कला मानवीय चेतना के उदात्त्ततम और उदारतम रूप की अभिव्यक्ति है . मनुष्य जो भी श्रेष्ठ और सनातन मूल्य अर्जित करता है उन्हें वह अपने विभिन्न कला रूपों में संग्रहित, संरक्षित और अपने वंशजों की ओर प्रवृत्त करता है. इसी अर्थ में कला संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण और सुंदरतम घटक है, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, विद्या, संगीत, नृत्य तथा जीवनोपयोगी कौशल आदि मनुष्य द्वारा अर्जित उपादान, उसकी संस्कृति को आकार देते हैं और कला उसी संस्कृति का परिष्कृत और अभिव्यक्त रूप है. इसीलिए भारतीय ज्ञान परंपरा इसे आत्मसंस्कार का माध्यम मानती है: आत्मसंस्कृतिर्वावशिल्पानि. छंदोमयं वा. इतैर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते. (अर्थात्, छंद और शिल्प यानि काव्य और कला आत्मसंस्कार का माध्यम है).
यदि प्राचीन वैदिक शब्दावली का आधार लें तो संस्कृति को हम ऋत और कला को धर्म कह सकते हैं. जिस तरह ऋत, धर्म और आध्यात्म अव्यक्त सत्य के त्रिगुणात्मक रूप हैं, उसी तरह संस्कृति की प्रत्यक्ष अनुभूति साहित्य, कला और संगीत के त्रिक के रूप में होती है. जो अनृत् है, धर्म विरुद्ध है या आत्मा का परिस्कार नहीं करता वह असत्य है. उसी तरह जो साहित्य कला और संगीत से हीन है, वह असंकृत है; पशुवत है:
साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥
साहित्य, कला और संगीत को भारतीय मानस एक साथ रखता आया है और उन्हें ही मनुष्य की मनुष्यता के मूल्यांकन का मानदंड मानता है. चित्रकला, वास्तुकला, संगीत कला, नृत्य कला, अभिनय कला, काव्य कला आदि के रुप में विभिन्न विशेषणों के साथ प्रयुक्त 'कला' अपने विशेषीकृत रूप और अपनी व्याप्ति दोनों को व्यक्त करती है. इसकी व्याप्ति जीवन के संपूर्ण कार्य व्यापार में है मानवीय क्रियाकलाप का कोई भी प्रत्यक्ष या मानवीय चेतना का कोई भी अमूर्त रूप बिना कला के अधूरा है. सृष्टि में जो भी व्यक्त-अव्यक्त अथवा गोचर-अरगोचर है, वह कला का विषय है. जीवन व्यापार के लिए आवश्यक शिल्प हों या दर्शन और अध्यात्म. कला की गति इन सभी में समान है.
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