खुले
में शौच को जिस तरह का हव्वा बनाया गया है,
उससे लगता है कि जलवायु परिवर्तन का सारा दारोमदार खुले में निपटान
पर ही है क्योंकि देश में औद्योगिक कचरे और नगरीय कचरे के प्रसार तो स्वच्छता
अभियान का सहायक है। किसी भी शहर की सम्पन्नता और आकार का पता उस शहर के बाहर पड़े
कचरे के ढेर से चल जाता है, जिससे मुक्ति का कोई उपाय
हाल-फिलहाल नहीं दिखता। खुले में शौच पर सरकार ने जितना ध्यान दिया उतना कचरों के
निपटान पर क्यों नहीं दिया ? दूसरा पहलू यह भी है कि
शौचालयों में पानी की बरबादी अधिक होती है। एक लोटे का काम बाल्टियों में निबटाना
पड़ता है। क्या सरकार ने उस अनुपात में भूमिगत जल के पुनर्भरण का कोई मास्टर प्लान
बनाया है, जिस अनुपात में वह शौचालयों के निर्माण का दावा कर
रही है। शौचालयों की संख्या के साथ उसे यह भी बताना चाहिए कि वाटर हार्वेस्टिंग
सिस्टम का उसने कितना प्रचार-प्रसार किया और उसके निर्माण के लिए उसने कितने रूपए
किये ? क्या शौचालय निर्माण की तरह इसमें कमीशन खोरी का
स्पेस गाँव से लेकर जिले तक बैठे अधिकारियों, नेताओं और
मंत्रियों के लिए नहीं है या अभी उसकी और उनका ध्यान नहीं गया है ? सरकार को शौचालय निर्माण प्रचार के साथ या भी बताना चाहिए कि मल-जल के
प्रवाह के लिए उसने क्या क्या प्लान तैयार किए हैं और कितना लागू किया है ?
खेतों में अपघटित होने वाले अपशिष्ट की तुलना में बिना ट्रीटमेंट के
नदियों में बहने वाला यह दूषित जल कितना अधिक फायदेमंद होगा ? कितने गांवों में सरकार ने सीवर की व्यवस्था की है ताकि शौचालयों के टैंक
से निकलने वाला दूषित जल खुली नालियों में बहकर आस-पास गन्दगी न फैलाए। गाँव के
पुराने जल केंद्रीकरण के स्रोत (गड्ढे,ताल,पोखरे, सामुदायिक जमीन आदि) दबंगों के कब्जे में गई।
फिर बाधा हुआ पानी कहाँ जाएगा ?
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