मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

राष्ट्र का धर्म और धर्म का राष्ट्र

 

आधुनिक समजसुधारकों के उत्तराधिकारियों तथा महात्मा गांधी के अनुयायियों को भी धर्म में उलझन दिखायी पड़ी और ‘संस्कृति’ एक ‘सेक्युलर’ पद के रूप में अधिक अनुकूल लगी और वे अंग्रेजी के ‘कल्चर’ के समानांतर उसके भारतीय अनुवाद की तरह इसका इस्तेमाल करने लगे। जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधा कृष्णन डी डी कोशाम्बी,  दिनकर प्रभृति विद्वानों ने इसपर व्यवस्थित किताबें भी लिखीं। दिनकर सभ्यता और संस्कृति का अंतर बताते हुए यह तो कहते हैं कि ‘सभ्यता वह है जो हमारे पास है और संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं।’ ऐसा लगता है कि उनके मानस पटल पर धर्म की ही आकृति उभरी, पर युगीन संदर्भों के दबाव में वे उसे ‘संस्कृति’ से प्रतिस्थापित कर रहे दिया। जब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसी व्यवस्थित किताब लिखने बैठते हैं तो वे पूरी तरह नेहरू के संस्कृति-बोध से आक्रांत नज़र आते हैं। वे ‘सामासिक संस्कृति’ की बात करते हैं। यह सामासिक शब्द भी संस्कृति की तरह ही गढ़ा गया और भ्रांतिपूर्ण है। यह व्याकरण से आया है। भाषा के विद्यार्थी इससे अच्छी तरह परिचित होंगे। दो शब्दों को जोड़ने वाले चिह्न (हाइफ़न) को सामासिक चिह्न कहा जाता है। इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘सम्’ उपसर्ग के साथ ‘आस्’ धातु में इक प्रत्यय के मिलने से हुई है। जिसका सहज बोध्य या ग्राह्य अर्थ है जोड़ना या साथ बैठाना। इसके लिए कमसे काम दो का होना अनिवार्य है। जिस संदर्भ से इसे लिया गया है, वहाँ समास से बनने वाले पद को समस्त पद कहते हैं, जिनका प्रयोग की सुविधा के लिए विग्रह भी किया जा सकता है। तात्पर्य यह कि सामासिक संस्कृति कहते ही दो की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है, जिनके बीच समास और विग्रह दोनों संभव है। यहाँ भारतीयता के समग्र-बोध में दरार या फाँक रह ही जाती है, जिसके भीतर सांप्रदायिकता का बारूद भरकर जब-तब धमाके किए जाते रहे। भारत-पाक विभाजन से लेकर आज तक जीतने भी सांप्रदायिक दंगे हुए वे इसी कारण से हुए ।  इस समझ ने ही द्विराष्ट्र सिद्धांत को भी हवा दी, जिनके कारण भारत और पाकिस्तान दो राजनीतिक नई इकाइयां बनीं और दोनों अपने को स्वतंत्र राजनीतिक देश बन गए।  अन्यथा सदियों से अनेक राजनीतिक इकाइयों में विभक्त होकर भी भारत एक ही राष्ट्र रहा, जिसकी पहचान थी :

अस्युत्तरस्यां दिशीदेवतात्मा हिमालयोनाम नागाधिराजः।

पूर्वापरो तोयनिधीवग्राह्य: स्थितिः पृथिव्या: इव मानदण्डः।।

       हमारी स्वाभाविक राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति ‘एकम् सत् विप्र बहुधा बहुधा वदंति’ या ‘एकोहं बहुस्याम:’ जैसे आप्त वाक्यों में होती है। जो भारत को बहु राष्ट्रीय या बहु सांस्कृतिक कहते हैं या समझते हैं, उनके लिए राष्ट्र के दो मॉडल हैं एक तो जर्मन-प्रांस की-सी राष्ट्रीयता का जिसमें इकहरापन है और दूसरा अमेरिका, कनाडा, यू के जैसे देशों का ‘संयुक्त’ राष्ट्रीयता। सामासिक संस्कृति में मुझे इसी संयुक्त-संस्कृति की ध्वनि सुनाई पड़ती है।

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