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सोमवार, 8 जून 2020

कुबेरनाथ राय : एक भारतीय लेखक






हिंदी साहित्य की परम्परा में कुबेरनाथ राय की गणना आचार्य   हजारी प्रसाद साथ ललित-निबंध-त्रयी के रूप में होती है . किंतु, केवल इतना कहना उनके भरतीय सहित्य में दाय को एक सीमित परिधि मैं बांधना होगा . वे बीसवी सदी के उन भरतीय लेखकोन में हैं जिन्होंने भारत को एक भारतीय की दॄष्टि से देखने की दॄष्टि दी . उनके निबन्धों में व्यक्त ‘मैं’  आसेतु हिमालय भारत में बसने वाली उसकी संतति का ‘मैं’ है . इसीलिए उनके निबंधोन को पढने पर ऐसा महसूस होता है कि लेखक उद्बाहु होकर ‘अहम भरतोस्मि’ की घोषणा कर रहा है . 
 कुबेरनाथ राय का जन्म  26 मार्च 1933 ई को गाजीपुर जनपद के मतसा  गांव के एक समान्य किसान परिवार में हुआ था . पिता स्व. बैकुंठनारयण राय किसान के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर कार्यकर्ता थे और छोटे बाबा पं. बटुकदेव शर्मा  डॉ.  राजेंद्रप्रसाद के सहयोगी, स्वातंत्र्य समर के योद्धा, पत्रकार एवम्‌ अविवाहित अनिकेत यायावर . कुलदेवी चंडी की उपासना और ठाकुर जी का भोग-भजन उन्हें अपनी विरासत में मिला था . उनके सहज संकोची, शील-संयुत, गम्भीर किंतु स्वातंत्र्य प्रेमी व्यक्तित्व तथा भारतीय शील-बोध की सुंगंधि से भीने उनके साहित्य दोनों की बनावट और बुनावट में इन सबकी प्राथमिक भूमिका रही है .
 उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यलय से स्नातक के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में  परास्नातक किया और नलबारी असम के एक महाविद्यलय में अध्यापन करने लगे . असम में अशांति के कारण अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे अपने गृह जनपद गाजीपुर के सहजानंद सरस्वती महाविद्यालय में प्राचार्य नियुक्त हुए . वहाँ से सेवानिवृत्ति के बाद उनके पैत्रिक गांव में  5 जून 1996 को उनका देहावसान हो गया  .

 

कुबेरनाथ राय हिंदी के एकनिष्ठ निबंधकार हैं. उन्होंने अपने लेखन के आरंभ से लेकर अपने जीवन के अवसान तक स्वयं को एक मात्र विधा ललित निबंध को समर्पित कर दिया. इस तरह का समर्पण हिंदी साहित्य की परम्परा में सर्वथा दुर्लभ है. अपने पूरे रचनाकाल मैं उन्होने लगभग साढे तीन सौ निबंध लिखे, जो उनके बीस निबंध संकलनों में संकलित हैं . ‘प्रिया नीलकंठी’  (भारतीय ज्ञानपीठ, 1969) से अरम्भ उनकी रचना-यात्रा का अवसान रामायण महातीर्थम (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली2002) से हुआ . इसके बीच मैं पडने वाले पड़ाव हैं- रस आखेटक (1971) .गंधमादन(1972). निषाद बांसुरी (1973), विषद योग (1974). पर्ण-मुकुट, लोक भारती (1978), महाकवि की तर्जनी(1979), पत्र मणिपुतुल के नाम (1980), मनपवन की नौका, 1983, किरात नदी में चन्द्रमधु (1983), दृष्टि-अभिसार (1984), त्रेता का वृहत्साम (1986), कामधेनु (1990) मराल(1993), उत्तर कुरु, 1993. चिन्मय भारत (1996), अन्धकार में अग्निशिखा  (2000) आगम की नाव,वाणी का क्षीरसागर . ये सभी उनके निबंध संग्रह हैं . कउनका एक मत्र काव्य-संग्रह ‘कंथामणि’ उनकी देहावसान के पश्चात सप्रकाशित हुआ, जो उनकी डायरी और इधर उधर अस्त-व्यस्त पन्नों से लेकर संग्रहीत किया गया .’ पुनर्जागरण का अंतिम शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ सहजानंद सरस्वती समग्र की भुमिका के रुप में लिखी गई उनकी अन्य निबंधेतर रचना है .  उनके निबंध-संग्रह ‘कामधेनु’ पर उन्हें 1993 में भार्तीय ज्ञानपीठ के मूर्ति देवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया .

 

 एक मात्र विधा के रूप में समर्पित होने के बावजूद उनके चिंतन का फलक बहुत व्यापक और लेखन बहुमुखी है . वे एक उदार चेता सजग भारतीय चिंतक थे . वे भारतीय चिंतन को 'एकोहं बहुस्यां ' और 'ऊर्ध्वमूल अधोशाखः' के सूत्र के सहारे पढ़ने की बात करते हैं । प्रमाण है उनके चिन्मयभारत के निबंध, जिनमें उन्होंने अपने चिंतन को निचोड़ दिया है । निचोड़ने का अर्थ यह भी है कि यह उनके जीवन-काल में प्रकाशित उनकी अंतिम पुस्तक है । इसमें उन्होंने इन दोनों सूत्रों के   साथ 'अनन्तो वै वेदाः' के सूत्र को भी जोड़कर भारतीय चिंतन और जीवन की लोकतान्त्रिक बहुलता को बड़े साफ ढंग से व्याख्यायित किया है । वे न तो द्वंद्व के सातत्य में विश्वास कराते थे और न अधिनाकीय एकात्मवाद में । शायद इसीलिए उन्हें शकराचार्य का अद्वैत उतना नहीं रुचा, बल्कि उन्होने बुद्ध के मध्यमप्रतिपदा को अधिक महत्व दिया । सत्य और धर्म की तुलना में उन्हें बौद्ध चिंतन का शील-तत्त्व अधिक ग्राह्य लगा । वे शीलानुरागी थे । उन्होने बौद्ध धर्म को भारतीय जीवन-दर्शन का अंतराष्ट्रीय संस्करण और वैष्णवता को राष्ट्रीय संस्करण कहा तो उसके पीछे भी उनकी लोकतान्त्रिक दृष्टि ही थी । भारतीय संदर्भ में वैष्णव धर्म सबसे अधिक लोकतान्त्रिक और बहुलतावादी रहा है , ठीक वैसे ही जैसे अंतराष्ट्रीय संदर्भ में बौद्ध । दुनिया में बौद्ध धर्म के जीतने रूप हैं उतने शायद दुनिया के किसी धर्म में न हों, पर भारत में यह संघ बद्ध होकर सिमट गया । यहाँ वैष्णवता ने इसके लिए पर्याप्त जगह बनाई । विष्णु के वटवृक्ष के नीचे सम्पूर्ण धार्मिक बहुलता को बिलमने की पूरी छूट दी । आलवारों से लेकर नामदेव और कबीर से लेकर रैदास, सूर, तुलसीदास, हरिदास आदि मध्यकालीन संत इसके गवाह हैं ।
 कुबेरनाथ राय दार्शनिक स्तर पर किसी भी आधुनिक चिंतन की तुलना में गांधी से अधिक प्रभावित हैं। उन्होंने राम और गांधी इन दो को भारतीय जीवन की शीलाचारिकी समझने के लिए सबसे अहम माना, उनके राम आर्य और अनार्य भारत के बीच साहचर्य स्थापित करने वाले, प्राचीन आर्यत्व के प्रतिमान रावण का वध करने वाले और आर्यानार्य साहचर्य के आधार पर नव्य भारतीयता की नींव डालने वाले राम हैं . अपने रघुवंश  की कीर्ति बांसुरी निबंध में कुबेरनाथ राय ने रघुवंश को भारतीय शील का महाकाव्य माना है और राम को इसका प्रतिमान .

 

 वे भरतीयता को कोई बनी-बनाई चीज नहीं मानते बल्कि उसे एक ऐतिहासिक सातत्य में विकसित होता हुआ देखते हैं . अपने उत्तर कुरु संग्रह के ‘अनार्यावर्त’ निबन्ध में उन्होंने भारतीयता की नृजातीय निर्मिति की संघटक जातियों की पहचान नृतात्विक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट की है। उनका मानना रहा है कि ‘‘सारा भारतवर्ष एक ‘मुस्तर्का मिल्कियत’ है। एक सर्वनिष्ट सांस्कृतिक उत्तराधिकार है और भारत का कोई अंश चाहे वह गंगा की घाटी हो या ब्रह्मपुत्र-कावेरी की एक ही साथ सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से ‘निषाद-किरात-द्रविण और आर्य’ चारों है, तो ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद या किरात राष्ट्रवाद का अलगाववादी तार्किक आधार स्वयं समाप्त हो जाता है’’. वे अपने समूचे लेखन में इस बात पर जोर देते रहे हैं कि भारत में कोई भी जाति विशुद्ध नहीं रही। सब के सब अविशुद्ध हैं। भारतीयता इन सभी जातियों की संयुक्त विरासत ‘कामन-वेल्थ’ है।
 इस तरह कुबेरनाथ राय को हम एक ऐसे सहित्यकार के रूप में पाते हैं, जो भारतीय जीवन, इतिहास और चेतना से अविभाज्य रूप से जुड़ा और उसके अनुशीलन-परिशीलन के प्रति अनन्य रूप से समर्पित रहा .

सोमवार, 5 जून 2017

कुबेरनाथ राय : स्मृति की कुछ धुंधली रेखाएँ



कुबेरनाथ राय ललित निबंध के अमिट हस्ताक्षर । यों, एक लेखक से पहले उनसे मेरी मुलाक़ात एक व्यक्ति के रूप में ही हुई । मुलाकातें पहले भी हुई होंगी, पर उनकी स्मृतियाँ मेरे मानस से लुप्त हैं, केवल एक को छोड़कर जिसकी एक हल्की-सी स्मृति आज भी मन के कैनवास पर अंकित है । एक व्यक्ति के रूप में उन्हें याद करने और जानने का अवसर मेरे पास केवल उसी एक स्मृति की कुछ रेखाओं को टटोलने से संभव हो सकता है । वे भी बहुत धुँधली हैं। तब मैं बहुत छोटा था और माँ के साथ अपने ननिहाल गया था । बचपन में मेरे आस-पास के लोगों में ख्याति अस्थिर-चित्त चंचल बच्चे के रूप में ही अधिक रही है, बड़ों की डांट का मैं तब अभ्यस्त हो चुका था । इसके विपरीत उनके परिवार के बच्चों (उनकी पौत्री अपराजिता और पौत्र अनंत विजय जो मुझसे क्रमशः डेढ़ साल बड़ी और  दो साल छोटे हैं) की गिनती एक सौम्य, संयमित और समझदार बच्चों में होती थी । इसलिए उस परिवार में मेरी चंचलता लोगों को खटकती थी (इस खटकने में उनलोगों का अतिरिक्त स्नेह और सावधानी शामिल भी थी), अवश्य ही, बड़ी मामी को छोड़कर । एक पुरानी कहावत को याद करूँ; जिस तरह कंधे पर बैठी बाल-वधू को किसी पंडित जी ने याही में बेटा, याही में बेटी बताया था, कुछ उसी तरह मैंने उन्हीं में नानी और उन्हीं में मामी देखा था और पाया भी। बाद के दिनों में मेरा मतसा (कुबेरनाथ राय का गाँव) जाने का आकर्षण, वे ही होती थीं । कुछ संयोग ही है कि उनके अंतिम समय और उनके जाने के बाद के अब तक मैं वहाँ न जा सका । यह अवांतर प्रसंग है अवश्य, लेकिन मेरी उस मुलाक़ात की पृष्ठभूमि में यह सब भी शामिल था । शायद, अन्य लोगों के अतिरिक्त स्नेह और चिंता के कारण ही मेरा संकोची मन उनके भी बहुत पास न जा सका और स्मृतियाँ बहुत गहरी न बन पाईं । तब तक बड़े मामा यानी स्वर्गीय कुबेरनाथ राय नलबारी (असम) से अध्यापन छोड़कर गाज़ीपुर में प्राचार्य का पद ग्रहण कर चुके थे और रविवार की छुट्टी बिताने घर-परिवार के पास मतसा आ जाते । मैं जिस मुलाक़ात का जिक्र कर रहा हूँ, वह शायद सप्ताह के बीच के किसी दिन की शाम थी । वे माँ को घर आया जान कर गाजीपुर से घर आए थे । माँ उनकी सबसे छोटी बहन हैं और उन्हें पुत्री की तरह प्रिय भी थीं । मैंने उन्हें पहली बार उनके घर के पूरबी बरामदे में देखा था, जहां दुआर और घर के बीच का प्रवेश द्वार पर । मैंने उनका पैर छूआ और बिना आशीर्वाद या किसी संवाद का इंतजार किए किसी दूसरी ओर भाग गया । इस तरह हमारे बीच की यह पहली मुलाक़ात अबोली ही रही । रात की कोई खास बात मुझे याद नहीं । सुबह मेरे जगाने तक वे फिर वापस गाजीपुर चले गए थे । उसके बाद केवल उनकी बातें ही सुनता रहा । एक बार ननिहाल गया भी तो दो-एक दिन में माँ के साथ वापस आ गया । अबकी मेरी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई । यों, पारिवारिक जिम्मेदारियों के दबाव में माँ भी मायके कम ही जा पातीं थीं । अगर कभी जातीं भी थीं तो अकेले क्योंकि मैं उनके साथ नहीं रहता था । इस पहली मुलाक़ात के समय संभवतः मेरे उम्र साढ़े चार साल थी और इस उम्र के बाद आज तक मैं हमेशा माँ से दूर ही दूर रहा हूँ ।
      उसके बाद उनसे बस एक ही मुलाक़ात हुई । वह भी तब, जब वे रिश्ते से एक पार्थिव शरीर में बदल चुके थे । वह आज ही की तिथि थी । 5 जून 1996 । तब मैं अपने छोटे मामा के घर उनके नवासे पर था और रात बारह बजे मझले मामा की बीमारी की सूचना मिली थी । सुबह हम सब लोग भागते हुए मतसा पहुंचे थे और देखा मझले मामा सामने स्वस्थ बैठे थे, लेकिन चेहरा उदास था । किसी अनहोनी की की आशंका से हमारे कलेजे अचानक कुछ पलों के लिए धड़कना भूल गए थे । बगल में बरामदे में चौकी पर लिटाया हुआ बड़े मामा का पार्थिव शरीर एक दम शांत था । वे पिछली रात की आरंभिक बेला में ही चिर-निद्रा में जा  चुके थे, फिर भी देखने पर ऐसा लगता था, जैसे अभी उठकर बोल पड़ेंगें । हम स्तब्ध थे । उनके गाजीपुर से सेवानिवृत्ति का अभी यह पहला ही साल था और वय भी मात्र 63 साल । 63 साल मात्र इसलिए कि उनका जीवन नितांत संयमित था और प्रायः निरोग भी । आसान, व्यायाम और प्राणायाम उनकी दिनचर्या का अनिवारी हिस्सा था, वैसे ही जैसे ध्यान और पूजा । उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि वैष्णव-शाक्त सम्मीश्रित थी । इसीलिए उनके लेखन में शाक्त परंपरा, तंत्राचार और और चंडी तथा कामाख्या का उल्लेख तो बार-बार आता है, लेकिन अपने आचार-व्यवहार में वे पूर्णतः वैष्णव थे । स्नेहिल, शांत और संयमित ।
      शायद इस अबोले परिचय की ही देन है कि मैंने हमेशा उन्हें उनकी पुस्तकों में खोजने की कोशिश की । उनसे मेरा वास्तविक संवाद उनकी पुस्तकों के रास्ते ही होता गया । ज्यों-ज्यों उनके करीब जाता गया, यह महसूस करता रहा कि उनका नैकट्य सहज तो है, पर संयम मांगता है । स्नेहिल तो है, पर है बड़ा शांत । कुछ संकोची भी है, खासकर अपने बारे में । इसीलिए अपने लेखन में मैं की बात करते हुए भी, वह अपने मैं के प्रति पर्याप्त सजग होकर चलता है । लालित्य उनके लेखन के पोर-पोर में बसा है, लेकिन बहुत शांत और गंभीर रूप में संप्रेषित होता है । एक बाहरी आदमी की तरह उनको पढ़ना, समझना उस लालित्य से वंचित होना है । उस लालित्य का पान एक संयमित और शांत मन से नैकट्य अर्जित करके ही किया जा सकता है । वहाँ क्षिप्रता, चंचलता और उद्वेग के लिए कोई स्थान नहीं है । उनके लेखन में यदि कहीं आदिम आखेट-वृत्ति जागृति भी होती है तो वह रस का आखेट करेगी, न कि एषणा-प्रेरित ऐंद्रिक सुखों का । उनमें कहीं अभिसार की सुप्त आकांक्षा भी जागृत होती है तो उसके लिए वहाँ दृष्टि-अभिसार से अधिक की गुंजाइश नहीं । उसके प्रेम की अभिव्यक्ति भी उत्तराफाल्गुनी के नाम पत्र में ही होगी, किसी प्रेयसी के लिए नहीं । उनके लिए इस प्रकृति का समूचा स्त्री-तत्व या तो देवी है या माँ, बहन और पुत्री । प्रेयसी तो केवल एक ही है, प्रकृति । जिसके प्रति अनन्य राग उनके साहित्य में जहाँ तहां फूट पड़ते हैं । यह राग भी बंगाल और आसाम की आबो हवा से आया या उनके भीतर बैठे संस्कारी किसान मन की सहज अभिव्यक्ति कहना मुश्किल है । ब्रह्मपुत्र और बंगाल की धरती से उनका नाता केवल शिक्षा और नौकरी तक का नहीं था, वह उससे कहीं गहरा था । उनकी पत्नी बंगाल की ही थीं, उनके पूर्वज बहुत पहले बलिया से बंगाल जा बसे थे । मालदा जिले में उनके पिता की जमींदारी थी और विवाह से पूर्व का उनका पूरा समय बंगाल में ही बीता था । इसलिए वे अपने रूप और संस्कार में नब्बे प्रतिशत बंगाली थीं। कहीं-न-कहीं इसका प्रभाव भी कुबेरनाथ राय की चेतना पर अवश्य रहा होगा । तभी उन्हें बाउलों के गीत और शंकर देव की कविताओं के साथ काली और कामाख्या; अर्थात वैष्णव और शाक्त भावबोध में संगति बैठाने में उतनी मुश्किल नहीं हुई होगी । वैसे, इन परस्पर दो विपरीत ध्रुवांतरों के बीच समन्वय का संस्कार उन्हें अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से भी पर्याप्त मिला था । इसलिए वे अपने समूचे लेखन में इन दोनों को समन्वित रूप से लेकर चल सके हैं । उनका शील-बोध या सामान्य चलताऊ शब्दों में कहें तो नैतिक बोध इन्हीं तत्त्वों से मिलकर निर्मित हुआ है । उनके लेखन में शील-बोध का जिक्र बार-बार आया है । शील गंधों अनुत्तरो उनका की प्रिय सूक्ति है । इसे उन्होंने बौद्ध चिंतन से ग्रहण किया है ।   

      यह सच है कि कुबेरनाथ राय के लेखन में वैसा सहज आमंत्रण नहीं है, जैसा हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों में है । उनमें उत्सुकता है, वैचारिक गहराई है, परंपरा और संस्कृति का गहरा बोध है अध्ययन का गहनाता है, लेकिन द्विवेदी जी की तरह भाषा के सूत्र में बाँधकर पाठक चेतना को ज्ञान या परंपरा के इस से उस टीले पर ले जाकर छोड़ देने की दक्षता नहीं है । उन्हें पढ़ते हुए खद्दर की खुरदुरे धोती कुर्ते में छिपे हुए एक सहज और संवेदनशील भारतीय मन का साक्षात्कार होता है । हाँ, कहीं-कहीं इस धोती-कुर्ते में छिपा हुआ अँग्रेजी अध्यापक भी सामने खड़ा होता है, जिसके ज्ञान और संदर्भों के खुले पिटारे के सामने पाठक की बुद्धि लाचार नजर आती है । उनकी भाषा का यह खुरदरापन और अँग्रेजी की अध्यापकी तभी तक नजर आता है, जबतक आपने अपने और उनके संकोच की दीवारें तोड़कर सहज आत्मीयता का रिश्ता नहीं बनाया है । यह रिश्ता अगर बन गया तो वे पक्के संघतिया की तरह हर ऊबड़खाबड़ जगह पर अपना हाथ बढ़ाए खड़े मिलेंगे । तब आपको पहल नहीं करनी होगी, उन्हें रुककर पुकारना नहीं होगा, पहल वे खुद करते चलेंगे। आपको बस अपना हाथ बढ़ाने का संकोच त्यागना होगा ।