हिंदी दिवस पर हिंदी के संवैधानिक अधिकार, अन्य भारतीय भाषाओं के बीच स्वीकृति-अस्वीकृति के साथ अंग्रेजी के पैरोकारों की चर्चा खूब होती है। ये भारत की स्वतंत्रता के बाद पैदा किए गए सवाल हैं। हिंदी का संघर्ष और इसका विरोध उससे अधिक पुराना है। आजादी के बाद हिंदी हिंदुस्तानी का झगड़ा और इससे भी पहले भारतेंदु के दौर के हिंदी-उर्दू का विवाद भी बहु उल्लिखित है। लेकिन सूफी कवि नूर मोहम्मद की चर्चा थोड़ी कम होती है, जिन्होंने हिंदी में सूफी काव्य को समृद्ध किया। उनके सहधर्मियों ने उनके हिंदी प्रेम को हिंदू हो जाने के रुप में प्रचारित किया और उन्होंने जवाब दिया:
जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥
नूर मुहम्मद किसके सवालों से अपना बचाव कर रहे थे और किसके दबाव में 'अनुराग बांसुरी' में ऐसी बातें लिख रहे थे कि
निसरत नाद बारुनी साथा । सुनि सुधि चेत रहै केहि हाथा॥
सुनतै जौ यह सबद मनोहर । होत अचेत कृष्ण मुरलीधार॥
यह मुहम्मदी जन की बोली । जामैं कंद नबातैं घोली॥
बहुत देवता को चित हरै । बहु मूरति औंधी होइ परै॥
बहुत देवहरा ढाहि गिरावै । संखनाद की रीति मिटावै॥
जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात।
तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात॥
सांप्रदायिकता हमारे देश में अभी नई नई नवेली आयी है और हमारे देश की गंगा जमुनी तहजीब को नष्ट कर रही है। आज से ठीक 200 साल पहले नूर मुहम्मद के सामने जो खडे थे या जो नूर मुहम्मद यहां स्वयं लिख रहे थे तो वे कौन थे?
बात हिंदी की स्थिति और संघर्ष की हो तो भारतेंदु और आजादी की ही नहीं उनसे पहले के संघर्ष को भी याद करना चाहिए। इसके सांप्रदायिकता विरोधी चरित्र को भी याद करना चाहिए। हिंदी का महत्व राजभाषा घोषित होने में नहीं, उसके जनभाषा के रुप में कई सदियों से भारतीयों के मन मस्तिष्क पर राज करने वाली भाषा होने में है। यह अपने आरंभ से ही सत्ता नहीं संघर्ष की भाषा रही है। इसका महत्व ऑफिस में बैठा वेतन जीवी कर्मचारी न कभी समझ सका है और न समझ सकेगा।
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