शरद ऋतु का चाँद अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। इसकी स्वच्छ
चाँदनी में बैठकर ज्ञान, कला और साधना की अनेक सुंदर रचनाएँ रची गईं। तभी तो हमारे ऋषियों ने कहा—
‘कुरवान्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छरदंशतः’ अर्थात् कर्म कराते हुए सौ शारदों तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए। खुला
आकाश स्वच्छ चाँदनी और पारिजात की गंध लिए मंद वायु; निसर्ग
का अत्यंत मोहक रूप जिसकी कल्पना ही जी को अद्भुत प्रशान्ति से भर देती है, फिर अनुभव की बात ही क्या ? इसलिए शरदपूर्णिमा के
चंद्रमा से अमृत की बूंदे गिरने की कल्पना दूर की कौड़ी नहीं लगती। भले ही यह कवि
रूढ़ि हो, पर आम भारतीय मानस उसपर सहज विश्वास करता है । वह
तो शरद पूर्णिमा की रात को मुंडेर पर या आँगन में कटोरे में खीर रखकर सोता है, ताकि रात को टपकने वाली अमृत-बूंदें उसमें टपककर उसमे अमृत भर देंगी, जिसे खाकर वह निरुज और अमर हो जाएगा। किसी इतिहासकार, वैज्ञानिक या तर्कशास्त्री के लिए यह कल्पना हास्यास्पद हो सकती है, पर एक कलाकार, कवि या सौंदर्य मर्मज्ञ ही नहीं एक
आम भारतीय के लिए भी या सहज विश्वास की चीज है, तभी तो वह
पीढ़ियों से अमृत की चाह में हर शरद पूर्णिमा की रात को खीर रखता है। हममें से
बहुतों को यह रूढ़ि लग सकती है, पर यह प्रकृति के प्रति उसके
विश्वास, आत्मीयता और सहज राग की अभिव्यक्ति है।
और, सूरज ! शरद का सूर्य भी बहुत प्रखर होता
है। क्वार की तीखी धूप जेठ-बैशाख की धूप से कम तेज नहीं होती, अंतर मिजाज का होता है। उसकी तप्त-प्रखर रूप राशि बारसात की बूंदों में
नहाकर और अधिक स्वच्छा हो जाती है, लेकिन साथ ही उसका रूप भी
सौम्य हो जाता है । सौम्यता और प्रखरता का यह संतुलन किसी और ऋतु में उतना संभव
नहीं, जितना कि शरद ऋतु में। इसलिए शरद ऋतु का चाँद ही नहीं, उसका सूर्य भी अपने सुंदरतम और सुखकर रूप में उपस्थित होता है। वह अपने
किरणों के हर कण में मधु का संचार करता है, जिससे भरकर हमारी
फसलें पुष्ट होती हैं, पकती हैं और हमें पोषण देती हैं। ग्रीष्म
और वर्षा के चक्रों को पार कर शीत की ओर धीरे-धीरे बढ़ता हुआ सूरज तेजोमय तो होता
है, पर उग्र नहीं। सौम्य, शालीन किन्तु
तेजोवान। राम की तरह शक्ति समन्वित होते हुए भी शीलानुशासित और इसलिए सुंदर भी।
भारतीय मानस में राम की उपस्थिति उनके शक्ति और शील समन्वित सौंदर्य के कारण ही है
और यही कारण है। भारत में अकेले-अकेले शक्ति या अकेले अकेले शुभता का कोई मान
नहीं। यहाँ दोनों के परस्पर साहचर्य का ही मान है। इसे समझे बिना ‘सत्यम्ब्रूयात्पृयंब्रूयात मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम’
(सच बोलो किन्तु प्रिय सच बोलो अप्रिय सच मत बोलो) एक छल लग सकता है या फिर बुद्ध
का मध्यम प्रतिपदा एक थका हुआ समझौतावादी दर्शन, पर इसे
समझकर हमें भारतीय चिंतन, कला और साहित्य को समझने की एक नई
आँख मिल जाती है। राम, गांधी और बुद्ध तीनों ही अपने कर्म और
जीवन-दर्शन में इसी भारतीय मानस की अभिव्यक्ति हैं । इनमें राम उसके आदर्श
प्रतिमान है तो बुद्ध और गांधी उसकी व्यावहारिक अभिव्यक्ति। । इसलिए यह आश्चर्य
नहीं कि भारतीय महाकवियों ने शरद ऋतु को ही राम की रावण पर विजय और उनकी लंका से
अयोध्या वापसी का समय चुना। विजयादशमी विजय का, शक्ति का और
असत्य पर सत्य की जीत का त्यौहार है तो दीपावली स्वागत का,
मिलन का, प्रेम और माधुर्य का उत्सव। एक में तेज है, प्रखरता है, सत्य के विजय का उद्घोष है, तो दूसरे में माधुर्य, नमनीता और शुभता की
अभिव्यक्ति है। विजयादशमी के राम और दीपावली के राम में फर्क है। विजयादशमी के राम
शत्रुहंता हैं, वीर हैं योद्धा और विजेता हैं पर दीपावली के
राम एक पुत्र एक भाई और प्रजा के प्रिय राजकुमार हैं। ध्यान रहे, भारत में युयुत्सु, आक्रांता या योद्धा के स्वागत
की परंपरा नहीं रही है, न ही राम का स्वागत इस रूप में हुआ, बल्कि उनसे प्रेम के अतिरेक में अयोध्या के लोगों ने दीपोत्सव मनाया।
शरद का सूर्य भी राम की तरह
ही प्रखर भी होता है और मधुर भी। इसलिए वह पूज्य, श्रेष्ठ और
श्रेयस्कर है । यूं तो भारत में सूर्य-पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है, आर्यों के आगमन की इतिहास-कथा को साक्षी मानें तो आमू दरिया से ही इसके
साक्ष्य मिलने लगते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने राम के वंश का संबंध
ईराक-ईरान के आर्यों से जोड़ते हुए उनकी भारत तक यात्रा की कल्पना की है, लेकिन भारत में इसका स्पष्ट प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। रामायण में
राम को तो सूर्यवंशी कहा ही गया है, महाभारत में भी कर्ण की
जन्म-कथा में भी कुंती द्वारा सूर्य-उपासना का उल्लेख है। इस आधार पर यह आम धारणा
रही है कि सूर्योपासना आर्य परंपरा की देन है। पर इस पूरी सूर्योपासना का कोई सीधा
संबंध वर्तमान में बहुत तेजी से प्रचलित हो रहे सूर्य-पूजन के त्यौहार छठ से नहीं
दिखाता। यह भारत के बिहार राज्य से शुरू होकर बहुर तेजी से भारत भर में, विशेष रूप से उन महानगरों में फ़ेल रहा है जहां बिहार आए लोग ठीक-ठाक
संख्या में रहते हैं। दिल्ली, मुंबई,
कलकत्ता ही नहीं उन सभी छोटे-बड़े शहरों में इसका असर दिखने लगा है जहां बिहार के
लोग नौकरी, व्यवसाय या मजूरी करने आते हैं।
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