जीवन हमेशा उत्तान होकर नहीं चलता। जब-तब जहां-तहां करवटीयाता रहता है। अगर ऐसा न हो तो अच्छे खासे आदमी का हाजमा खराब हो जाय। लेकिन जब वह बात बे बात करवटियाया ही रहे तो गंभीर समस्या हो सकती है। पिछले कुछ सालों से मौसम भी ऐसे ही लगातार करवटिया रहा है। प्रकृति भयंकर पीड़ा में है। वह बेचैन है, पर हमें क्या? अब तो मनुष्य की घुटती हुई सांसे भी हमें बेचैन नहीं करती। हम उसके भी अभ्यस्त होते जा रहे हैं। पहले प्रकृति हमारी अदम्य इच्छाओं की पूर्ति का टूल थी अब मनुष्य स्वयं उसका टूल है। कृत्रिम सूरज और कृत्रिम बरसात तक हम पहुंच चुके हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स मनुष्य बुद्धि और क्रिया के विकल्प बन चुके हैं। आर्टिफिशियल जीवन और सामाजिकता तो पहले ही जी रहे हैं।
शोध बता रहे हैं कि भूगर्भ के असीमित जल दोहन से पृथ्वी के झुकाव में बदलाव आ रहा है। इस लिए किउम्मीद है हम जल्द ही नई धरती भी बना लेंगे। लेकिन यह सब कब तक चलेगा? मनुष्य के अंत या धरती के अंत तक ? क्या तब भी कोई मनु कामायनी के मनु की तरह अपनी जाति और संस्कृति के विनाश पर इस तरह विलाप करता हुआ मिलेगा :
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में;
भोले थे, हाँ तिरते केवल,
सब विलासिता के नद में।
1 टिप्पणी:
अच्छी अभिव्यक्ति
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