विवेकी राय का भारत ग्रामीण भारत है और उनकी भारतीयता का वास इसी ग्राम्य जीवन के भीतर है। गाँव भारतीय समाज संस्कृति और अर्थव्यवस्था तीनों की रीढ है। भारतीय समाज व्यवस्था की कमजोरियाँ और ताकत दोनों के बीज इसी के बीतर मौजूद हैं। ग्रामीण समाज की व्यवस्था के भीतर ऊँच नीच का जैसा घटाटोप इस व्यवस्था के भीतर है, वैसा नगर जीवन-क्रम नहीं । सामूहिकता और साहचर्य का रूप हमें ग्राम्य जीवन में दिखाई देता है, वह भी अन्यत्र दुर्लभ है। विवेकी राय के निबंधों में इन दोनों ही रूपों के दर्शन होते होते हैं। ‘फिर बैतलवा डाल पर’ निबंध संग्रह के ‘सोने की लूट’ निबंध में किसान (गिरहत्त) और कामगार (प्रजा) के पारंपरिक संबंधों के दर्शन के साथ-साथ ग्रामीण जाति व्यवस्था के संबंध में उनके विचारों का परिचय भी मिलता है— “दरवाजे पर आया तो हलवाहा हल बैल के साथ तैयार मिला। बोला ‘आज विजयादशमी है न ।’ उसका तात्पर्य यह स्पष्ट था । उसे पैसा चाहिए। मिठाई आज वह भी खायेगा। धन्य हैं वह राम जिनके प्रताप से एक दिन के लिए ही इन्हें भी मिठाई खाने को मिल जाती है। दुनिया के सर्व प्रकार के सुस्वाद भोज्य पदार्थों से पूर्णतया वंचित संसार के सबसे महत्वपूर्ण जीव ! मार्क्स-युग के पूज्य-पुरोहित और गाँधी-युग के हरिजन।
विवेकी राय के लेखन से
अपरिचित होने पर इस उद्धरण के अंतिम पंक्तियाँ लेखक की सामंती मानसिकता अथवा
गांधीवाद और मार्क्स्वाद की विरोधि लग सकती हैं, लेकिन लेखक यहाँ भारतीय
समाज की विडंबना और भारतीय राजनीति के कड़वे यथार्थ दोनों को एक साथ व्यक्त करना
चाहता है। समाज का वह अंत्यज वर्ग, जो अस्पृश्यता के दंश को सदियों
से झेलता रहा है, वह केवल महिमामंडन और राजनीतिक नारों से
ऊपर नहीं उठ सकता। उसे ऊपर उठाने के लिए आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता की जरूरत है।
गाँधीवाद और मार्क्सवाद समेत भारतीय राजनीति के तमाम आंदोलन से आगे बढ़ा पाने में
असफल रहे हैं। वे प्रायः उनकी स्थिति का राजनीतिक इस्तेमाल करते रहे। विवेकी राय
ये पक्टियाँ ठीक उसी समय लिख रहे थे जब धूमिल अपनी लम्बी कविता ‘पटकथा’ और ‘मोची राम’ लिख रहे थे। भारतीय राजनीति पर उनकी टिप्पणियों की तुलना में विवेकी राय
की ये टिप्पणियाँ अधिक सभ्य और शालीन हैं।
विवेकी राय गँवई लेखक हैं। वे बडे-बडे नारों. स्लोगनों या ग्राम्यजीवन से अपरिचित उपमानों का प्रयोग प्रायः नहीं करते। इसी लिए ग्रामीण कामगार वर्ग की बदहाली का चित्र खींचते हुए उसी वर्ग के सुपरिचित मिथकों को उपमान बनाते हैं, ”यहाँ तो भूख का रावण, गरीबी का मेघनाद और मूर्खता का कुंभकरण पूरे ज़ोर पर है। रामराज्य दूर है। श्रमिक देवता खून दे-देकर एक क्षीण-प्राण हो रहे हैं। पूरी दुनिया लंका हो गई है। एक ओर सोने का संसार है, दूसरी ओर दानवी चक्र में पीसी गरीब प्रजा के आंसुओं का समुद्र है। कहाँ है मानवता? कहाँ है धर्म ? कहाँ है मानवीय गुण?”
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