बुधवार, 28 नवंबर 2018

छायावादेतर काव्य: स्वतन्त्रता आंदोलन का संवेदनात्मक इतिहास

 राजीवरंजन

इतिहासकार विपिन चन्द्र ने ‘एसे आन इण्डियन नेशनलिज्म’ की भूमिका में लिखा है, “स्वतन्त्र भारत व्यापक स्तर पर ‘स्वराज’ के आदर्शो द्वारा निर्देशित रहा है, जो स्वतन्त्रता सेनानियों की पीढी द्वारा अर्जित है। भारतीय स्वतन्त्रता अन्दोलन विश्व इतिहास का एक महानतम जन-आन्दोलन था, प्रायः, विशेष रूप से 1919 के बाद, .......... वे इतिहास के विषय हैं, वस्तु नहीं।”1,  किसान नेता सहजानन्द सरस्वती ने भी अपने एक लेख में 1919 ई.भारतीय राजनीति की विभाजक रेखा माना है। उनके अनुसार, यह भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी की सक्रियता का आरंभ विन्दु है। आगे उन्होंने लिखा है, “उनने गांव की ओर..... मुंह मोड़ा और जन आन्दोलन की भेरी बजाई।...उनके चलाए इस विराट् जनांदोलन के फलस्वरूप शोषित पीडित जनता के बहुतेरे स्वतंत्र आन्दोलन महाकाय होकर चल पड़े।”2, उनका यह बयान इसलिए महत्व रखता है कि वे स्वयं भी इसी आंदोलन की उपज थे। इन दोनों उद्धरणों यह स्पष्ट हो जाता है कि 1919 भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की एक विभाजक रेखा है जहां से इस आन्दोलन की व्याप्ति और गहराई भारतीय जनता के हर स्तर तक संभव हुई। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों के अनुसार छायावाद युग का प्रस्थान विंदु भी इसी के आसपास है।
            हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में छायावाद एक स्वीकृत और मान्य पद है । इतिहासकारों ने इसे एक युगविशेष की प्रवृत्ति मानते हुए आधुनिक हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण युग का नामकरण ही छायावाद युग कर दिया है । ऐसा करते हुए उन्होंने यह भी बता दिया है कि उस युग के और से कवि छायावादी हैं । इस क्रम में प्रायः बृहत्त्रयी, लघु-त्रयी और चतुष्टयी आदि का उल्लेख किया जाता है।  लेकिन, अधिकांशतः आलोचक छायावाद को  चार प्रमुख कवियों सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और माहादेवी वर्मा तक ही सीमित करके देखते हैं। यही चार ऐसे कवि  हैं, जिनके चारों ओर छायावादी काव्य की अवधारणा और छायावाद युग की पहचान वियकसित हुई है। इसलिए छायावाद युग (सन् 1918-1936 ई.) के दौरान रचनारत अन्य कवियों को या तो फुटकल में रखकर निबटा दिया जाता रहा या पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती युगों के खाते में खतिया दिया गया है, जबकी इस युग में छायावादी-चतुष्टयी के अतिरिक्त दूसरे कवि भी रचना कर रहे थे, जैसे माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चैहान, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, बालाकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि । इस आदि में ऐसे तमाम कवि शामिल हैं जिनका नाम तो नहीं मिलता, लेकिन भारतीय संग्रहालय में कविताएं उपलब्ध हैं। कम-से-कम बीसियों ऐसे कवि हैं, जिनकी रचनाएँ तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने जब्त करा लीं। काव्य की कला की दृष्टि से इनका महत्व हो या न हो, इतिहास की दृष्टि से अपने समय की संवेदना की अभिव्यक्ति और उनके समय की संवेदना की समझ के लिए उनको पढ़ा जाना नितांत आवश्यक है, बिना उन्हें पढ़े समझे या जाने हम उनके समय की घटनाओं, स्थितियों आदि को तो जान सकते हैं, पर उस समय के भारत की मनोरचना का पाठ उनके बिना संभव नहीं हैं ।
            यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने त्रासदी की चर्चा करते हुए कथानक के तीन स्रोतों का उल्लेख किया है- इतिहास, कल्पना और दंतकथाएँ।3, उनके अनुसार  इतिहास तथ्य आधारित होता है और कल्पना रचनाकार की रचनात्मक प्रतिभा का व्यापार। दंतकथाएँ इन दोनों से अलग इसलिए होती हैं कि उनमें सत्य का अंश भी होता है और कल्पना के लिए अवकाश भी। इसलिए ये साहित्य के लिए अधिक अनुकूल हैं। दरअसल, ये दंतकथाएँ किसी समाज के इतिहास की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति होती हैं। साहित्य और इतिहास के बीच फर्क का आधार भी यही है। इतिहास किसी समय और समाज के तथ्यों की प्रस्तुति है और साहित्य उसकी संवेदना की अभिव्यति। इसलिए दोनों अलग-अलग होते हुए भी परस्पर पूरक हैं। साहित्य के अध्ययन के अनेक नए उपागम साहित्य और इतिहास की इस परस्परता को स्वीकार भी कर चुके हैं और साहित्य के आलोचनात्मक पाठ के लिए इतिहास के अध्ययन की जरूरत भी महसूस करते रहे हैं। इस दृष्टि से देखा जाय तो छायावादेतर काव्य का साहित्य के साथ-साथ साथ ऐतिहासिक महत्त्व भी है, क्योंकि  वह स्वतन्त्रता आंदोलन के दौर में रचा गया और छायावादेतर कवियों का दावा तो यहाँ तक है कि “लोग साहित्य को जीवन से भिन्न मानते हैं, वे कहते हैं कि साहित्य अपने लिए ही हो। साहित्य का यह धंधा नहीं कि वह मात्र मधुर ध्वनि निकाला करे......जीवन को हम रामायण मान लें। रामायण जीवन के आरंभ का मात्र नहीं किन्तु करुणा रस से ओत-प्रोत अरण्य कांड भी है। और, धधकती हुई युद्धाग्नि से प्रज्वलिन लंका कांड भी है।”4, साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि - “मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि आपके कवि और राजनीतिज्ञ साथ ही साथ जिन्दा कैसे रह सकते हैं ? मैं कहता हूं भाई! संध्या होती है, शान्ति का राज्य स्थापित हो जाता है तब मैं अपनी बांसुरी ले-लेता हूं और एक तरफ बैठकर सबसे दूर बजाने लगता हूं.......जब प्रभात होता है, विश्व के संहारकों से मुझे लड़ने की आज्ञा मिलती है, तब मैं उसी बांसुरी से रण के नक्करे पर चोट करता हूं और रण-क्षेत्र की ओर कूच कर लेता हूँ। साहित्य ही जीवन की भित्ति है। उसमें रेल गाडी के डिब्बों की तरह अलग-अलग अंगों के लिए स्थान नहीं है।”5, यहाँ कवि आजादी की लड़ाई में एक सेनानी और साहित्य के क्षेत्र में एक रचनाकार इन दोनों भूमिकाओं में अपने व्यक्तित्व को उस बांसुरी के रूपक से व्यक्त करता है जो शांति और युद्ध अलग-अलग भूमिकाएँ निभा रहा है। इस बांसुरी के रूपक का दूसरा संदर्भ इस समय की कविता भी है जिसमें प्रेम और सौंदर्य तथा क्रान्ति दोनों के स्वर एक साथ मौजूद हैं ? कभी-कभी यह कवि के भीतर के द्वंद्व6, या विवशता7, के स्वर के रूप में भी व्यक्त हुई है।
            यह केवल छायावादेतर कवियों की विवशता नहीं थी, बल्कि उन तमाम युवाओं और सेनानियों की विवशता थी जो जीवन के सुंदर स्वप्नों को छोड़ कर राष्ट्रीय मुक्ति के वृहत्तर स्वप्न से जा जुड़े थे और मातृभूमि के आह्वान पर अपनी नींद, भूख, प्यास- सब भूल चुके थे। उनके लिए जीवन का मूल्य मातृभूमि की स्वतन्त्रता थी और वे उसके लिए आत्मबलिदान8, के लिए भी तत्पर थे। परतंत्रता गहरी पीड़ा9, और उससे मुक्ती की आकांक्षा10, उस समय कविता का केंद्रीय स्वर था, चाहे वह हिन्दी कविता हो या किसी अन्य भाषा की। मलयालम के प्रसिद्ध कवि कुमारानाशान की प्रसिद्ध कविता ‘सीता’ की ये पंक्तियाँ इसका उदाहरण हैं-
पशुओं को भी बहुत कष्ट उठाना पडता है
किन्तु वह अधिक देर तक नहीं रहता,
केवल मानव अत्यंत पीडा पाता है
जो घायल गर्व से उपजती है ।11,
            इस ‘घायल गर्व’ की अभिव्यक्ति छायावादेतर कविता में कभी आत्म-गौरव के गान  में होती है तो कभी आत्माधिक्कार12, और कभी आह्वान13, के रूप में ।
            यह अनायास नहीं कि माखनलाल चतुर्वेदी वीणा और वांसुरी जैसे संगीत में मधुरता लाने वाले वाद्यों का अपनी कविता में बार-बार प्रयोग कराते हैं, लेकिन यहाँ वह या तो वह भारत की जनता की विवशता का प्रतीक बनाते हैं या क्रान्ति-स्वर के। इसका कारण यह है कि पूर्व-परंपरा में माधुर्य और रस-चर्या का आधान माना जाने वाला काव्य उस समय अपनी परंपरागत विशेषता को छोड़कर एक नया रूप ले रहा था। यह प्रक्रिया अनायास रूप से घटित नहीं हो रही थी, बल्कि यह एक सचेत प्रक्रिया की देन थी। अपने समय के सत्य का अहसास और उसके प्रति उसकी व्यग्रता को दिनकर की  इस कविता में देख सकते हैं-
व्योम कुंजों की परी अयि कल्पने !
भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं,
उड न सकते हम धुमैले स्वप्न तक
शक्ति हो तो आ बसा अलका यहीं।14,
            इसका अर्थ यह नहीं कि यहाँ कल्पना का पूरी तरह नकार है, बल्कि कल्पना से भी जीवन और जमीन के यथार्थ से जुडने की अपेक्षा है। यहाँ वायवीय कल्पना का निषेध है, जो व्योम कुंजों की परी है, जो जीवन के सहज संदर्भों से अर्थात अपने समय सचाई से जुड़ी है उसका नहीं। इस जीवन और समाज को सुंदर बनाने में उसका उपयोग कवि का काम्य है- ‘शक्ति हो तो आ बसा अलका यहीं’। यह स्वप्न आजाद भारत का स्वप्न था।  इसलिए इस दौर की कविताएं अपने समय के यथार्थ को ही व्यक्त नहीं करतीं हैं, भविष्य भारत का स्वप्न भी रचती हैं। यह स्वप्न तत्कालीन भारतीय जनता की आँखों से देखा गया है, कवि ने उसे अभिव्यक्ति-भर दी है। यह प्रवृत्ति लगभग सभी छायावादेतर कवियों में दिखाई देती है। उदाहरण के लिए इस कविता को देखा जा सकता है-
                                                 श्रेष्ठता का होवे नाश दमकता हो समानता तत्त्व,
                                                देश के अंग नहीं मार जाएँ प्राप्त हो पूरा-पूरा स्वत्व।15,
            श्रेष्ठता बोध पर समता आधारित समाज को वरीयता निस्संदेह एक बड़ा स्वप्न है जिसे छायावादेतर काव्य ने परतंत्र भारत में स्वतन्त्रता के बाद के भारत के लिए एक बड़े स्वप्न के रूप में प्रस्तुत किया है । यह स्वप्न उस नवजागरण कालीन चेतना का उत्तराधिकार है जो भारत में जाति-वर्ण की विषम जमीन को तोड़कर एक समतामूलक समाज का बिरवा लगा गई थी । यह धीरे-धीरे भारतीय मानस में एक वृक्ष का आकार ले रहा था । गांधी के आगमन और भारतीय राजनीति में मजदूरों और किसानों की सहभागिता ने इस विश्वास को और अधिक पुख्ता कर दिया था । 1930 के आस-पास भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव उस नई पीढ़ी के रूप में आया जिसका नेतृत्व समाजवादी विचारों वाले नेता कर रहे थे । उसने इस स्वपन को कहीं अधिक सुंदर बनाया और साथ ही उसे वैश्विक फलक के साथ जोड़कर उसे मानवता के स्वप्न में बदल दिया । इन कवियों के स्वप्नों में वैश्विक स्तर पर दीन हीन लोगों की मुक्ति और भारत की राजनीतिक मुक्ति में एकात्म स्थापित हो गया-
दीन हीन उठ बैठें जग के, टूट पड़ें अघ के जग सारे
पुण्य बैजयंती फहराई जय-जय भारत वर्ष हमारे।16,
            उनकी ललकार केवल ब्रिटिश साम्राज्य तक सीमित नहीं रही, बल्कि समूचे साम्राज्यवादी और अधिनायकवादी तंत्र के लिए चेतावनी का स्वर बन गई-
दुनिया के ‘नीरो’ सावधान दुनिया के पापी ‘जार’! सजग ।
जानें किस दिन फूंफकार उठें पद-दलित काल सर्पों के फन ।
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन ।17,
            यह विश्व-दृष्टि नई और बदलती हुई राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित जरूर है, लेकिन एकदम नई नहीं है। रंग-भेद के विरुद्ध महात्मा गांधी द्वारा चलाए जाने वाले आंदोलन और अहिंसा तथा आत्मिकबल पर माखनलाल चतुर्वेदी ने कविता18, लिखी और इस अहिंसक आंदोलन के प्रभाव की  व्यापकता को रेखांकित करते हुए इसे मानव-मात्र की मुक्ति से जोड़ा इसी तरह एक दूसरी कविता में उन्होंने सामाजिक असमानता और देशी धनाड्यों और पूंजीपतियों पर टिप्पणी करते हुए कहा-
रे भाई मदमाते भाई !
सबल बिलोक चरण चुंबनरत
निर्बल देख सताते भाई
रे भाई मदमाते भाई !19,
यह भारतीय समाज के भीतर सामाजिक विषमता के विरु) जन्म लेती असहमति की ही काव्य में अभिव्यक्ति है। यह कविता 1921 की है। यह वही दौर है जब महात्मा गांधी भारतीय राजनीति के एक मुख्य नायक के रूप में उभर रहे थे। चंपारण और खेड़ा के सत्याग्रह ने उन्हें लोकमानस में ‘महात्मा’ के रूप में प्रतिष्ठित करा दिया था। गांधी के आह्वान पर बड़ी संख्या में किसान कांग्रेस और आजादी के आंदोलन से जुड़ रहे थे। इसलिए उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति कविता में न होना आश्चर्य का विषय होता। गैरबरबरी और शोषण की यह समझ स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त थी। इसी दौर से जुड़े अनेक राजनीतिज्ञों और कार्यकर्ताओं ने तीस के बाद की राजनीतिक पीढ़ी के साथ खड़े होकर किसानों और मजदूरों का आंदोलन किया और सोसालिस्ट विचारों की ओर प्रवृत्त हुए। स्वयं  छायावादेतर कवियों ने भी उस दौर में अनेक ऐसी कविताएं लिखीं जिसमें रूसी क्रांति और उसके मूल्यों का समर्थन दिखाता है। वस्तुतः यह प्रवृत्ति किसानों और मजदूरों की राजनीतिक भूमिका की गांधी-नीति की ही प्रतिफलन है, जिसे आगे चलकर समाजवादी जमीन मिल गई। यह अनायास नहीं कि आजादी के दौर के भारतीय राजनीति के जयप्रकाश नारायण और लोहिया या उन जैसे तमाम समाजवादी नेता गांधी को ही अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन और दिनकर की तमाम कविताएं, जिनमें मानवतावाद, शोषण का विरोध और उसके प्रति गहरा आक्रोश है, वे इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति का बढ़ाव या विस्तार हैं। इसलिए प्रगतिवाद की समकालीन और समधर्मी होती हुई भी ये कविताएं प्रगतिवाद की चैहद्दी से बाहर खड़ी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की घोषणा करती हैं। उदाहरण के लिए नवीन की ‘जूठे पत्ते’ कविता का ये अंश देख सकते हैं-
लपक चाटतै जूठे पत्ते, जिस दिन मैंने देखा नर को,
उस दिन सोचा क्यों न लगा दूँ, आज आग इस दुनिया भर को,
यह भी सोचा क्यों न टेंटुआ, घोटा जाय स्वयं जगपति का,
जिसने अपने ही स्वरूप को, रूप दिया इस घृणित विकृति का20,,

या फिर, दिनकर की ‘विपथगा’ कविता का यह अंश भी देखा जा सकता है-
दलित हुए निर्बल सबलों से, / मिटे राष्ट्र उजडे दरिद्र जन,
आह! सभ्यता आज कर रही / असहायों का शोणित शोषण।
धन पिशाच के कृषक मेघ में / नाच रही पशुता मतवाली,
आगन्तुक पीते जाते हैं /दीनों के शोणित की प्याली।
बरस ज्योति बन गहन तिमिर में, / फूट मूक की बनकर भाषा,
चमक अंध की प्रखर दृष्टि बन, /उमड गरीबी की बन आशा।
गूंज शान्ति की सुखद सांस-सी / कलुषपूर्ण इस कोलाहल में,
बरस सुधामय, कनक-वृष्टि-सी /ताप-तप्त जग के मरुथल में ।21,

नवीन की कविता में क्षोभ का जो स्वर है उसकी तुलना जयशंकर प्रसाद के उपन्यास कंकाल के पात्र विजय की उस समय की मनःस्थिति से की जा सकती है, जब वह भंडारे का उच्छिष्ठ लूटते हुए चांडालों और उनसे जूझ कर अपने लिए कुछ हिस्सा पाने की कोशिश करती हुई तारा को देखकर होती है। वह पूरी तरह उद्विग्न हो उठता है और मंगल देव से इस सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था के प्रति अपने रोशपूर्ण उद्गार व्यक्त करता है। यही नहीं जब अज्ञात कुल-शील तारा को निरंजन देवगृह में प्रवेश से रोकता है तो वह विद्रोह कर उठता है और मंगलदेव को वाराणसी से हरिद्वार वापस होना पड़ता है। यह विद्रोह जिस तरह प्रगतिवाद की पूर्वपीठिका है, वैसी ही नवीन और दिनकर की कविताएं भी।
ये सभी समेकित रूप से उस समय भारतीय समाज में तैयार हो रही विषमता के विरोध की स्वाभाविक जमीन के ही अलग-अलग प्रतिविम्ब हैं। इन्हें एक साथ जोड़कर उस समय के भारतीय लोकमन को समझा जा सकता है। यह वही लोक मन है जिसने भगत सिंह जैसे युवा क्रान्तिकारियों को जन्म दिया और उन्हें राजनीतिक बोध के स्तर पर मार्क्सवादी विचारों के करीब ले गए। साहित्य में प्रगतिवाद के लिए भूमिका रची और प्रेमचंद जैसे उपन्यासकारों को आदर्शवाद से यथार्थोनमुख आदर्शवाद के रास्ते यथार्थवाद की ओर यात्रा के लिए प्रेरित किया।
इसलिए यह अनायास नहीं कि छायावादेतर काव्य में अपने समय के यथार्थ से कहीं गहरा लगाव दिखाई देता है। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो इसमें गांधीवादी और क्रांतिकारी दोनों तरह के स्वर एक साथ मिलते हैं। कहीं-कहीं क्रांतिकारी स्वर अधिक प्रबल हो उठता है, विशेष रूप से मुख्य-धारा की कविताओं से अलग उन कविताओं में जो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गईं थीं। यह ततत्कालीन भारतीय मानस के द्वंद्व को दिखातीं हैं, जो हिंसा और अहिंसा दोनों मार्गों को लेकर संशय में था  बल्कि, सामान्य जन में क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति बढ़ रही थी। भगत सिंह की शहादत के आस-पास इस तरह की कविताओं की बाढ़ आ गई।             
            भगत सिंह को 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय विधानसभा में बम पफेंकने के अपराध में गिरफ्तार किया गया और 23 मार्च 1931 को उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ फाँसी दे दी गई। इस दौर में हिन्दी में क्रांतिकारी गीतों के अनेक संकलन प्रकाशित हुए, जैसे- ‘आजाद भारत के गाने’ (1930), ‘शहीदों की यादगार’ (1931), ‘गाँधी गीत सागर’ (1930), ‘आजादी का चमत्कार’ (1930, ‘आजादी की तरंग’ (1931) ‘बेकसों के आँसू’ (1931) ‘भारत का महाभारत’ (1931) तथा ‘चमकता स्वराज्य’ (1931) आदि। इसके अतिरिक्त 1930 में ‘हिन्दू पंच’ ने ‘बलिदान अंक’ प्रकाशित किया था। कई कविताएँ तो भगत सिंह को केन्द्र में रखकर लिखी गई। ‘फाँसी लाहौर की उर्फ भगत सिंह का तराना’ इस बात का एक सुन्दर उदाहरण है। यह पूरी पुस्तक ही भगत सिंह और उनकी पफाँसी पर केन्द्रित थी जिसे आपत्ति जनक मानकर औपनिवेशिक सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी संग्रह में प्रभु नारायण मिश्र की ‘भगत सिंह’ शीर्षक एक कविता प्रकाशित हुई थी, जिसका एक अंश यहाँ उद्धृत किया जा रहा है-
तूने चमन को है सींचा लहू से।
कहाँ जा बसा होके न्यारा भगत सिंह।।
मगर देश के लिए जान दे दी।
              बड़ा शान तेरा हमारा भगत सिंह।।22,
            यह तत्कालीन भारतीय समाज के मनोजगत की काव्य में अभिव्यक्ति का एक प्रामाणिक उदाहण है। गांधी तो इस पूरे दौर के लोकनायक और काव्यनायक ही थे। चरखा, खादी और स्वदेशीजैसे प्रतीक भी काव्य के लोकप्रिय विषय रहे हैं ।
            छायावादेतर काव्य भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन के समानान्तर रचा जाने वाला काव्य था। इसमें उस दौर की सामाजिक राजा नेएटैक घटनाओं के व्योरे साहज ही देखे जा साकटे हैं। लेकिन, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह काव्य अपने समय के लोक-जीवन और उसके मानस-व्यापार से भी बहुत गहराई से जुड़ा है। इसलिए यह उसके उसके मानसिक संवेदन की काव्यात्मक   अभिव्यक्ति भी है। इसमें उस दौर के भारतीय मानस, आजादी की लड़ाई की पृष्ठभूमि और उसकी पूर्वपीठिका के रूप में काम करने वाले लोक मन तथा उसके प्रभाव को आसानी से देखा जा सकता है। अतः यह यह भारत की आजादी की लड़ाई का संवेदनात्मक इतिहास है।



1, ‘एसे आन इण्डियन नेशनलिज्म’ हर आनंद पब्लिकेशन, 1993, दिल्ली, 2013, भूमिका
2, सरस्वती, सहजानन्द, मेरा जीवन संघर्ष, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, पृष्ठ-259
3, जैन, निर्मला, काव्यचिंतन की पश्चिमी परंपरा, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2006, पृष्ठ-47
4,जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-14
5, वही, पृष्ठ-14
6, यह कैसा आहवान ! /समय असमय का तनिक न ध्यान ।
तुम्हारी भारी सृष्टि के बीच/क्या यह तरल अग्नि ही पेय ?
सुधा मधु का अक्षय भंडार/ एक मेरे ही हेतु अदेय ?
‘उठो’ सुन उठूँ, हुई क्या देवि/नींद भी अनुचर का अपराध ?
मारो सुन मरूँ नहीं क्या शेष/अभी दो-दिन जीने की साध ?   
- दिनकर, रामधारी सिंह, हुंकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2007, पृष्ठ-21
7,विवश मैं तो वीणा का तार।
जहां उठी अंगुली तुम्हारी, मुझे गूंजना है लाचारी
मुझको कंपन दिया तुम्हीं ने, खुद सह लिया प्रहार
दिखाऊँ किसे कसक सरकार।
अभागा मैं वीणा का तार !
-जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-14

ख्8, मानी मन मानता नहीं है, इसे रोको मत
मातृभूमि बनि बिना बानी रह जाएगी ।
जीवन के युद्ध में है जाने का सुयोग फिर
जोश ही रहेगा न जवानी रह जाएगी ।
- गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
ख्9, क्यों पडीं परतंत्रता की बेडियां
दासता की हाय हथकडियां पडीं
न्याय का ‘मुंहबंद’ फांसी के लिए
कण्ठ पर जंजीर की लडियां पडीं।
-जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-53
10, मेरे जीते पूरा स्वराज्य भारत पाए अरमान यही।
बस शान यही अभिमानय ही हम कोटि-कोटि की जान यही।
-जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-14
11, जार्ज, के. एम., कुमारनाशान, दिल्ली, साहित्य आकादेमी, पृष्ठ-
12, जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रस धार नहीं।
वह हृदय नहीं वह पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
- गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
13, जीवन गीत भुला दो, कण्ठ मिला दो मृत्यु गीत के स्वर से,
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान निकली है मेरे अन्तर्तम से !
ऽ         
दहल जाय दिल पैर लडखडाएँ कांप जाय कलेजा उनका,
सिर चक्कर खाने लग जाए, टूटे बंधन शासन-गुण का,
नाश स्वयं कह उठे कडककर उस गभीर कर्कश-से  स्वर से-
‘रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान निकली है मेरे अंतर्तम से’।
-नवीन, बालकृष्ण शर्मा, नवीन रचनावली, दिल्ली, प्रकाशन संस्थान, 2011, पृष्ट-1177
14,  दिनकर, रामधारी सिंह, रेणुका, उदयाचल प्रकाशन, इलाहाबाद, 1954, पृष्ठ-5
15, जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-42
16, वही, पृष्ठ-60
17, दिनकर, रामधारी सिंह, हुंकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2007, पृष्ठ-93
18, सुजन, ये कौन खडे हैं ? बन्धु! नाम ही है इनका बेनाम,
कौन सा करते हैं ये काम? काम ही है बस इनका काम।
भाई बहन,  हां कल ही सुना, अहिंसा आत्मिक बल का नाम,
पिता सुनते हैं श्री विश्वेश, ‘जननि?’ श्री प्रकृति सुकृति सुख धाम।
- जोशी, श्रीकांत, माखनलाल चतुर्वेदी: समग्र कविताएं, दिल्ली,किताबघर, 2006 पृष्ठ-43
19, वही, 75
21, दिनकर, रामधारी सिंह, रेणुका, उदयाचल प्रकाशन, इलाहाबाद, 1954, पृष्ठ-31
22, सिद्धू, गुरुदेव सिंह, फाँसी लाहौर की, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2006, पृ. 36

बुधवार, 21 नवंबर 2018

विचार और अंतर्दृष्टि : अरथ अमित आखर अति थोरे


राजीवरंजन
 “आलोचना में विश्लेषण या विवेचन के विवरण की संपूर्णता का महत्त्व नहीं होता; महत्त्व विवेचन या विश्लेषण के पीछे सक्रिय अंतर्दृष्टि या समझ का भी होता है । कभी-कभी तो यह इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि इसके पीछे की और बातें गौण या उपेक्षणीय हो जाती हैं ।” ‘आलोचना और अंतर्दृष्टि’ पुस्तक प्रोफेसर  हनुमानप्रसाद शुक्ल की इस आलोचना-दृष्टि का सर्जनात्मक दृष्टांत है । पुस्तक का आकार सीमित होते हुए भी इसकी अंतर्वस्तु बहु-आयामी है । इसमें भाषा, साहित्य और इन दोनों के रास्ते संस्कृति के अनेक प्रश्नों पर विचार के साथ ही यह इनसे जुड़े तमाम नए प्रश्नों का प्रस्थान भी है । 


इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लेखक ने साहित्य को भाषायी सीमाओं और माध्यम विशेष की सीमित परिधि से बाहर निकालकर देखने-पढ़ने की हिमायत की है । उनके अनुसार ‘भारतीय चित्त को उन्मथित करने वाले बुनियादी प्रश्नों और उसकी चेतना को व्याप्त करने वाली अवधारणाओं’ के आधार पर भारत की सभी भाषायी इकाइयों के साहित्य में एक आत्मीय रिश्ते की तलाश की जानी चाहिए । अतः भारतीय साहित्य की संकल्पना और उसे साकार करने में तुलनात्मक भारतीय साहित्य और तुलनात्मक भारतीय साहित्य-मीमांसा की भूमिका को पहचानने की कोशिश इस पुस्तक की दो महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं । पुस्तक की लघु आकृति और उसके विषय वैविध्य के बावजूद लेखक ने इसकी सैद्धांतिकी ही नहीं पेश की है, प्रत्युत् अपने आलोचनात्मक लेखों द्वारा उसे व्यावहारिक आधार भी दिया है । यह महत्वपूर्ण है कि यहाँ 'भारतीयता' एक रूढ़ पद या स्थानीय अस्मिताओं का विरोधी नहीं है । बल्कि, साहित्य में ‘भारतीयता’ की तलाश के क्रम में लेखक ने लोक-निष्ठा के साथ उसके अविरोधी संबंध और सह-अस्तित्व को समझाने की कोशिश भी की है । जायसी केन्द्रित ‘जायस नगर मोर अस्थानू ...’ लेख इसका सटीक उदाहरण है, जिसमें जायसी की लोकनिष्ठा को ही लेखक ने उनके साहित्य की ताकत और उनके एक ‘भारतीय कवि’ होने का प्रमाण माना है ।

हिन्दी भाषा और उससे जुड़े विभिन्न सवालों पर लिखे गए अपने लेखों में लेखक ने भारतीयता के इस पक्ष को और अधिक स्पष्ट और तार्किक रूप में विश्लेषित किया है । ये लेख हिंदी और उसकी आधार भाषाओं (बोलियों) तथा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के आपसी संबन्धों को देखने की एक नई दृष्टि देते हैं । उनके अनुसार हिंदी एक भाषा नहीं, बल्कि उत्तर भारत में बोली जाने वाली जनपदीय भाषाओं का एक संयुक्त उत्तराधिकार (कॉमनवेल्थ) है, जिसकी और अधिक समृद्धि या स्वीकार्यता दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ सहकार पर निर्भर है । आज जबकि एक ओर उत्तर भारत की विभिन्न क्षेत्रों में उनकी भाषाओं के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति की मांगे चल रही हैं और दूसरी ओर दक्षिण में हिंदी के प्रति अस्वीकार्यता की बर्फ अभी पूरी तरह पिघली नहीं है, प्रोफेसर शुक्ल का भाषा के प्रति यह उदार दृष्टिकोण विशेष महत्त्व का है । दरअसल, वे भारत में भाषा के प्रश्न को अधिक उदार और हिंदी को कहीं अधिक खुली भाषा बनाने के पक्षधर हैं । भाषा के प्रति उनकी लोकतान्त्रिक दृष्टि का एक दूसरा उदाहरण भी है हिन्दी भाषा की लैंगिक एकांगिता को रेखांकित करना और उसे एक लिंग-निरपेक्ष भाषा के रूप में विकसित करने का उनका प्रस्ताव । ‘स्त्री विमर्श और हिंदी भाषा का पुनर्संवाद’ शीर्षक लेख में इसी विषय को आधार बनाया है । 


भाषा और साहित्य संबंधी लेखक की मान्यताओं का मूल आधार उनका ‘भारत-बोध’ है । उन्होंने भारत को एक जीवंत और बहुलतावादी देश के रूप में रेखांकित किया है । उनके अनुसार यह बहुलता ही भारत की आत्मा है— “भारत एक बहुभाषिक-बहुजातीय-बहुसांस्कृतिक-बहुधर्मी-बहुपंथी इकाई है; इन सबका संश्लेष और समवाय है । भारतीय मानस की निर्मिति इसी समझ से बनी है । भारतीय साहित्य इसी ‘भारतीय मानस’ की अभिव्यक्ति है ।” यह बहुलता सहजात और स्वाभाविक है— “भारत एक भौगोलिक सांस्कृतिक इकाई भी है । भूगोल का विस्तार बहुत अधिक है । कहीं-कहीं उसमें जो कुछ भेदक रेखाएँ दिखाई देती हैं, वे भारत नामक ‘विराट्’ विग्रह के  संयोजक ‘संधि-बिंदु’ हैं । जैसे मानव वपु अनेक अंग संस्थानों के संयोजन से जीवंत आवयविक अस्तित्व पाता है; ठीक वैसा ही जीवंत और आवयविक अस्तित्व है ‘भारत’ । इसलिए राजनीतिक इकाई या इकाइयों के रूप में भारत को देखने की भूल नहीं करनी चाहिए । यह भौगोलिक एकता भारत की सांस्कृतिक एकता की रीढ़ है । इसके कारण मूल्यों, आदर्शों, धर्मों, विचारों, विश्वासों, दर्शनों, कलाओं आदि के अखिल भारतीय प्रसार में सहजता रही है । इस एकता और संवेदना के साझे के कारण ही एक भारतीय ‘चित्त’ या ‘मानस’ बनाता है । इस मानस द्वारा सृजित-सर्जित वस्तु को ही हम ‘भारतीय संस्कृति’, ‘भारतीय दर्शन’, ‘भारतीय संगीत’, ‘भारतीय साहित्य’ आदि नामों से संबोधित करते हैं । इसी आधार पर एक ‘भारतीय जीवन-दृष्टि’ अस्तित्वमान' होती है । यह ‘भारतीय जीवन-दृष्टि’ ही भारतीय साहित्य की ‘आत्मा’ है ।” ये उद्धरण आज के हमारे परिवेश के संदर्भ में खास अर्थ रखते हैं, जबकि हम एकरूपता को ही एकता का आधार मानने के लिए लिए विवश किये जा रहे हों । 

यह पुस्तक प्रोफेसर हनुमानप्रसाद शुक्ल के एक सुधी आलोचक, भाषाविद और संकृतिचेता व्यक्ति की अभिव्यक्ति और पाठक के लिए इन विषयों पर एक विशेष दृष्टि से साक्षात्कार के अवसर के साथ-साथ आधुनिक भारतीय साहित्य के अध्ययन के लिए एक नए शास्त्र प्रस्तावना भी प्रस्तुत करती है ।  उन्होंने ‘तुलनात्मक साहित्य-मीमांसा’ और ‘भारतीय रस-चिंतन’ की ओर पाठकों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया है । दादेगावाकर की पुस्तक ‘रसचर्चा’ की समीक्षा ‘शास्त्र सूचिन्तित पुनि-पुनि देखिय’ में लेखक ने ‘भारतीय रस-चिंतन’ को देखने और समझने पाठकों के लिए एक नया वातायन खोलने की कोशिश की है और एक लेख के सीमित आकार के बावजूद उसे उद्घाटित करने में सफल भी रहे हैं ।

भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, तुलनात्मक साहित्य-मीमांसा, हिंदी भाषा के विभिन्न पक्षों आदि पर केन्द्रित लेखों के साथ ही यहाँ हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों, लेखकों और उनकी कृतियों पर आलोचनाएँ और समीक्षाएं भी मौजूद हैं । इनमें जायसी, एषुत्तछन, आचार्य शुक्ल, प्रेमचंद, नवीन, आचार्य वाजपेयी, निर्मल वर्मा, विजय मोहन सिंह ,चंद्रकांत देवताले, तिलोत्तमा मजूमदार, सुरेन्द्रवर्मा आदि शामिल हैं । ये चुनाव लेखक के साहित्य-बोध के दायरे और उनकी अंतर्दृष्टि के भी प्रमाण हैं और तीन खंडों में अन्तःविभक्त यह पुस्तक अपनी समग्रता में पाठक की चित्त-रिद्धी का एक महत्तर उपक्रम । अतः सीमित पृष्ठों में इतना सब समाहित करने वाली इस पुस्तक की पहचान गोस्वामी जी के इन शब्दों में ही संभव है कि ‘अरथ अमित आखर अति थोरे ।’ 

पुस्तक: विचार और अंतर्दृष्टि               लेखक: प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्ल
प्रकाशक : शिल्पायन, दिल्ली               मूल्य: 550/-