हिंदी साहित्य की परम्परा में कुबेरनाथ राय की गणना आचार्य हजारी प्रसाद साथ ललित-निबंध-त्रयी के रूप में होती है . किंतु, केवल इतना कहना उनके भरतीय सहित्य में दाय को एक सीमित परिधि मैं बांधना होगा . वे बीसवी सदी के उन भरतीय लेखकोन में हैं जिन्होंने भारत को एक भारतीय की दॄष्टि से देखने की दॄष्टि दी . उनके निबन्धों में व्यक्त ‘मैं’ आसेतु हिमालय भारत में बसने वाली उसकी संतति का ‘मैं’ है . इसीलिए उनके निबंधोन को पढने पर ऐसा महसूस होता है कि लेखक उद्बाहु होकर ‘अहम भरतोस्मि’ की घोषणा कर रहा है .कुबेरनाथ राय का जन्म 26 मार्च 1933 ई को गाजीपुर जनपद के मतसा गांव के एक समान्य किसान परिवार में हुआ था . पिता स्व. बैकुंठनारयण राय किसान के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर कार्यकर्ता थे और छोटे बाबा पं. बटुकदेव शर्मा डॉ. राजेंद्रप्रसाद के सहयोगी, स्वातंत्र्य समर के योद्धा, पत्रकार एवम् अविवाहित अनिकेत यायावर . कुलदेवी चंडी की उपासना और ठाकुर जी का भोग-भजन उन्हें अपनी विरासत में मिला था . उनके सहज संकोची, शील-संयुत, गम्भीर किंतु स्वातंत्र्य प्रेमी व्यक्तित्व तथा भारतीय शील-बोध की सुंगंधि से भीने उनके साहित्य दोनों की बनावट और बुनावट में इन सबकी प्राथमिक भूमिका रही है .उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यलय से स्नातक के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में परास्नातक किया और नलबारी असम के एक महाविद्यलय में अध्यापन करने लगे . असम में अशांति के कारण अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे अपने गृह जनपद गाजीपुर के सहजानंद सरस्वती महाविद्यालय में प्राचार्य नियुक्त हुए . वहाँ से सेवानिवृत्ति के बाद उनके पैत्रिक गांव में 5 जून 1996 को उनका देहावसान हो गया .
कुबेरनाथ राय हिंदी के एकनिष्ठ निबंधकार हैं. उन्होंने अपने लेखन के आरंभ से लेकर अपने जीवन के अवसान तक स्वयं को एक मात्र विधा ललित निबंध को समर्पित कर दिया. इस तरह का समर्पण हिंदी साहित्य की परम्परा में सर्वथा दुर्लभ है. अपने पूरे रचनाकाल मैं उन्होने लगभग साढे तीन सौ निबंध लिखे, जो उनके बीस निबंध संकलनों में संकलित हैं . ‘प्रिया नीलकंठी’ (भारतीय ज्ञानपीठ, 1969) से अरम्भ उनकी रचना-यात्रा का अवसान रामायण महातीर्थम (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली2002) से हुआ . इसके बीच मैं पडने वाले पड़ाव हैं- रस आखेटक (1971) .गंधमादन(1972). निषाद बांसुरी (1973), विषद योग (1974). पर्ण-मुकुट, लोक भारती (1978), महाकवि की तर्जनी(1979), पत्र मणिपुतुल के नाम (1980), मनपवन की नौका, 1983, किरात नदी में चन्द्रमधु (1983), दृष्टि-अभिसार (1984), त्रेता का वृहत्साम (1986), कामधेनु (1990) मराल(1993), उत्तर कुरु, 1993. चिन्मय भारत (1996), अन्धकार में अग्निशिखा (2000) आगम की नाव,वाणी का क्षीरसागर . ये सभी उनके निबंध संग्रह हैं . कउनका एक मत्र काव्य-संग्रह ‘कंथामणि’ उनकी देहावसान के पश्चात सप्रकाशित हुआ, जो उनकी डायरी और इधर उधर अस्त-व्यस्त पन्नों से लेकर संग्रहीत किया गया .’ पुनर्जागरण का अंतिम शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ सहजानंद सरस्वती समग्र की भुमिका के रुप में लिखी गई उनकी अन्य निबंधेतर रचना है . उनके निबंध-संग्रह ‘कामधेनु’ पर उन्हें 1993 में भार्तीय ज्ञानपीठ के मूर्ति देवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया .
एक मात्र विधा के रूप में समर्पित होने के बावजूद उनके चिंतन का फलक बहुत व्यापक और लेखन बहुमुखी है . वे एक उदार चेता सजग भारतीय चिंतक थे . वे भारतीय चिंतन को 'एकोहं बहुस्यां ' और 'ऊर्ध्वमूल अधोशाखः' के सूत्र के सहारे पढ़ने की बात करते हैं । प्रमाण है उनके चिन्मयभारत के निबंध, जिनमें उन्होंने अपने चिंतन को निचोड़ दिया है । निचोड़ने का अर्थ यह भी है कि यह उनके जीवन-काल में प्रकाशित उनकी अंतिम पुस्तक है । इसमें उन्होंने इन दोनों सूत्रों के साथ 'अनन्तो वै वेदाः' के सूत्र को भी जोड़कर भारतीय चिंतन और जीवन की लोकतान्त्रिक बहुलता को बड़े साफ ढंग से व्याख्यायित किया है । वे न तो द्वंद्व के सातत्य में विश्वास कराते थे और न अधिनाकीय एकात्मवाद में । शायद इसीलिए उन्हें शकराचार्य का अद्वैत उतना नहीं रुचा, बल्कि उन्होने बुद्ध के मध्यमप्रतिपदा को अधिक महत्व दिया । सत्य और धर्म की तुलना में उन्हें बौद्ध चिंतन का शील-तत्त्व अधिक ग्राह्य लगा । वे शीलानुरागी थे । उन्होने बौद्ध धर्म को भारतीय जीवन-दर्शन का अंतराष्ट्रीय संस्करण और वैष्णवता को राष्ट्रीय संस्करण कहा तो उसके पीछे भी उनकी लोकतान्त्रिक दृष्टि ही थी । भारतीय संदर्भ में वैष्णव धर्म सबसे अधिक लोकतान्त्रिक और बहुलतावादी रहा है , ठीक वैसे ही जैसे अंतराष्ट्रीय संदर्भ में बौद्ध । दुनिया में बौद्ध धर्म के जीतने रूप हैं उतने शायद दुनिया के किसी धर्म में न हों, पर भारत में यह संघ बद्ध होकर सिमट गया । यहाँ वैष्णवता ने इसके लिए पर्याप्त जगह बनाई । विष्णु के वटवृक्ष के नीचे सम्पूर्ण धार्मिक बहुलता को बिलमने की पूरी छूट दी । आलवारों से लेकर नामदेव और कबीर से लेकर रैदास, सूर, तुलसीदास, हरिदास आदि मध्यकालीन संत इसके गवाह हैं ।कुबेरनाथ राय दार्शनिक स्तर पर किसी भी आधुनिक चिंतन की तुलना में गांधी से अधिक प्रभावित हैं। उन्होंने राम और गांधी इन दो को भारतीय जीवन की शीलाचारिकी समझने के लिए सबसे अहम माना, उनके राम आर्य और अनार्य भारत के बीच साहचर्य स्थापित करने वाले, प्राचीन आर्यत्व के प्रतिमान रावण का वध करने वाले और आर्यानार्य साहचर्य के आधार पर नव्य भारतीयता की नींव डालने वाले राम हैं . अपने रघुवंश की कीर्ति बांसुरी निबंध में कुबेरनाथ राय ने रघुवंश को भारतीय शील का महाकाव्य माना है और राम को इसका प्रतिमान .
वे भरतीयता को कोई बनी-बनाई चीज नहीं मानते बल्कि उसे एक ऐतिहासिक सातत्य में विकसित होता हुआ देखते हैं . अपने उत्तर कुरु संग्रह के ‘अनार्यावर्त’ निबन्ध में उन्होंने भारतीयता की नृजातीय निर्मिति की संघटक जातियों की पहचान नृतात्विक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट की है। उनका मानना रहा है कि ‘‘सारा भारतवर्ष एक ‘मुस्तर्का मिल्कियत’ है। एक सर्वनिष्ट सांस्कृतिक उत्तराधिकार है और भारत का कोई अंश चाहे वह गंगा की घाटी हो या ब्रह्मपुत्र-कावेरी की एक ही साथ सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से ‘निषाद-किरात-द्रविण और आर्य’ चारों है, तो ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद या किरात राष्ट्रवाद का अलगाववादी तार्किक आधार स्वयं समाप्त हो जाता है’’. वे अपने समूचे लेखन में इस बात पर जोर देते रहे हैं कि भारत में कोई भी जाति विशुद्ध नहीं रही। सब के सब अविशुद्ध हैं। भारतीयता इन सभी जातियों की संयुक्त विरासत ‘कामन-वेल्थ’ है।इस तरह कुबेरनाथ राय को हम एक ऐसे सहित्यकार के रूप में पाते हैं, जो भारतीय जीवन, इतिहास और चेतना से अविभाज्य रूप से जुड़ा और उसके अनुशीलन-परिशीलन के प्रति अनन्य रूप से समर्पित रहा .