भारतीय परंपरा सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का निवास मानती है । समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव । दूसरे शब्दों में, यह सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना चाहिए । लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है । गांधी ने लोभ के विषय में लिखा है,जो लिखा है उसे पढ़कर यह मान्यता अधिक पुष्ट ही होती है । उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी उसकी भूख होती थी । लेकिन, अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त है। वस्तुतः यह मनुष्य के भीतर बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी । गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है । गांधी ने यह बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है; उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है । प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई, मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की उपज और मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर हिंसक प्रहार है । सच कहा जाए तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है । हमारे द्वारा छोड़ी गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी;बल्कि संभव है, उनके शैशव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें । इसलिए हमें अपनी उस लोभ-वृत्ति और हिंसा-वृत्ति को रोकना होगा जिसकी फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंस लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही, अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव भी इसके भीतर समाहित रहता है ।
अनायास ही भारतीय चिंतन अहिंसा की दुंदुभी बजाता हुआ विश्व में चेतना की प्रसार-यात्रा पर नहीं निकलता है, बल्कि उसको बल मिलता है, भारतीय मानस में प्रकृति-मनुष्य के साहचर्य के प्रति गहरे स्वीकार-भाव से । प्रकृति-मानव-साहचर्य के प्रति स्वीकार-भाव ही मनुष्य में मनुष्य के प्रति सहिष्णुता, रागात्मकता और सह-अस्तित्व का भी बीज है । डी. डी. कोसम्बी जब भारतीय संस्कृति को याद करते हैं तो उनके जेहन में पहला सवाल यही उठता है कि वे कौन से कारण थे कि दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में रक्त-रंजित क्रांतियाँ नहीं हुईं ? उनका ध्यान सहज ही आ अटकता है, भारत की शस्य-श्यामला धरती पर और वे कह उठाते हैं कि ‘यहाँ अन्न-जल की कमी नहीं थी इसलिए मनुष्य ने रक्तरंजित क्रांतियाँ नहीं कीं, बल्कि इस भूमि पर बौद्धिक क्रांतियाँ हुईं’। एक बात वे कहना भूल जाते हैं कि रक्तरंजित क्रान्ति का न होना अन्न-जल की अपर्याप्तता के कारण ही नहीं हुआ, बल्कि इस सरस भूमि की सरस चेतना के रागात्मक प्रवाह ने कठोर भावों की जगह मृदु भावों को अधिक खाद-पानी दिया । विश्व में प्रेम और करुणा का संदेश भारतीय ज्ञान-साधना के प्रतीक के रूप में अनायास ही नहीं फैले, बल्कि भारत के प्राकृतिक परिवेश ने उसे अपनी कुक्षि में धारण कर अनंत काल तक विकसित और पुष्ट भी किया । यूनान की महान सभ्यता को याद करें तो उसके विनाश के बीज उसकी उदात्त वीरता के भीतर निहित थे, जिसकी अभिव्यक्ति होमर के काव्य में सहज-लब्ध है । पर, भारत की सांस्कृतिक अजेयता उसके माधुर्य की देन है । हमारे यहाँ अकेले-अकेले वीरता अनैतिक है, उद्दंड है, अस्वीकार्य है । दुर्योधन, बालि, हिरण्याक्ष,मेघनाद कोई भी यूनानी काव्य-नायकों से कम वीर नहीं है, पर भारतीय मानस ने उन्हें नायकत्व का मान न दिया । क्यों ? क्योंकि, उनमें माधुर्य न था;करुणा न थी, प्रेम न था, दया न थी । अपनी तितीक्षा और सत्य-वीरता के बावजूद युधिष्ठिर भी वह मान न पा सके । भारतीय मानस में नायकत्व का गौरव राम को मिला, अर्जुन को मिला, कृष्ण को मिला । अब आप कहेंगे भला इसका प्रकृति से क्या वास्ता ? जी हाँ, है । जरूर वास्ता है प्रकृति से । ऐसा इसलिए हुआ कि भारतीय युयुत्सु न थे । उन्हें मंगोलिया, अरब या जर्मनी मनुष्यों की-सी कठोर प्रकृति का सानिध्य नहीं मिला था । उनकी प्रकृति और परिवेश शांत थी, कोमल थी और इसलिए उनके मन में पलने वाले भाव भी कोमल थे । हमारी परंपरा में वीरत्व या सत्यनिष्ठा की उपेक्षा नहीं, बल्कि सम्मान है । लेकिन, उसमें करुणा और प्रेम का सन्निवेश अपरिहार्य है । मनु (यद्यपि आजकी दृष्टि से वे अपनी प्रतिगामिता के लिए अधिक ख्यात हैं) सत्य को प्रियता के सायुज्य भाव में ही स्वीकार किया है— “सत्यं ब्रूयाद्प्रियं मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम ।” आचार्य शुक्ल जैसे आधुनिक विद्वानों ने तो वीरता का विस्तार भी दान-वीर जैसे भावों के साथ जोड़कर किया है, जिनकी प्रेरणा में करुणा जैसी मधुर-वृत्ति सहज ही मौजूद है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें