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रविवार, 10 नवंबर 2024

गाँधी-दर्शन और कुबेरनाथ राय

 


कुबेरनाथ राय खांटी भारतीय चिंतक रहे हैं। उनके लेखन और मानसिक संस्कार दोनों में भारतीयता कूट-कूट कर भरी हुई है। लेकिन वे आधुनिक विश्व-चिंतन से न तो अनाभिज्ञ रह रहे हैं और न ही तटस्थ हैं। उन्होंने अपने आलेख का पहला उद्देश्य 'हिन्दुस्तानी मन को आधुनिक विश्व-चिंतन से लेकर बाबा की चित्तवृत्ति तक' का विस्तार बताया है। यह काम उन्होंने अपनी भाषा में लिखा है। इसकी अहासा आशिक कृतियों में होमर, वर्जिल, शेक्सपियर द्वारा लिखे गए निबन्धों µ 'होमरः आत्मकथ्य', 'निसंह-द्वार का कवि प्रेत'; संस्करण , कवि-प्रेत ने कहाः शेक्सपियर' ; त्रि 'रस-आलेख' में संग्रहालयीताद्ध µ में उन्होंने दिया था। वे इन निबंधों में उस जमीन की तलाश करते दिखाई देते हैं, जिस पर आधुनिक विश्व-चिंतन ने आकार दिया है। 'विषाद-योग' में इस पक्ष का पूर्ण विकास है। उन्होंने आधुनिक विश्व-चिंतन पर दस निबन्ध लिखे हैं। इनमें समाजवाद, साध्यवाद और व्यवहारवाद पर विचार हैं। 'कामू, सात्र, हरवर्ट मैक्यूज़ आदि पर उन्होंने स्वतंत्र निबन्ध भी लिखे हैं। इन निबन्धों में उद्देश्य उनके तथ्यात्मक गुरु या विश्लेषण से भिन्न है। भारतीय मानस की प्रति-अनुकूलता और वर्तमान की प्रति-अनुकूलता के सिद्धांतों पर नजर रखी जा रही है।

गांधी-दर्शन कुबेरनाथ राय के लेखन की चौथी दिशा है। यद्यपि जगह-जगह उन्होंने गांधी से असहमतियां भी व्यक्त की गई हैं, तथापि , गांधी जी की मान्यताओं को स्वीकार भी करते हैं। उनका मानना ​​है कि सत्य और अहिंसा का गांधी सूत्र भारतीय जीवन-दृष्टि का सार-तत्व है। इसमें एक का प्रतिनिधि ब्राह्मण-परम्परा है और दूसरे का प्रतिनिधि ब्राह्मण-परम्परा है। ये दोनों समन्वित रूप से भारतीयता की स्थापना रचित हैं। गांधी ने इन दोनों को ग्रहण करके अपने युगीन आविष्कार के संग्रहालय अभय को जोड़ा है। इसलिए वे उन्हें असली भारतीय मानते हैं। वे उनकी सौन्दर्य दृष्टि और साहित्य दृष्टि के कायल थे। वे इस स्तर पर उन्हें बौळ और जैन दर्शनों के निकट मानते थे। उनका था गांधीजी की सौन्दर्य दृष्टि का सूत्र बौतों के 'शीलगंधो अनुत्तरो' का अनुकरणीय सूत्र के और भी करीब है। वे इसे 'शातं सहजं सुंदरम्' के सूत्र द्वारा परिभाषित करते हैं। उन्होंने गांधीजी के केंद्र में पूरी तरह से एक पुस्तक 'पत्र: मणिपुतुल के नाम' लिखी है। इस पुस्तक का पहला निबन्ध 'पाँत का आखिरी आदमी' आधुनिक युवा पीढ़ी को मूर्ति और बेरोजगारी की समस्या पर केन्द्रित है। उन्होंने गांधी की आर्थिक-दृष्टि के सन्दर्भ में एक जगह लिखा है-''भारतीय परंपरा का अनुष्ठान करते हुए गांधी जी ने आत्मा पर आधारित एक अर्थशास्त्र की परिकल्पना की है जो शास्त्र में सही अर्थों की श्रावक पूर्णता प्रदान करता है। यह अहिंसा और जीवन-निष्ठा पर आधारित है। जिस तथ्य से किसी प्रकार का अवदमन या दमनकारी कार्यकर्ता हो , अपना या किसी और का , वह अहिंसा नहीं है।'' ; मेराल: पृष्ठ , 68 द्ध उन्होंने इस पुस्तक से भिन्न गांधी-दर्शन पर अनेक फुटकर निबन्ध लिखे हैं। इनमें से 'मेराल' में 'गांधी की मुक्ति' और 'चिन्मय भारत' का 'गांधी चिंतन का महायान' प्रमुख हैं।

भारत का सांस्कृतिक उत्तराधिकार और कुबेरनाथ राय

 


आर्येतर भारत और गंगातीरी लोक जीवन पर केन्द्रित कुबेरनाथ राय की प्रमुख कृतियाँ ‘निषाद बाँसुरी’,‘मनपवन की नौका’ ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’ और ‘उत्तरकुरू’ रही हैं। इनमें उन्होंने भारत की नृजातीय संरचना पर विस्तार से विचार किया है। ‘निषाद बाँसुरी’ मुख्यतः ‘गंगातीरी लोक जीवन’ पर केन्द्रित है। इसमें उन्होंने गंगातीरी निषाद संस्कृति की बात की है। इसके बहाने उन्होंने भारत की जातीय निर्मिति में निषाद ;आस्ट्रिकद्ध जाति के अवदान की विस्तार से चर्चा की है। ‘मन पवन की नौका’ द्वीपान्तर भारत ;दक्षिण-पूर्व एशियाद्ध का सांस्कृतिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करती है। इसमें उन्होंने इस क्षेत्र की नृजातीय संरचनाµ ‘चाम्’ ‘मान्-ख्मेर’µ एवं सांस्कृतिक संरचना में भारतीय तत्त्वों की उपस्थिति की तलाश की है। वे इसे नृजातीय एवं अन्य तत्त्वों की दृष्टि से सांस्कृतिक भारत का ही एक अंग मानते हैं। ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’ भारतीयता की निर्मिति के एक अन्य घटक ‘किरात’ जाति के सांस्कृति अवदानों की पहचान से संबंधित ‘निषाद बाँसुरी के अन्तिम दो निबन्धों ‘महाबाहु ब्रह्मपुत्र: ;1द्ध प्रवाहपर्व’ और ‘महाबाहु ब्रह्मपुत्र: ; अवतरणपर्व’ में भी उन्होंने इसी क्षेत्र को लेखन का विषय बनाया है। ये तीनों संग्रह भारतीयता की निर्मिति में आर्येतर जातियों के अवदान की पहचान कराते हैं तो ‘उत्तर कुरू’आर्यों के साथ इनकी मिलीजुली बुनावट के स्वरूप को व्यक्त करता है। इसमें मुख्यतः कुरूओं की विभिन्न कथाओं को माध्यम बनाया गया है। यहाँ उन्होंने कालिदास के ही दो नाटकांे ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ और ‘विक्रमोर्वशीयम्’ को आधार बनाकर तीन निबन्ध लिखे गये हैंµ ‘शकुन्तलाः प्रतीक और अर्थ’ ‘शैवाल में उलझा एक मुख कमल’ तथा ‘भारतीय इतिहास की अप्सरा-नाभि’। ये तीनों निबन्ध भारतीयता की बनावट को व्यक्त करते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘उत्तरकुरू’ ‘कदलीवन’ आदि प्राचीन साहित्यिक रूढ़ियों के बहाने भारतीय इतिहास की अनेक ग्रंथियों को सुलझाया है। ‘अनार्यावर्त’ निबन्ध में उन्होंने भारतीयता की नृजातीय निर्मिति की संघटक जातियों की पहचान नृतात्विक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट की है। उनका मानना रहा है कि ‘‘सारा भारतवर्ष एक ‘मुस्तर्का मिल्कियत’ है। एक सर्वनिष्ट सांस्कृतिक उत्तराधिकार है और भारत का कोई अंश चाहे वह गंगा की घाटी हो या ब्रह्मपुत्र-कावेरी की एक ही साथ सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से ‘निषाद-किरात-द्रविण और आर्य’ चारों है, तो ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद या किरात राष्ट्रवाद का अलगाववादी तार्किक आधार स्वयं समाप्त हो जाता है’’ ;उत्तरकुरुः पृष्ठ, टप्प्प्द्ध। वे अपने समूचे लेखन में इस बात पर जोर देते रहे हैं कि भारत में कोई भी जाति विशुळ नहीं रही। सब के सब अविशुळ हैं। भारतीयता इन सभी जातियों की संयुक्त विरासतµ‘कामन-वेल्थ’ है।

रामकथा और कुबेरनाथ राय


 

कुबेरनाथ राय के लेखन का तीसरा विषय-क्षेत्र हैµ रामकथा इसमें वे खूब रमे हैं। उन्होंने इस विषय पर तीन स्वतन्त्र किताबें ही लिख डाली हैं। ‘महाकवि की तर्जनी’ इस विषय पर लिखी गयी पहली उनकी स्वतंत्र पुस्तक है। इसमें रामकथा का आश्रय लेकर रस-बोध, बौळिकता और शील-बोध का एक त्रिकोण उपस्थित हुआ है। इसके तीन भाग हैं। पहले में वाल्मीकि ;रामकथा के रचयिताओं?द्ध पर विचार हुआ है। दूसरे भाग में राम-कथा में शील-तत्व सम्मिलित हैं। इसमें उन्होंने आदि कवि वाल्मीकि से लेकर असमिया कवि माधव कदली तक पर विचार हुआ है। माधव कदली को उन्होंने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में रामकथा का पहला कवि माना है। ‘रामचरित मानस’ के प्रारम्भिक श्लोकों में से चार के अंशों ‘वन्देवाणीविनायकौ’,‘भवानीशंकरौवन्दे’,‘कवीश्वरौ कपीश्वरौ’,‘वन्दे बोधमयं नित्यं’ पर आधरित चार निबन्ध हैं। इसी भाग में एक पाँचवा निबन्ध ‘युग सन्दर्भ में मानस’ भी है। इसके अतिरिक्त मानस पर अन्य छिटपुट निबन्ध भी अन्य संग्रहों में संकलित हैं। ‘वाणी का क्षीर सागर’ के ‘मानस, सुरधुनी के उसपार’ और ‘मानसः दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र’ इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

दूसरी कृति है, ‘त्रेता का वृहत्साम’। इसमें उनकी मान्यता है कि बाल्मीकि रामायण का मूल स्वरूप सूर्यात्मक है। यह अपने मूलरूप में एक सूर्य गाथा है। इस महाकाव्य के भीतर निहित सूर्य-प्रतीकों और सूर्योपासना के तत्वों का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। साथ ही राम के चरित्र में त्याग, तप, संकल्प, पुरूषार्थ, तेज से समन्वित उनके तेजोदीप्त सौन्दर्य का उद्घाटन किया गया है। इस कृति में उनकी मूल-स्थापना यह है कि रामायण ‘जिजीविसा-करूणा-अभय’ का त्रिकोण त्यक्त करता है। यही इसकी मूल्यवत्ता का आधार है। उनके अनुसार यह संकल्प प्रधान महाकाव्य है।

तीसरी कृति ‘रामायण महातीर्थम्’ राम-कथा में उनके अवदान की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। इसमें उन्होंने राम कथा के स्वरूप के क्रम-विकास का अध्ययन किया है। वैदिक और याजक परम्पराओं से जोड़ते हुए उन्होंने इसकी कथा रूढ़ियों और प्रतीकों के विकास का स्वरूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने इन्द्र, पूषा, सीता, सविता, आदि वैदिक देवताओं के बीच से रामकथा के महत्त्वपूर्ण पात्रों के चारित्र-विकास की प्रक्रिया को पहचानने का प्रयास किया है। इस ग्रन्थ में एक अन्य स्तर पर राक्षस और बानर जातियों की वास्तविक पहचान का भी प्रयास किया गया है। राक्षस और यक्ष को यहाँ उन्होंने निषाद ;आॅस्ट्रिक जातिद्ध का ही दिव्य रूप बताया है और बानर-समाज को निषाद-द्रविड़-विमिश्र जाति का प्रतिनिधि। यहाँ उन्होंने ‘रामायण’ को आदिम आर्यत्व और नव्य आर्यत्व को बीच का संघर्ष माना है। रावण को वे आदिम आर्यत्व का प्रतिनिधि मानते हैं और राम को नव्य-आर्यत्व का। उन्होंने यहाँ आदिम और नव्य के बीच के अन्तर को नृजातीयता के बजाय मूल्य बोध और संस्कृतियों से जोड़ा है। उनके अनुसार राम नये मूल्योंµशीलµके प्रतिनिधि हैं और रावण आदिम परम्पराओं का। वे राम को भारत के राष्ट्रीयशील का प्रतीक मानते हैं और राम-कथा को भारतीय शील का महाकाव्य।

कुबेरनाथ राय का सहित्य -चिंतन

 

कुबेरनाथ राय ने भारतीय साहित्य पर दो दृष्टियों से विचार किया है µ मूल्यपरक और नृतात्त्विक। मूल्य की दृष्टि से साहित्य में दो प्रमुख तत्वों को ध्यान में रखना आवश्यक है µ रस और भूमा। रस को उन्होंने अपने में डूब जाने µ समाधिस्थ हो जाने की स्थिति का कारण माना है। वे रसविज्ञानियों द्वारा निर्मित रस से आनंद के संबंध µ' रसोवैसः' µ को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार आनन्द का ही एक रूप मोक्ष है। इसे वे भारत की चिन्मय सत्ता का प्रतीक मानते हैं। मोक्ष और निर्वाण की अलग-अलग व्याख्याएँ दी गई हैं। उनके अनुसार इसके लिए मृत्यु का रहस्य नहीं है। यह इसी जीवन और इस लोक में भी किया जा सकता है। नृत्य , गीत , कला आदि के माध्यम से। वे इसके प्रमाण में 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' के एक अंश 'अहोल्ब्ध उत्सव निर्वाणम्' का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार यहाँ उत्सव निर्वाण का अर्थ आखों का विनाश नहीं होना चाहिए। यहां इसका अर्थ है चरम सुख या महासुख की प्राप्ति। इसका आधार लौकिक है- शकुंतला का रूप। दूसरा तत्व भूमा का अर्थ वे विस्तृत होने की इच्छा मानते हैं। उन्हें साहित्य के लिए आत्मविभोरता और भूमा का विस्तार दोनों का रस आवश्यक लगता है। वे इन दोनों से समन्वित साहित्य को ही श्रेष्ठ साहित्य मानते हैं। उन्होंने कहा कि एकता को समन्वय का आधार माना जाता है। इस रूप में वे )ळिप्रधान कहते हैं।

कुबेरनाथ राय भारतीय साहित्य की तीन कोटियाँ हैं µ रसप्रधान , ) ळी तथा रसप्रधान और )ळीप्रधान। बिहारी और गालिब को पहली बार कोटि में रखा गया है। उनके अनुसार ये दोनों ही रस प्रधान कवि हैं। दूसरी कोटि में उन्होंने व्यास वाल्मिकी , सुर कबीर और तुलसी को धारण किया है। ये रस , भूमा और शील से समन्वित)ळिप्रधान कवि हैं। वे इस वर्ग के सिद्धांत को राष्ट्रीय शील के प्रशिक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हैं। तीसरी कोटि में वे कालिदास , सूरदास और रवीन्द्र नाथ टैगोर शामिल हैं। ये रस और )ळी दोनों तत्त्व की एक साथ उपस्थिति हैं। उन्होंने इस सूची में कहा है कि कवि के छोटे से बड़े कलाकार के अस्तित्व का आधार न जीवित कवि की प्रकृति की पहचान का आधार माना जाता है। उन्होंने वाल्मिकी , व्यास , कालिदास , भवभूति , जयदेव , तुलसी से लेकर आधुनिक विद्वानों में प्रेमचंद , दिनकर और मुक्तिबोध तक के साहित्य पर विचार किया है, शंकरदेव और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे हिन्दी से लेकर अन्य विद्वानों ने भी अलग-अलग सिद्धांतों पर विचार किया है। है.

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

कुबेरनाथ राय का सहजानंद विषयक चिंतन

हिंदी पाठकों के सम्मुख कुबेरनाथ राय की पहली पहचान ललित निबंधकार के रूप में बनी । उनके आरंभिक निबंध, जो प्रिया नीलकंठी’ ‘रस आखेटक और गंधमादन में संकलित हैं, इसी विधा से संबद्ध हैं । इसी अर्थ में वे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय के रूप में एक त्रयी भी बनाते हैं । किन्तु, यह उनकी अधूरी पहचान है । वे सर्वांशतः एक भारतीय लेखक हैं । भारतीयता उनके लेखन का मेरुदंड है, जिसपर उनका समूचा चिंतन और सृजन टीका हुआ है । यह संस्कार-लब्ध और भारतीय आर्ष-चिंतन की परंपरा तथा लोक मन के गहन अनुशीलन और तादात्मीकरण से सहज-संपुष्ट भारतीयता है ।  उन्हें अपने भारतीय होने का औसत से अधिक घमंड’ है । वे कहते हैं कि 
इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा, ‘अहं भारतोSस्मि। 
भारतीयता’ न केवल भूगोल है न इतिहास है, न केवल चिंतन या संस्कार-प्रवाह । यह इन तीनों का संश्लेष है । इन्हें ही कुबेरनाथ राय क्रमशः मृण्मय भारत, शाश्वत भारत और चिन्मय भारत कहते हैं । इनका आपस में पूर्वापर या रैखिक संबंध नहीं, बल्कि अंग-अंगी-संबंध  है । मृण्मय भारत से चिन्मय भारत तक की यात्रा देह से आत्मा की ओर ऊर्ध्वगमन है । और, यह संयोग ही है कि रचना-क्रम की दृष्टि से उनकी अंतिम पूर्ण कृति भी चिन्मय भारत ही है । यह अपने प्रकाशित रूप में ठीक उसी दिन उनके परिवार के हाथ में आयी, जिस दिन (5 जून 1996 को) वे अपनी मृण्मय सत्ता को त्याग कर चिन्मय सत्ता में विलीन हो चुके थे ।

            पहली कृति प्रिया नीलकंठी के प्रकाशन (1971 ई.) से लेकर आगम की नाव (2005 ई.) तक कुबेरनाथ राय की अबतक 21 कृतियाँ प्रकाशित हैं और बाइसवीं कृति महाजागरण का शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ प्रकाशन-क्रम में है । इनके कुछ आलोचनात्मक निबंध तथा अन्य रचनाएँ इतस्ततः पत्रिकाओं-पुस्तकों में बिखरी हुई हैं। स्वाहा-शिखा शीर्षक से इनके एक अन्य संकलन का प्रकाशन प्रस्तावित था, किन्तु प्रकाशक के प्रमादवश न आ सका और उसकी अंधिकांश सामाग्री भी अब अनुपलब्ध है । अपनी समग्रता में ये सभी रचनाएँ भारतीय चिंतन-परंपरा और लोक-मन के बीच संवाद का उपक्रम हैं । इनके बीच लेखक नेरेटर या दुभाषिये की भूमिका में नहीं है, बल्कि दोनों का एक साथ प्रतिनिधित्व कर रहा है । उसके रचना-कर्म की साधारण प्रतिज्ञा तो पाठकों की चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना और उसे परिमार्जित भव्यता देना है, लेकिन वह साथ-साथ स्वयं भी क्रमशः विस्तृत और उदात्त होता गया है । सत्य, ऋत और शील कुबेरनाथ राय के चिंतन की धुरी हैं । जो असत्य है, दुःशील है, अनृत है, वह उन्हें ग्राह्य नहीं है । उनकी जीवन-दृष्टि और सौंदर्य-दृष्टि औदात्य के साथ-साथ माधुर्य के साहचर्य पर टिकी है । आधुनिक शिक्षा और पश्चिमी साहित्य तथा चिंतन के गंभीर अध्येता होने के बावजूद उनका मन भारतीय किसान के गृहस्थ-लोक का वासी है, जहाँ अति या चरम के लिए कोई स्थान नहीं है, चरम विराग या चरम राग दोनों उसके लिए अग्राह्य हैं । महाश्रमण इतना विराग असह्य है शीर्षक अपने निबंध में उन्होंने यह साफ-साफ लिखा भी है । बहु-अधीत और शास्त्रज्ञ होने का कारण उनके पास कहने के अन्य तरीके भी थे और अनेक प्रसंगों में इस बात को उन्होंने अलग-अलग तरह से कहा भी है; जैसे रघुवंश की कीर्ति बांसुरी में राम के शील को भारत का राष्ट्रीय शील कहना या कई स्थलों पर मधु वाता ऋतायते का उल्लेख आदि ।  अतः अनायास नहीं कि उनके साहित्य-नायक राम, गांधी और बुद्ध हैं । राम और गाँधी को केंद्र में रखकर तो उनके स्वतंत्र निबंध-संग्रह भी हैं । पत्रमणि पुतुल के नाम महात्मा गाँधी पर केंद्रित है और महाकवि की तर्जनी’, ‘त्रेता का वृहतसाम तथा रामायण महा तीर्थम् राम-केंद्रित । इसके अतिरिक्त भी इन दोनों पर उनके अनेक निबंध विभिन्न संग्रहों में संकलित हैं ।

            कुबेरनाथ राय का लेखन भारतीय संस्कृति के अस्ति-पक्ष के साथ-साथ भवति-प्रवाह को लेकर चला है । चिन्मय भारत के साथ ही शाश्वत भारत भी यहाँ मौजूद है।  शाश्वत भारत अर्थात् इतिहास-प्रवाह, जिसकी धार के से छिल-मँज कर चिन्मय भारत का भव्य प्राकार खड़ा हुआ है।  उसका सौंदर्य और उसकी चमक उसी की देन है। इसके चिह्न हमारे लोक और शास्त्र दोनों में मौजूद हैं और सबसे बढ़ कर हमारी दृष्टि और बोध में। हमारे महाकाव्य, हमारे कला-प्रतीक, हमारे जीवन-मूल्य और हमारे मिथक सब उसीके रचे हैं। श्री राय ने अपनी रचनाओं में भारतीय प्रतीकों की व्याख्या इसी संदर्भ में की है। कामधेनु संग्रह के  निबंध इस दृष्टि से खास महत्त्व रखते हैं। निषाद बांसुरी’ ‘मन पवन की नौका और उत्तरकुरु के निबंध भी इसी क्रम की रचनाएँ हैं। दरअसल, उनका बल भारतीयता के अस्ति-पक्ष के बजाय भवति-प्रवाह पर अधिक रहा है। वे स्थिरता के बजाय गतिशीलता में विश्वास रखते हैं। इसलिए यह उनके रचना-कर्म की मुख्य दिशा है। वे भारतीय संस्कृति की संरचना को जिस तरह ग्रहण करते हैं या व्याख्यायित करते हैं, उसे देखकर संभव है किसी को भ्रम हो कि लेखक अतीतोन्मुखी है; खासकर उनको, जिन्हें गतिशीलता उनके खास रास्ते पर ही नज़र आती है; अन्यत्र नहीं ।

            कुबेरनाथ राय इतिहास का प्रयोग न करके भवति-प्रवाह का प्रयोग कराते हैं तो उसका भी कुछ खास अर्थ है । इतिहास में बीत चुके का भाव है, जबकि बीतता कुछ नहीं; स्थितियाँ परिवर्तनशील होती है और समय के अनुसार अपने रूपाकार में परिवर्तन भर कर लेती हैं ।  लेकिन, उनकी रेखाएँ आसानी से नहीं मिटती । एक रचनाकार के लिए भारत जैसे समृद्ध अतीत वाले देश की हर स्थिति या घटना और उसके प्रभाव को दर्ज़ कर पाना संभव नहीं है, फिर भी इतिहास कि कई महत्वपूर्ण स्थितियों और उनके प्रभावों के चित्र श्री राय की रचनाओं में सहज ही मिल जाते हैं । चाहे वह भारतीय इतिहास कि अप्सरा नाभि या अगस्त तारा’ निबंधों की तरह साहित्य या लोक-आख्यान के आश्रय से ही क्यों न हो । आधुनिक काल में महात्मा गाँधी को लेकर उन्होंने जो निबंध लिखे हैं, उसका एक कारण संभवतः यह भी है । हमारे निकट अतीत में गाँधी इस भवति-प्रवाह की सबसे सशक्त धारा रहे हैं ।  सतह पर उनकी भूमिका केवल भारत के राजनीतिक मुक्ति आंदोलन तक दिखती हो, पर उनकी लहरों की रगड़ भारतीय जीवन और मनोरचना पर बहुत बाद तक महसूस कि जाएगी ।

            आलोच्य पुस्तक महात्मा गाँधी के ही समकालीन किसान गुरु स्वामी सहजानंद सरस्वती पर केंद्रित है । वे एक साथ ही किसान आंदोलन के गुरु, नेता और सेनानी तीनों थे । वे संस्कारतः किसान थे और व्यवहारतः संन्यासी । सामाजिक नेतृत्व तो उनके कर्म-वेदान्त का हिस्सा था । संभव है, किसी को उन्हें व्यवहारतः संन्यासी मानने में आपत्ति हो तो उसे अंत तक अपने हाथ में धरण किए हुए दंड और अपने अंतिम दिनों में अखिल भारतीय विरक्त महामंडल की अध्यक्षता को याद करना चाहिए; साथ ही, उनके भाषणों को भी जो वहाँ दिए गए । उसमें उन्होंने संन्यासियों को अपने समान ही लोक-संग्रह का अर्थ-विस्तार उन्हें कर्म-वेदान्त से जुड़ने की सलाह दी थी । वे राष्ट्रीय आंदोलन और किसान आंदोलन में लोक-संग्रह के इसी अर्थ को मूर्त करने की प्रेरणा से जुड़े और निरंतर जुड़ते चले गए । घर-परिवार छोड़ा आरंभ में जिससे सामाजिक पहचान और सहयोगी मिले वह जाति-सभा छोड़ी पर एक बार जुड़ने के बाद अंत तक जो नहीं छूट सका वह था किसान। इसके अन्य तमाम कारण हो सकते हैं, पर एक महत्त्वपूर्ण कारण उनका संस्कार था । वे किसान-कुटुंब में जन्मे थे । उनका परिवार एक खाता-कमाता माध्यम किसान था । उन्होंने परिवार त्यागा पर देस (परिवेश) नहीं त्यागा । वैराग्य के बाद वे विरागी होने के बाद विशिष्ट रागी होते गए । कई अवसरों पर किसानों को उन्होंने भगवान तक कहा है । 

            किसान और उसका आंदोलन स्वामी जी के जीवन का धर्म बन गया । इसे राजनीति कि तुलना में धर्म कहना इसलिए समीचीन है कि यह उनके लिए अस्तित्व का प्रश्न बन था ।  वे तत्कालीन राजनीति की अनेक धाराओं और नेताओं के संपर्क में आए; कांग्रेसी तो वे अंतिम वर्षों तक रहे, सोसलिस्टों से भी एक समय में ताल-मेल बैठाने कि कोशिश की और मार्क्सवाद की सतीर्थ्यता का रंग तो गीताहृदय’, ‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा, ‘किसान क्या करें ?’ ‘किसान कैसे लड़ते हैं?’ आदि पुस्तकों में काफी गहरा है। परन्तु, नीभी किसी से नहीं । सदैव अकेले रहे । निभाती भी कैसे ? कहाँ तो स्वामी जी की किसान में अनन्या आस्था थी और कहाँ दूसरी ओर पार्टियों और उनके धड़ों की किसान राजनीति! कुबेरनाथ राय ने अपनी पुस्तक मराल में और आलोच्य पुस्तक में भी स्वामी जी को जो किसान गुरु कहकर संबोधित किया है, वह इस दृष्टि से सर्वथा तर्क-संगत है । आजके प्रचलित अर्थ में वे नेता नहीं हो सकते । उन्होंने किसानों को संघर्ष की दीक्षा दी, उनका पग-पग पर मार्गदर्शन किया और उनकी उन्नति कि शुभेच्छा से उनसे अंत तक जुड़े रहे । किसान-सभा का रथ बिखर गया, फिर भी (आजादी के बाद) नए धर्म-युद्ध में अंत तक अकेले अभिमन्यु की तरह रथ का पहिया उठाए रहे ।

महाजागरण का शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती कुबेरनाथ राय ने एक विशेष उद्देश्य से लिखी थी। सन् 1990-91 में स्वामी जी के रचना-कर्म को संग्रहीत कर समग्र साहित्य के प्रकाशन की योजना बनी और उसमें कुबेरनाथ राय को भूमिका लेखन की ज़िम्मेदारी दी गई । समग्र साहित्य पाँच खंडों में में विभाजित था और उसके अनुसार ही श्री राय ने पाँचों की अलग-अलग भूमिका लिखी हैं । किन्तु, यह योजना साकार न हो सकी । इसलिए यह भूमिका भी अप्रकाशित ही पड़ी रही। बाद मेंस्वामी सहजानंद सरस्वती कि ग्रंथावली उस पूर्व-योजना से इतर प्रकाशित भी हो गई। किन्तुउनके जीवनकाल या उसके बाद भी यह इतस्ततः पत्र पत्रिकाओं में या इधर-उधर अधूरे रूप में भले ही प्रकाशित हुई; इसका समग्र रूप में प्रकाशन अब तक प्रतीक्षित है ।

          कुबेरनाथ राय के लेखन को देखते हुए यह मानना ठीक नहीं होगा कि इसे उन्होंने केवल किसी योजना या आग्रह के कारण लिखा था । वे मांग आधारित लेखन करने वाले लेखक नहीं थे । इसीलिए उनका समूचा लेखन अत्यंत व्यवस्थित और सूचिन्तित है, यहाँ तक कि ये भूमिकाएँ भी । संभवतः इसका कारण उनके द्वारा उत्तर भारत की किसान-चिंता में स्वामी जी की केंद्रीय उपस्थिति और उसके प्रभाव को भारतीय इतिहास की एक अनिवार्य घटना की तरह देखना ही है । स्वामी जी को महाजागरण का शलाका पुरुष’ कहने का कारण बताते हुए उन्होंने लिखा है—

 

“1889 में महा शिवरात्रि को स्वामी सहजानंद सरस्वती का जन्म हुआ ।....महज कुछ मास पूर्व या बाद में इस भारत वर्ष में पं. जवाहर लाल नेहरू, डॉ. अंबेडकर, आचार्य नरेन्द्र देव और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हेडगेवार महाशय का भी जन्म हुआ था । एक तरह से देखा जाय तो भारतीय इतिहास के उन्नीसवीं शती के पुनर्जागरण के शलाका पुरुषों की यह आखिरी पीढ़ी है । अपने-अपने दृष्टि-भेद और कर्म-भेद के बावजूद ये पाँचों महापुरुष ही भारतीय पुनर्जागरण के शलाका पुरुष रहे हैं और इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के धक्के से इतिहास का चक्र चालित हुआ है । इन पाँचों में स्वामी सहजानंद सरस्वती तो विशेष रूप से उस पुनर्जागरण की विकासशील मानसिकता के सारे परिवर्तनों के सहयात्री रहे हैं ।”

 

इसके अतिरिक्त 1857 के आंदोलन और उत्तर भारत में नवजागण के पीछे कुछ लेखकों ने जो किसानों की भूमिका को भी रेखांकित किया हैउनका प्रतिनिधित्व सन् 1930 बाद सही अर्थों में स्वामी सहजानंद ही कर रहे थे । इसलिए उन्हें नवजगरण (महाजागरण) का शलाका पुरुष कहना तर्कसंगत ही है । अपने सहजानंद शीर्षक पहले लेख में श्री राय ने स्वामी जी की इसी भूमिका को रेखांकित किया है ।

            ब्रह्मर्षि वंश विस्तर का मंथन और हिंदू संस्कार विधि का प्रयोजन और कर्मकलाप दोनों ही स्वामी जी के जीवन के पूर्व-पक्ष से संबंधित लेख हैं। उन्होंने अपने जीवन के दो-फाड़ होने का उल्लेख जहाँ-तहाँ खुद भी किया है— 

पूर्व-पक्ष और उत्तर-पक्ष के रूप में । उनके कुछ भक्तों (जातिवादी)  के लिए पूर्व-पक्ष और कुछ (वामपंथी) के लिए उत्तर-पक्ष महत्त्व और चर्चा का विषय रहा है । इसलिए दोनों ही अपनी-अपनी सुविधा से इसकी चर्चा करते हैं। इसे ही धूर्तश्रद्धा कहा है । दरअसल यह आराम का मामला है । 

इसमें वे स्वामी जी की जय भी बोल लेते हैं और उनकी अपनी जमीन भी सुरक्षित रह जाती है । इस पूरी पुस्तक का महत्त्व ही इस बात में है कि वह अंध-श्रद्धा और धूर्त-श्रद्धा दोनों से मुक्त है । लेखक ने अपनी असहमतियों को दबाया या छुपाया नहीं है; उनके कर्म-योगी रूप के प्रति अपने सम्मान के बावजूद,  खुलकर व्यक्त किया है । इस पूर्व-पक्ष के बिना स्वामी जी की न तो ऐतिहासिक भूमिका तय होती है और न ही पूरा स्केच बन पाता है । और, उसके बिना लेखक की यह स्थापना भी भला कैसे प्रमाणित हो पाती कि — उस पुनर्जागरण की विकासशील मानसिकता के सारे परिवर्तनों के सहयात्री रहे हैं

            गीताहृदय और मार्क्सवाद श्रीमद्भगवत गीता पर स्वामी सहजानंद का भाष्य है, जिसकी भूमिका में उन्होंने मार्क्सवाद और गीता की स्थापनाओं में साम्य दिखाने की कोशिश की है और शंकराचार्य तथा अपने भाष्य को तिलक के भाष्यों से विलक्षण बताया है । 

कुबेरनाथ राय की स्वामी जी से असहमति बहुत-साफ साफ देखी जा सकती है। जिस तरह से गीता हृदय की भूमिका में स्वामी जी की शास्त्रार्थ-प्रतिभा का साक्षात्कार होता हैउसीतरह यहाँ कुबेरनाथ राय की आलोचकीय प्रतिभा का। वे स्वामी जी और मार्क्सवाद दोनों के सामने अपनी आस्तिक बुद्धि और और खाँटी भारतीय मनोरचना के साथ अकेले अड़े हुए हैं। 

अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वामी जी ने तत्कालीन वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण उक्त पुस्तक में गीता को ठोंक-पीट कर बैठाने कि असाध्य चेष्टा भर की है; वह भी केवल भूमिका में । बाकी तो बस शांकर अद्वैत वेदांती  और कर्मयोगी का भाष्य है । स्वामी जी गीता ने यहाँ स्वयं जिए गए कर्म-योग को, अर्थात् उनके अपने जीवन में भोगी गयी गीता को द्वापरकालीन गीता से जोड़ने का प्रयास कर रहे थे । यहाँ उनकी मूल स्थापना है कि वे आजीवन हथियार गढ़ते रहे, किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर । एक से एक तेज धारदार हथियार । उनका हर ग्रंथ सामाजिक भूमिका लेकर उतारा है । परंतु, हर ग्रंथ के भीतर वे स्वयं भी स्थित हैं अपने स्वानुभूत यथार्थ के साथ । गीता हृदय भी इसका अपवाद नहीं । इसे वे सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति के हथियार के रूप में रचते हैं ।”

            सहजानंद का किसान साहित्य’ में स्वामी जी के उस साहित्य की चर्चा है, जिसे उन्होंने अपने आंदोलन के नीति-निर्देशन या पुनरावलोकन के लिए लिखा। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उनकी आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष तथा क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा। इनमें से पहली को कुबेरनाथ राय ने सिंहावलोकन कहा है और इस शब्द-बिम्ब कि व्याख्या भी की है । यह व्याख्या और बिंब सचमुच स्वामी सहजनन्द सरस्वती के व्यक्तित्व और कर्म के सर्वथा उपयुक्त है । दूसरी बात जो लेखक ने कही है वह यह कि यह आत्मकथा न होकर आत्म-जीवनी है । स्वामी जी ने इसे अपने जीवन और किसान सभा तथा राजनीति से जुड़ी घटनाओं के ब्योरे तक ही सीमित रखा है, इसलिए लेखक को निजता का अभाव  यहाँ खटकता है और एक विधा के रूप में आत्मकथा की जो विशेषता है, वह नहीं पाता। 

आत्मजीवनी कहने का अर्थ केवल इतना ही है कि आत्मकथा में जो अंतरंगता होनी चाहिए, वह इसमें नहीं है । लेकिन, लेखक इसे आजादी के दौर के कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेजों में शुमार करता है । जिस अर्थ में स्वामी जी की ऐतिहासिक भूमिका असंदिग्ध है, उसी अर्थ में उनकी आत्मकथा की भी ।

            क्रांति और संयुक्त मोर्चा की आलोचना में कुबेरनाथ उसी मुद्रा का सहारा लेते हैं, जिसमें स्वामी जी ने गीताहृदय की  भूमिका में तिलक के सामने खड़े हैं । वहाँ स्वामी जी के हाथ में मार्क्सवाद का डंडा था, पर कुबेरनाथ राय निहत्थे उनसे जूझ पड़े हैं। गुत्थम-गुत्था तो भरपूर ही हुए हैं, लेकिन खेल-भावना का पूरा खयाल रखा है । हालाँकि, स्वामी जी गीताहृदय और मेरा जीवन संघर्ष में दंड-प्रहार करते हुए कई जगह इसे भी भूल गए हैं । क्रांति और संयुक्त मोर्चा में स्वामी जी ने मार्क्सवाद का उत्खाद प्रतिरोपण ही किया है, फर्क यह है कि समुद्रगुप्त राजाओं को जहाँ पराजित करता था, वहीं पुनः स्थापित भी कर देता था । यही था उनका उत्खाद प्रतिरोपण । लेकिन, स्वामी जी ने उखाड़ा कहीं से और रोप भारतीय धरती पर दिया है । कुबेरनाथ राय ने उचित ही रेखांकित किया है कि वे महान सर्वहारा के किसान का ख़याल भी नहीं रखते । यह अनायास नहीं, उनकी कम्युनिस्ट राजनीति के सतीर्थ्य बनने के आग्रह का ही प्रतिफलन था । इन पार्टियों जिन सर्वहारा मिलमजदूरों की बात उस समय कि जा रही थी और स्वामी जी स्वयं जिनके साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कर रहे थे, वे तब संख्या में ही अत्यल्प थे । उनकी तुलना में किसानों की संख्या कहीं अधिक थी । लेखक ने कई बार यह रेखांकित किया है कि यह मैत्री स्वाभाविक न होकर विवश-मैत्री थी जो बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में अनिवार्य-सी हो गई थी । स्वामी जी का कांग्रेस में रहते हुए भी मुख्यधारा के राजनीतिज्ञों से मोहभंग और समाजवादियों के अवसरवादी रुख के बीच और रास्ता भी क्या था ?

            अंतिम लेख महाजागरण के शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद’ दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । एक तो इसमें स्वामी जी के कर्म-पक्ष की आलोचना है, जिसके आधार पर कुबेरनाथ राय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वामी जी किसान गुरु हैं । दूसरा यहाँ इस सवाल का उत्तर  भी मिल जाता है कि स्वामी जी के पास मार्क्सवादी पार्टी से जुड़ाव का  विकल्प क्या था ? वस्तुतः यह उस पराजेय योद्धा की अंतिम नियति का भी व्योरा है, जो अपने लक्ष्य के लिए सभी मोर्चों पर अकेले-अकेले लड़ रहा है । वह न तो किसी से समझौता करना चाहता है और न लक्ष्य से च्युत होना; परिणामतः अपनी समूची ईमानदारी, निष्ठा और सचाई के बावजूद आवाह निरंतर युद्ध कर रहा है और अंत में नए रास्ते और सहचर की तलाश भी उसके लिए युद्ध का विषय बन जाता है । इस पुस्तक को समाप्त करते हुए कुबेरनाथ राय के ही एक अन्य निबंध का शीर्षक जेहन में उभरता है, ‘वत्स! में निरंतर युद्ध कर रही हूँ । यह वाक्यांश ही संभवतः इस पूरी पुस्तक का निचोड़ भी है, जिसे श्री राय ने स्वामी सहजानंद के कृतित्व के माध्यम से पाठकों को दिखने की कोशिश की है। 

स्वामी सहजानंद के लोकनायकत्व का सम्मान के बावजूदकुबेरनाथ राय उन्हें वह सहानुभूति नहीं दे पाए हैं, जो पत्र मणिपुतुल के नाम में गाँधी जी को सहज-लब्ध है। 

लेकिन, इससे स्वामी जी का भला ही हुआ है। अंधभक्तों और एकाकांगी आलोचकों के बीच उन्हें एक ऐसा आलोचक मिला है, जो उनकी एक रेडीमेड छवि बनाने के बजाय पाठकों के सम्मुख उनके व्यक्तित्व की विभिन्न गांठों (Ambiguities) और ऐठनों को खोलकर रख देता है, फिर कबीर की तरह कहता है ऐसा लो नहीं वैसा लो और अंत में यह अनूठा है या नहीं इसका विवेक पाठकों पर छोड़ देता है । एक बहुलता-विश्वासी लोकतान्त्रिक लेखक के लिए यही उपयुक्त रास्ता भी है।