लेकर असमिया कवि माधव कदली तक पर विचार हुआ है। माधव कदली को उन्होंने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में रामकथा का पहला कवि माना है। ‘रामचरित मानस’ के प्रारम्भिक श्लोकों में से चार के अंशों ‘वन्देवाणीविनायकौ’,‘भवानीशंकरौवन्दे’,‘कवीश्वरौ कपीश्वरौ’,‘वन्दे बोधमयं नित्यं’ पर आधरित चार निबन्ध हैं। इसी भाग में एक पाँचवा निबन्ध ‘युग सन्दर्भ में मानस’ भी है। इसके अतिरिक्त मानस पर अन्य छिटपुट निबन्ध भी अन्य संग्रहों में संकलित हैं। ‘वाणी का क्षीर सागर’ के ‘मानस, सुरधुनी के उसपार’ और ‘मानसः दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र’ इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
दूसरी कृति है, ‘त्रेता का वृहत्साम’। इसमें उनकी मान्यता है कि बाल्मीकि रामायण का मूल स्वरूप सूर्यात्मक है। यह अपने मूलरूप में एक सूर्य गाथा है। इस महाकाव्य के भीतर निहित सूर्य-प्रतीकों और सूर्योपासना के तत्वों का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। साथ ही राम के चरित्र में त्याग, तप, संकल्प, पुरूषार्थ, तेज से समन्वित उनके तेजोदीप्त सौन्दर्य का उद्घाटन किया गया है। इस कृति में उनकी मूल-स्थापना यह है कि रामायण ‘जिजीविसा-करूणा-अभय’ का त्रिकोण त्यक्त करता है। यही इसकी मूल्यवत्ता का आधार है। उनके अनुसार यह संकल्प प्रधान महाकाव्य है।
तीसरी कृति ‘रामायण महातीर्थम्’ राम-कथा में उनके अवदान की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। इसमें उन्होंने राम कथा के स्वरूप के क्रम-विकास का अध्ययन किया है। वैदिक और याजक परम्पराओं से जोड़ते हुए उन्होंने इसकी कथा रूढ़ियों और प्रतीकों के विकास का स्वरूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने इन्द्र, पूषा, सीता, सविता, आदि वैदिक देवताओं के बीच से रामकथा के महत्त्वपूर्ण पात्रों के चारित्र-विकास की प्रक्रिया को पहचानने का प्रयास किया है। इस ग्रन्थ में एक अन्य स्तर पर राक्षस और बानर जातियों की वास्तविक पहचान का भी प्रयास किया गया है। राक्षस और यक्ष को यहाँ उन्होंने निषाद ;आॅस्ट्रिक जातिद्ध का ही दिव्य रूप बताया है और बानर-समाज को निषाद-द्रविड़-विमिश्र जाति का प्रतिनिधि। यहाँ उन्होंने ‘रामायण’ को आदिम आर्यत्व और नव्य आर्यत्व को बीच का संघर्ष माना है। रावण को वे आदिम आर्यत्व का प्रतिनिधि मानते हैं और राम को नव्य-आर्यत्व का। उन्होंने यहाँ आदिम और नव्य के बीच के अन्तर को नृजातीयता के बजाय मूल्य बोध और संस्कृतियों से जोड़ा है। उनके अनुसार राम नये मूल्योंµशीलµके प्रतिनिधि हैं और रावण आदिम परम्पराओं का। वे राम को भारत के राष्ट्रीयशील का प्रतीक मानते हैं और राम-कथा को भारतीय शील का महाकाव्य।
गाँधी-दर्शन कुबेरनाथ राय के लेखन की चैथी दिशा है। यद्यपि जगह-जगह पर उनकी गांधी से असहमतियाँ भी व्यक्त हुई हैंऋ तथापि, वे गांधी की तमाम मान्यताओं को स्वीकार भी करते हैं। उनका मानना है कि सत्य और अहिंसा का गांधी का सूत्र भारतीय जीवन-दृष्टि का सार-तत्व है। इसमें से एक का प्रतिनिधित्व ब्राह्मण-परम्परा करती है और दूसरे की प्रतिनिधि श्रमण परम्परा है। ये दोनों समन्वित रूप से भारतीयता की नींव रचती हैं। गांधी ने इन दोनों को ग्रहण अपनी युगीन आवश्कता के अनुरूप अभय को जोड़ा है। इसलिए वे उन्हें वे वास्तविक भारतीय मानते रहे हंै। वे उनकी सौन्दर्य दृष्टि और साहित्य दृष्टि के कायल थे। वे इस स्तर पर उन्हें बौळ और जैन दर्शनों के निकट मानते थे। उनका था कि गांधी की सौन्दर्य दृष्टि का सूत्र बौळों के ‘शीलगंधो अनुत्तरो’ के प्रचलित सूत्र की के अधिक निकट है। वे इसे ‘शातं सहजं सुन्दरम्’ के सूत्र द्वारा परिभाषित करते हैं। उन्होंने गांधी के सौन्दर्य बोध को केन्द्र में रखकर पूरी एक पुस्तक ‘पत्र: मणिपुतुल के नाम’ लिखी है। इस पुस्तक का पहला निबन्ध ‘पाँत का आखिरी आदमी’ आधुनिक युवा पीढ़ी को सम्बोधित और बेरोजगारी की समस्या पर केन्द्रित है। उन्होंने गांधी की आर्थिक-दृष्टि के सन्दर्भ में एक जगह लिखा है-‘‘भारतीय परम्परा का अनुधावन करते हुए गांधी जी ने आत्मा पर आधारित एक अर्थशास्त्र की परिकल्पना रखी है जो सही अर्थों में शास्त्र की श्रळापूर्ण संज्ञा पाने की अधिकारी है। यह अहिंसा और जीवन-निष्ठा पर आधारित है। जिस तथ्य से किसी प्रकार अवदमन या दमन घटित हो, अपना या किसी और का, वह अहिंसा नहीं है।’’ ;मराल: पृष्ठ, 68द्ध उन्होंने इस पुस्तक से अलग भी गांधी-दर्शन पर अनेक फुटकर निबन्ध लिखे हैं। इनमें ‘मराल’ में संगृहीत ‘गाँधी की प्रासंगिकता’ और ‘चिन्मय भारत’ का ‘गांधी चिन्तन का महायान’ प्रमुख हैं।
कुबेरनाथ राय खाँटी भारतीय चिंतक रहे हैं। उनके लेखन और मानसिक संस्कार दोनों में भारतीयता कूट-कूट कर भरी है। परन्तु वे आधुनिक विश्व-चिन्तन से न तो अनभिज्ञ रहे हैं और न ही तटस्थ। उन्होंने अपने लेखन का पहला उद्देश्य की ‘हिन्दुस्तानी मन को आधुनिक विश्व-चिन्तन से जोड़कर पाठकों की चित्त )ळि का विस्तार करना’ बताया है। यह काम उन्होंने अपने समूचे लेखन में किया है। इसका आभास आरम्भिक कृतियों में होमर, वर्जिल, शेक्सपियर पर लिखे गये निबन्धोंµ ‘होमरः आत्मकथ्य’, ‘ंिसंह-द्वार का कवि प्रेत’ ;वर्जिलद्ध, कवि-प्रेत ने कहाः शेक्सपियर’; तीनों ‘रस-आखेटक’ में संगृहीतद्धµ में उन्होंने दे दिया था। वस्तुतः वे इन निबन्धों में उस जमीन की तलाश करते दिखाई पड़ते हैं, जिस पर आधुनिक विश्व-चिन्तन ने आकार लिया। ‘विषाद-योग’ में इस पक्ष का पूर्ण विकास है। इसमें उन्होंने आधुनिक विश्व-चिन्तन पर केंद्रित दस निबन्ध लिखे हैं। इनमें उन्होंने समाजवाद, अस्तित्ववाद और नव्यवाम पंथ पर विचार व्यक्त किये है। ‘कामू, सात्र्र, हरवर्ट माक्यूज आदि पर उन्होंने ने स्वतंत्र निबन्ध भी लिखे हैं। इन निबन्धों में उनका उद्देश्य तथ्यात्मक प्रस्तुति से भिन्न रहा है। वे इन्हें भारतीय मानस के प्रति अनुकूलता और वर्तमान के प्रति प्रासंगिकता के प्ररिप्रेक्ष्य में देखते रहे हैं।

भारतीय मानस को समझने के लिए उन्होंने ‘चिन्मय भारत’ में भारतीय आर्य-चिन्तन की विषद व्याख्या की है। वहाँ भी वे जगह-जगह भारतीय चिन्तन से विश्व-चिन्तन की आधुनिक परम्पराओं की तुलना करते रहे हैं।

कुबेरनाथ राय एक मूलसंश्लिष्ट लेखक रहे हैं। उनकी चेतना की निर्मिति ग्रामीण जीवन की सहज आस्तिक भाव-भूमि और भारतीय आर्ष-चिन्तन के गहन अनुशीलन से हुई है। अत्मिक मूलाधार ;ैचतपजनंस ठंेमद्ध की तलाश उनके पूरे लेखन में व्याप्त है। इस अत्मिक मूलाधार को ही वे कहीं-कहीं भारतीयता भी कहते रहे हैं। अपनी सजग दृष्टि से वे उसकी पहचान के लिए निरन्तर सचेष्ट रहे हैं। इसका प्रमाण हैं, उनके चिन्तन की पाँचों दिशाएँ। इनमें से प्रथम चार तो अनिवार्यतः भारतीयता से सम्बन्धित है। पाँचवीµ आधुनिक विश्व-चिन्तनµ का प्रयोग वे भारतीयता की बनावट और बुनावट के रेशों को उभारने और उसके कच्चे-पक्के धागों की पहचान के लिए करते रहे हैं। वे भारतीयता के विभिन्न पहलुओं को केवल विश्लेषित ही नहीं करते उनका संश्लेषण भी करते हैं। वे भारतीयता को अपनी समग्रता में व्यक्त करते है। इसीलिए उन्होंने भारतीय आर्ष चिन्तन की समूची परंपर की छानबीन और भारत की ऐतिहासिक और नृजातीय निर्मितियों की बात एक साथ की है। वे केवल वेद, उपनिषद्, शंकराचार्य, वाल्मीकि, तुलसी की बात नहीं करते फागुन डोम, चन्दर माझी और रामदेव जी ;गाँव के मल्लाहों के गुरूद्ध का भी हवाला देते हैं। मूल्य के साथ-साथ नृजातीयता की भी बात करते हैं। वे नृजातीयता और मूल्यबोध दोनों को संश्लिष्ट रूप में देखतें हैं। इनमें पहली आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से जुड़ी रही है और दूसरी भारतीय परम्परा से। उनके निबन्धों के सम्बन्ध में रघुवीर सहाय ने ‘दिनमान’ में लिखा था-‘‘यदि संस्कार परम्परावादी हों तो क्या दृष्टि आधुनिक हो सकती है। यानी आप अपने प्राचीन को आत्मात कर पचाकर कुछ ऐसा कह सकें जो वर्तमान से इतना समानधर्मी लग कि आप इसकी बाँह थामकर भविष्य की और बढ़ सकेंµ इस प्रश्न क जितना साफ उत्तर कुबेरनाथ राय के निबन्ध पढ़कर मिलता है, उतना हिन्दी में लिखी गयी किसी कृति को पढ़कर नहीं मिलता। इन निबन्धों का पढ़ना एक नया अनुभव है’’। यह कुबेरनाथ राय के लेखन पर अब तक की सबसे मुकम्मल टिप्पणी है. 

(महात्मा गांधी अंतररष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के एम. फिल. हिंदी तुलनत्मक सहित्य पाठ्यक्रम में प्रस्तुत शोध प्रबंध 'भारतीयता की संकल्पना और कुबेर नाथ राय' का अंश )