आर्द्रा मेरी दूसरी पसंदीदा नक्षत्र है। कालिदास के यक्ष की रामटेक की पहाड़ियों पर मेघ आषाढ़ के पहले दिन भले आ जाते हों:
आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
पर अपने पूर्वांचल के गंगा मैदान में तो उनके कदम अक्सर आर्द्रा में ही पड़ते हैं। मृगशिरा के ताप से ताई हुई धरती पर वर्षा की पहली बूंदें अक्सर आर्द्रा में ही पड़ती हैं और उसकी सोंधी महक चारों ओर बिखर जाती है। समूची प्रकृति जीवन गंध से मह महा उठाती है और धरती की कुक्षी में सोए हुए बीज सहसा उसकी गोद में मुस्कुराने लगते हैं। यह मृगशिरा की लपटों से धरती के उद्धार की नक्षत्र है, जो प्रकृति में जीवन रस का संचार करती है। यह तृण-तरु सबको जीवन देती है, सबको आनंद और सुख बांटती है चाहे अपनी अकड़ में तना हुआ ताड़ हो या कहीं भी पसर जाने वाली लथेर दूब। अपन भी इस दूसरी कोटि में आते हैं सो हम भी जी भरकर पसरने का आनंद लूटते हैं।
इस के प्रिय होने का मेरे लिए एक अन्य कारण भी है। इस ऋतु का स्वागत हमारे घरों में खीर से होता है और विदाई पकवानों से। पुराने समय में बेटियों को अपने मायके से तीज की तरह ही आर्द्रा की बहँगी की भी प्रतीक्षा रहती थी। मुझ जैसे पेटू और रस लोभी व्यक्ति के लिए और क्या चाहिए? पावस और पायस की इतनी अच्छी संगति भला और कहां मिलेगी ? शायद इसी लिए नियति ने मुझे जन्म भी इसी अवधि में दिया। फिर पेटूपन और रसलोलुप होने में मेरा क्या दोष?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें