खडा हूँ,
आज फिर उसी छत पर
बहुत दिनों बाद,
अपनी उसी नियत जगह पर
जहाँ खडा होता रहा था तब तक
जब सिल-सिला बन्द नहीं हुआ था
आने का छत पर
खडे होने का --
छत के उस कोने में
दो रस्तों के कटन विन्दु पर
देखता था सडक पर
आती-जाती साइकिलें,रिक्शे और कभी कभी तांगे भी
आते-जाते पैदल लोगोंको देखने की जरूरत
नहीं थी
वे दिख जाते थे -- आते-जाते यूँ ही
तब,
कुछ ऊधम मचाते शरारती बच्चे
सडक के भीतरी हिस्से में,
बस्ते से लदे-फदे बोझिल बच्चे,
कितबों को बहोन मेन समेटे स्कूली
लडकियाँ
हँसी ठठ्ठा करते स्कूली लडके,
तब छतें मनसयन थीं
हर छत पर नियत थी किसी ना किसी की जगह
--
नहाने की खाने की
बैठ कर सेंकने की देह गुनगुनाती धूप
मेँ
या फिर गपियाने और निहारने की बेवजह
सडकों को
आते-जाते लोगों को गाडियों को तांगों
और रिक्शों को .
तब छतें बोलती थीं, बतियती थीं
कनबतियाँ-अँखबतियाँ करती थी
कभी-कभी लडती झगडती भी थीं
तब छतें जिन्दा थीं.
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