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राजीवरंजन
आज पर्यावरण दिवस है
। दुनिया भर के लोगों का एक साथ मानव और प्रकृति के रिश्ते को याद करने का दिन।
संसाधनों को भावी पीढ़ी के लिए बचाने के लिए आह्वान करने का दिन । हमारे देश-गाँव
के तमाम लोगों को इसके बारे में अब भी बहुत पता नहीं है । वे नहीं जानते की यह
पर्यावरण दिवस क्या है ? मीडिया के खबरों से जानते भी
हैं तो हद से हद उसे पढ़कर भूल जाते हैं। यह एक सच बात है। इसमें न उनका दोष है, न मीडिया का और न 5 जून को पर्यावरण दिवस घोषित
करने वाले और मानाने वाले संयुक्त राष्ट्र संघ का। फिर,
किसका दोष है ? यह एक स्वाभाविक प्रश्न है, लेकिन इसका उत्तर बहुत जटिल है जो कहने या बताने से कहीं अधिक महसूस करने
से पाया पाया जा सकता है।
सदियों
पहले मनुष्य ने पेड़ों की छाँव या गुफाओं में शरण ली तो उसका प्रकृति से गहरा
याराना था। उसने अपनी चेतना के विकास के तमाम सोपानों से गुजरते हुए उसे खूब
निभाया भी । उसके कण-कण में देवत्व की कल्पना की। भारतीय लोकमानस द्वारा स्वीकृत तैंतीस
करोड़ देवताओं में सब हैं— वर्षा के देवता मेघवान, परजन्य या इन्द्र, जल के देवता वरुण, वनस्पतियों और औषधियों को पोषण प्रदान करने वाले चंद्रमा और धरती के
कण-कण को प्रकाशित करने वाले या ऊर्जा देने वाले सूर्य ही नहीं, वायु-वातास, पेड़-पौधे,
जीव-जन्तु सब-कुछ। सारा चराचर जगत ही देवता है, सब में
ईश्वरत्व का वास है। सब उस एक ही परमा-प्रकृति की संताने हैं, जिसके साथ क्रीडा कर महाशिव इस पूरी सृष्टि की को जन्म देता है। महाशिव
और परमा-प्रकृति को यदि दार्शनिक गुंजलक से मुक्त कर दिया जाय तो क्या यह कल्पना
प्रकृति के विभिन्न उपादानों के साथ मनुष्य साहचर्य या भ्रातृत्व की अभिव्यक्ति
नहीं है ? निश्चित रूप से उस मनुष्य की कुछ सीमाएं थीं और उन
सीमाओं को सुलझाने का एक मात्र रास्ता जो उसे समझ में आया,
वह था ब्रह्म या ईश्वर । आज जब वे सीमाएं टूट चुकी हैं, तब हम
चाहें तो उसे ही पदार्थ कह लें। यों, यह पदार्थवाद भी पुराने सांख्यवादियों को स्वीकार्य रहा है; उन्होंने
पंचभौतिक शरीर की कल्पना की । ये पांचों तत्त्व प्रकृति प्रदत्त हैं और यह समूची
सृष्टि पंचतात्विक है, मानुष्य भी और पेड़-पौधे भी। अगर दायरा
थोड़ा और बढ़ा लें और हम ग्रीक के पुराने चिंतन तक की यात्रा कर आएँ तो हम पाएंगे कि
भारतीय सांख्यवादियों की तरह ही ग्रीक दार्शनिक अरस्तू भी दुनिया को प्राकृतिक
उपादानों के निर्मिति ही मानता था, फर्क बस तत्त्वो की संख्या
का था। वहाँ पाँच नहीं केवल चार तत्त्वों की बात की गई है;
पृथ्वी,जल,वायु और अग्नि। आकाश उनके
चिंतन में अनुपस्थित है। यह बात थोड़ी आश्चर्यजनक अवश्य है कि भारत की तुलना में
यूनान की स्थिति खगोलीय अध्ययन के कहीं अधिक अनुकूल थी और भारतीय खगोलविद बराहमिहिर
ने यूनानियों को उनके खगोलीय ध्ययन के लिए विशेष सम्मान से याद भी किया है और
उन्हें वैदिक ऋषियों की तरह प्रणम्य कहा है। फिर भी, आकाश को
अरस्तू ने उतना महत्त्व नहीं दिया है, कारण जो भी रहा हो । क्या
ये संदर्भ में मनुष्य की प्रकृति से अपनत्व की घोषणा नहीं हैं ? निश्चित रूप से, यह अन्योन्याश्रय से आगे की बात है; किसी न किसी हद
तक यह मानव और प्रकृति के एकात्म की स्वीकृति है। प्रकृति और मनुष्य के बीच का
अंतर केवल बुद्धि या चेतना के स्तर पर है। बाकी, अनुभूतियाँ
तो सब में होती हैं। मनुष्य बौद्धिक है तथा अपने चिंतन और अनुभूति को व्यक्त करने
में समर्थ भी, इसलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच के इस रिश्ते
को निभाने का दारोमदार उसपर कहीं अधिक है।
हमारी परंपरा और संस्कृति में यह
समझ बहुत गहरी रही है। भारतीय चिंतन के मध्य-पर्व,
अर्थात उपनिषद काल तक आते आते भारतीय मनीषा के लिए मानव और पृथ्वी के बीच के
रिश्ते को समझना और उसे संतुलित रखना कितना महत्वपूर्ण हो चुका था, इस तथ्य का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ईशावस्य उपनिषद का पहला
मंत्र ही यह मनुष्य को यह निर्देश देता है— ‘इस पृथ्वी पर जो
भी चराचर सृष्टि है, उसमें ईश्वर का वास है। इसलिए हमें
त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए । धन किसका है ? लोभ मत करो।’ त्याग पूर्वक भोग का अर्थ है, दूसरों के लिए उनके
प्राप्य का त्याग हुए अपने अंश का भोग और समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ
है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव। दूसरे शब्दों में, यह
सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना
चाहिए। लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है।
एक अवांतर संदर्भ में गांधी ने भी लोभ के संबंध में लिखा है। उन्होंने ‘हिंदस्वराज’ में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा
है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले
मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी भूख होती थी , लेकिन अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से
मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त
है। वस्तुतः यह भी मनुष्य में बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी।
गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है। गांधी ने यह
बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह
केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है;
उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का
अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई,
मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की
उपज और मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर
हिंसक प्रहार है। सच कहा जाय तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही
हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के
मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है। हमारे द्वारा छोड़ी
गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी। संभव है उनके शैशव का दम घोंटकर
उन्हें मार भी दें। इसलिए हमें अपनी उस लोभवृत्ति और हिंसावृत्ति को रोकना होगा जिसकी
फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंक लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही,
अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव उपस्थित रहता
है।
भारतीय चिंतन ही क्यों ? समूचा भारतीय साहित्य भी इस साहचर्य की उद्बाहु घोषणा करता रहा है—
‘पश्य देवस्य काव्यं। न ममार न जिर्यती।’ यह ‘देवस्यकाव्यं’ है क्या ? प्रकृति।
उसका अपूर्व सौंदर्य जिसपर वैदिक कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक ने बिना किसी
संकोच या कृपणता के सहस्र-सहस्र छंद निछावर कर दिये हैं। यह आश्चर्य नहीं कि भारत
के लगभग हर बड़े कवि के काव्य में प्रकृति और मनुष्य साहचर्य की दुंदुभी सुनी जा
सकती हो। चाहे बाल्मीकि हों या कालिदास, माघ हो या बाणभट्ट, तुलसी हों या जायसी, विद्यापति हों या सूरदास, सेनापति हों या घनानंद, पंत हों या प्रसाद, महादेवी हों या निराला, अज्ञेय हों या केदारनाथ अग्रवाल।
सब-के-सब एक स्वर में अपनी इस सनातन सहचरी से अपने अनुराग के गीत रचते हैं । निश्चित
तौर पर इनकी भंगिमाएँ अलग-अलग हैं तो इनके युग भी तो अलग हैं और हर युग की अलग
संवेदना होती है, यहाँ तक कि एक व्यक्ति की संवेदना का स्तर
भी दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है। वह हू-ब-हू समान नहीं होता है । लेकिन, सभी के भीतर जो साझा है, वह है मानव और प्रकृति की
परस्परता, आत्मीयता और एकात्मक रिश्ते का स्वीकार । ऐसे में
यह उक्ति आश्चर्यजन नहीं लगती कि कविता आदिम मानुष्य की सहज अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए आज के जटिलतर जीवन में कविता और प्रकृति दोनों से मनुष्य की
दूरी बढ़ी है। आधुनिक काल में न केवल हमारा साहित्य, हमारी
संवेदना और हमारे परंपरागत रिश्ते भी क्रमशः गद्यात्मक होते गए हैं। यह
गद्यात्मकता कविता की तुलना में आसान-सी दिखती है, पर है नहीं।
इसने निरंतर मनुष्य को उसकी सहजात
वृत्तियों की अभिव्यक्ति से उसे रोका है। यह सच है कि हम बोलते गद्य में हैं, कविता में नहीं। लेकिन, हमारी मूल वृत्ति लयात्मक
है और कविता उसके अधिक अनुकूल रही है। यह बात किसी को अटपटी लग सकती है, परंतु एक छोटे से बच्चे को घर के किसी एकांत कोने में या बाग या सिवान के
किसी हिस्से में अकेले गुनगुनाते हुए
देखने के अनुभव के बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है जो नगरीय जीवन में थोड़ी
मुश्किल। हाँ, असंभव नहीं। आधुनिक शिक्षा के तमाम
नगरीय-महानगरीय विद्यालयों में छोटे बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में बाल गीतों
का समावेश दरअसल बच्चे को उसके जीवन की स्वाभाविक लयात्मकता से जोड़ना ही है। उसके लिए गद्य की भाषा सीखना और उसे बिना किसी
व्याकरणिक त्रुटि के व्यक्त करना मुश्किल होगा, पर एक गीत को
दोहराना और गाना ही नहीं, बल्कि उसके अनुकरण पर नए गीत रचना
अधिक आसान होगा। आज हमें भले ही यह शिक्षा की आधुनिक पद्धति लगती हो, आज से सहस्राब्दियों पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने एक आदर्श राज्य
(रिपब्लिक) की कल्पना करते हुए शिक्षा में
आरंभिक स्तर पर दो ही बातों को महत्व देने की बात करते हैं— संगीत और व्यायाम।
व्यायाम तन की पुष्टि के लिए और संगीत मानसिक हृष्टि के लिए। संभव है बच्चों
द्वारा गाए जाने वाले या रचे जाने वाले गीतों में तमाम निरर्थक शब्द हों या पूरा गीत
ही एकदम निर्थक हो। अपनी सार्थकाता के बावजूद गद्य के अंश की तुलना में गीत या
कविता का यादश्त में दीर्घस्थायी बना रहना कहीं अधिक आसान है। निष्कर्ष यह कि
लयात्मकता तथा मनुष्य और प्रकृति का साहचर्य दोनों ही मनुष्य की सहजात वृत्तियाँ हैं। इन
दोनों से दूरी मनुष्य को कृत्रिम बनाती है।
जैसे ऊपर से सपाट और निर्लिप्त सा दिखने वाला
मनुष्य भीतर से उतना ही जटिल और कृत्रिम होता है, उसी
तरह गद्य भी ऊपरी आवरण में सपाट और सरल होते हुए भी अपनी बुनावट में तमाम जटिलताओं
को समेटे रहता है और इसीलिए आधुनिक जटिल मनुष्य के लिए यह माध्यम अधिक प्रिय रहा
है। कविता में वह अपने को छिपा नहीं सकता, लेकिन गद्य में
भाषा के आवरण के भीतर वह अपने को समूचे रचना कर्म में छिपाए रख सकता है। कथनी और
करनी के भीतर के अभेद की जितनी सटीक अभिव्यक्ति कविता में होती है, गद्य में बिलकुल नहीं हो सकती। इसीलिए यह प्रकृत नहीं है और जो प्राकृत
नहीं है, वह प्रकृति के साथ तादात्म्य की अभिव्यक्ति भाला
कैसे करेगा? इसीलिए कविता से दूरी बढ़ने के साथ-साथ प्रकृति से
भी हमारी दूरी निरंतर बढ़ती गई। आज ‘फिक्सन’ का युग है। कविता ही क्यों नाटक, निबंध आदि गद्य की
तमाम विधाएँ भी हाशिये की ओर खिसक रही हैं। दरअसल एक छद्म की सृष्टि जितनी आसानी
से ‘फिक्सन’ में संभव है, उतनी दूसरी किसी गद्य विधा में भी नहीं।
यह बात अलग है कि अपने उदय के साथ ही कथा साहित्य ने यथार्थ की अभिव्यक्ति
का जिस तरह का दावा किया, वह न ‘भूतो न
भविष्यति’ है। यथार्थ की वारिस होने का दावा करने वाली यह
विधा वस्तुतः यथार्थ के ऊपरी आवरण में उलझी रह जाती है और उसकी भीतरी परतों तक उतर
ही नहीं पाती। इस आंतरिक यथार्थ की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति या तो काव्य और सबसे
अधिक गीतिकाव्य में संभव है, या फिर नाटकों में और ये दोनों
ही आदिम विधाएँ हैं। आदिम जीवन का अर्थ केवल पिछड़ा जीवन नहीं होता, वह मानव जीवन की सहजता की भी पहचान है। इसीलिए गद्यकारों की तुलना में
कवियों के यहाँ प्रकृति के प्रति आत्मीयता और लगाव अधिक दिखाई देते हैं। कवि
इन्हीं अर्थों में ‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू’ है। संस्कृत साहित्य में गद्य और पद्य दोनों को काव्य और दोनों के रचने
वाले को कवि कहते थे, पर यहाँ कवि का सीमित अर्थ ही लिया जा
रहा है; क्योंकि हिंदी गद्य संस्कृत गद्य से अपनी बनावट और
संवेदना से पर्याप्त दूर है।
प्रकृति का मनुष्य के प्रति यह
एकात्म, ममत्व या साहचर्य अथवा भ्रातृत्व केवल ज्ञान, दर्शन
या काव्य की चौहद्दी तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि यह
लोक-मानस के खुले आसमान के नीचे ही विकसित और पुष्ट हुआ है और दार्शनिकों, कवियों और चिंतकों ने वहीं से उपजीव्य ग्रहण किया इसलिए वे उसके कर्जदार
हैं। हमारी लोकपरम्पराओं में इसके पुख्ता साक्ष्य अब भी हैं। लोककथाएँ, लोकगीत और लोकजीवन में इसके प्रमाण पग-पग पर देखे जा सकते हैं।
वृक्ष-पूजा और वृक्ष-विवाह से नदी और पहाड़ की पूजाओं तक ही नहीं पहली बार फल से
लड़े हुए आम के विवाह तक और वृक्ष लगाने वाले व्यक्ति द्वारा उसे संतान मानकर उसके
फल का सेवन न करने, हरे वृक्ष कों काटने से जुड़े पाप-बोध और
पीपल, बरगद आदि वृक्षों को काटने का निषेध तक— ये सभी
लोकमान्यताएँ और परम्पराएँ मनुष्य और प्रकृति के इसी साहचर्य कों व्यक्त करती हैं।
ऊपरी तौर पर रुढ़ि प्रतीत होने वाली इन परम्पराओं के भीतर प्रवेश करना नई पीढ़ी के
हम बौद्धिकों के लिए मूर्खता है। बट-वृक्ष की लंबी-लंबी बरोह को पकड़ कर झूलने वाले
बच्चे के लिए वह बट दादा है, सावन के माह में मायके आई युवती का नीम के पेड़
पर झूला डाल कजरी गाते हुए झूलना और उसमें प्रिय के प्रति प्रेम और विरह की
अभिव्यक्ति करना, केवल परंपरा-पालन नहीं है; ये मनुष्य और प्रकृति के सनातन सहचर्य की अभिव्यक्ति ही हैं। भोजपुरी क्षेत्र
के विवाह-समारोहों में एक सामान्य रश्म है ‘पित्तर नेवतल’ अर्थात पितर-गण को निमंत्रण। तिलक
के बाद शगुन उठना, पितर नेवतना और हल्दी ये विवाह-पूर्व तीन मुख्य
रश्में होती हैं जो अनिवार्यतः लड़की और लड़के दोनों घरों में होती हैं। इन अनुष्ठानों
में पुरोहित अनुपस्थित रहता है । स्त्रियाँ इस अवसर पर सारे कर्मकांड स्वयं सम्पन्न
करती हैं। अतः इनका संबंध शुद्ध रूप से लोक परंपरा से माना जा सकता है। यदि इस अवसर पर स्त्रियॉं द्वारा गाए जाने वाले गीतों
को ध्यान से सुनें तो न केवल विवाह वाले घर के पितर-गण आमंत्रित होते हैं, बल्कि अंधिया,पनिया, हड़वा, मटवा, संपवा, बिछिया सब आमंत्रित
होते हैं। यह आमंत्रण उनकी तुष्टि और वर-वधु के लिए आशीर्वाद की कामना के लिए की जाती
है । यह परंपरा मानव-प्रकृति के पारंपरिक रिश्तों की गवाह है जो अब अवशेष मात्र बनकर
महिला संगीत के ‘शार्टकट फार्म’ और मेंहदी
की नव-आयातित ‘सेलिब्रेशन’ संस्कृति के
हवाले हो चली है ।
आज हमारे और प्रकृति के बीच के रिश्ते
में तेजी से गिरावट आई है। इस गिरावट के मूल में हमारी असीमित इच्छाएँ और और
प्रकृति की देने की क्षमता के बीच के संतुलन का अभाव है। अनियंत्रित विकास, असीमित जनसंख्या और अदम्य इच्छाओं के त्रिक के बीच जकड़ी यह प्रकृति असहाय
हो गई है। ‘ये दिल मांगे मोर’ के फलसफे
वाली हमारी पीढ़ी के लिए उसकी इस असहायता को महसूस करना संभव नहीं। हम तो अपनी
सुख-सुविधाओं, जरूरतों और विलासिताओं में डूबे हुए लोग हैं, हमें भला उसके बाहर सिर निकालकर प्रकृति के आँगन में झाँकने की क्या
जरूरत। हमारे लिए प्रकृति की सुंदरता का अर्थ है, शिमला, मसूरी, नैनीताल और लद्दाख की पर्यटक यात्राएँ, केरल, गोवा और अंडमान के समुद्रतटीय सैकत कूलों पर
आमोद और विहार या संरक्षित और सुरक्षित वनों में बंद गाड़ियों में बैठकर चाक्षुष-मृगया-व्यापार।
हमें इससे कोई लेना-देना नहीं की इन पर्वतीय अंचलों,
समुद्रतटीय क्षेत्रों और वनों में छोड़े गए हमारे कचरे, धुएँ
या कबाड़ इस प्रकृति के हृदय में कितना गहरा घाव कर रहे हैं,
हम अपनी ही आबो हवा में कितना जहर घोल रहे हैं और इनका दूरगामी प्रभाव क्या होगा ? सच तो यह है की पर्यावरण की रक्षा केवल कागजी रस्मों, इश्तेहारों और कार्यक्रमों के आयोजन-प्रयोजन से नहीं होगी । इसके लिए
प्रकृति और मनुष्य के बीच के दरकते हुए संबंध-सेतु को पुनर्संयोजित करना होगा, उसे मजबूती देनी होगी और मानव को एक बार फिर अपने भीतर प्रकृति के प्रति
रागात्मक अनुभूति जागृत करनी होगी । उसे एक बार फिर अपने श्रद्धापूरित हृदय से
स्वीकार करना होगा— माता भूमिः। पुत्रोहं पृथिव्याः। बिना श्रद्धा, बिना, आस्था या बिना राग के प्रकृति और मनुष्य के
परस्पर साहचर्य को पुनरास्थापित या पुनर्जीवित करना दुःसाध्य है। इसलिए इनके बिना ‘पर्यावरण सुरक्षा’ एक मोहक स्वप्न के अतिरिक्त कुछ
नहीं हो सकता।
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