विवेकी राय : एक स्मरण
विवेकी राय (19 नवम्बर 1924 से 22 नवंबर 2016) |
विवेकी राय एक गंवई रंग में रंगे हुए, सहज और आस्तिक रचनाकार हैं । उन्होंने अनेक विधाओं में रचना की है । वे एक साथ ही कवि भी हैं, कथाकर भी, निबंधकार और रिपोर्ताज लेखक भी । उनके रचना काल की तरह ही उनके विधा-वैविध्य का विस्तार भी बहुत अधिक है, लेकिन उन्हें सबसे अधिक ख्याति दो ही विधाओं में मिली— निबंध और उपन्यास । ‘बबूल’, ‘पुरुष-पुराण’, ‘लोकऋण’और ‘सोनामाटी’ उनके चर्चित उपन्यास रहे हैं और ‘मनबोध मास्टर की डायरी’, ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’‘जुलूस रुका है’ ‘जगत तपोवन सो कियो’, ‘उठ जाग मुसाफिर’ तथा ‘वन तुलसी की गंध’ आदि उनके चर्चित निबंध संग्रह । उन्हें पढ़ते हुए मुझे बार-बार अज्ञेय की एक कविता याद आती है । उसका शीर्षक है ‘कन्हाई ने प्यार किया’। उसमें अज्ञेय ने रचनाकार की तुलना कृष्ण से की है, जो कृष्ण के गोपियों के प्रति प्रेम की तरह जीवन भर अपनी सारी कल्पना, सारी रचनाशीलता और सारा स्नेह-दुलार अपनी रचनाओं पर लुटाता हुआ उस एक रचना की तलाश में रहता है, जो उसके चित्त की समग्र सर्जनात्मकता को अपने भीतर ढाल ले । वास्तव में ये सभी रचनाएँ उसके अखंड रचानात्मक व्यक्तित्व की ही अभिव्यक्ति होती हैं । नाम और विधा के बदलाव के बावजूद वे अलग नहीं होतीं; किसी न किसी क्षीण सूत्र के सहारे आपस में जुड़ी होती हैं और अपनी संपूर्णता में एक ही अखंड रचना की सृष्टि करती हैं । कुछ ऐसा ही अंतःसूत्र विवेकी राय की रचनाओं में भी है । वे आपस में इतनी गुँथी हुई हैं कि उनके एक रेशे, धागे या गाँठ के पकड़ में आते ही उनका सारा लेखन एक अद्भुत वातायन की तरह अपने-आप खुल जाता है । बस उसके खुलने की देर है, फिर उसके बाद तो ‘अली बाबा चालिस चोर’ की गुफा की तरह आप जितना चाहें माल-असबाब भर लें । लेखक उसे खुश-खुशी लुटाता चला जाता है; अनजाने नहीं, जानबूझकर । अपने पूरे होश-ओ-हवाश में ।
विवेकी राय के लेखन का ‘सिम-सिम दरवाजा’ गाँव है जिसके सामने खड़ा होकर पाठक एक बार कहता है— “खुल जा सिम-सिम’’ और वह दरवाजा अपने-आप सरक कर एक ओर हो जाता है । फिर, आप पैठ जाइए । न दरबान (व्याकरण) के लट्ठ का डर न गाइड (आलोचक) की जरूरत । आप बिना किसी पूर्वपरिचय के उनके लेखन की सारी कोठा-अटारी झाँक आएँगे । आपको लगेगा ही नहीं कि आप इससे अपरिचत हैं । कहना गलत न होगा कि गाँव विवेकी राय के लिए किसी अनन्य सखा की तरह है, जिससे विछोह के बावजूद उसकी स्मृति में वे जीवन भर छ्टपटाते रहे । एक महाविद्यालय की अध्यापकी ने उनका गाँव उनसे छीन लिया था । वे गाजीपुर शहर में आ बसे, लेकिन घर तब भी ‘गँवई गंध गुलाब’ ही रहा । वैसे तो, गाजीपुर भी उन अर्थों में शहर नहीं, बल्कि एक बड़ा गाँव ही है अब-भी;यदि कुछ दुकानें गाँव और शहर के निर्धारण का आधार न माना जाय तो । शायद इसीलिए वे गाँव से दूर तो हुए, लेकिन उनका गँवईपन शहर की भीड़ में खो नहीं सका; वह अंतिम साँस तक उनकी आत्मा से चिपका रहा । वे सोनवानी (विवेकी राय के गाँव) से दूर जरूर हुए, वह छूटा नहीं — “ मेरे लेखन की पृष्ठभूमि ग्राम-जीवन है । वास्तव में वही मेरा जीवन भी है । लगभग आधी उमर धुर देहत के एक गाँव में गुजारने के बाद एक अत्यन्त पिछड़े और छोटे शहर में आया भी तो शहरी नहीं बन पाया….एक पैर गाजीपुर में रहता है तो एक पैर गाँव सोनवानी में रहता है । भारत सरकार की कृपा से गाँव वाले पैर को आराम बहुत है क्योंकि गाज़ीपुर से गाँव पर जाने के लिए छोटी लाइन के पाँचवे स्टेशन ताज़पुर-डेहमा पर उतरने के बाद जाड़े-गरमी के दिनों में डेढ घंटा पदयात्रा करना अनिवार्य होती है । बाढ़-बरसात के दिनो में यह समय दुगुना से ले कर चौगुना तक हो जाता है । सड़क एक दुःस्वप्न है । भारत के लाखों गावों की भाँति अभी मेरा गाँव भी बिजली और सड़क से वंचित है ।”
विवेकी राय के लिए गाँव एक रोमानी दुनिया या एक नॉस्टेल्जिया है— यह सोच गलत है । गाँव उनका मन, प्राण या उन्हीं की तरह आत्मवादी शब्दावली का इस्तेमाल किया जाय तो ‘आत्मा’ है। अतः गाँव पर होने वाली हर चोट उनकी आत्मा पर चोट थी । वे तिलमिला उठते थे । निहत्थे साहित्यकार के पास इस चोट का जवाब देने का एक ही जरिया था, लेखन । वे जीवन भर अपने लेखन में मिटते गाँवों को बचाने की जद्दोजहद में लगे रहे । इसी से उन्हें आत्मबल मिलता था । इसी के सहारे वे निजी जीवन के दुःख-सुखात्मक अनुभवों के पार जाकर जीवन के तिरानबे बसंत देख सके और इस वय में भी स्वास्थ्य का जिक्र करने पर असहज हो जाते थे । जब भी कोई उसका जिक्र करता, वे मुस्कुराकर जवाब टाल जाते थे । उनका हाल में प्रकाशित निबंध संग्रह ‘उठ जाग मुसाफिर’ इसका प्रमाण है । इसमें उन्नीस नब्बे के बाद के गाँवों की तस्बीर खींचते हुए उन्होंने लिखा है– “ ग्राम-विकास की बढ़ती गाड़ी गाँवों के उजाड़ तक पहुंची। विकास तन्त्र, नवजीवित जातिवाद, चुनाव की राजनीति- इन चार रास्तों से चार चोर शनैः-शनैः कालक्रम से, छद्म वेश में घुसे गाँवों में।…..गाँव बेपहचान हो गया । उसकी सामजिक एकता, पारस्परिक राह-रस्म। भाईचारा और भोज-भात की अन्यतम विशेषताएँ तथा ग्राम-भाव के केंद्रीय तत्व-स्वरूप सांस्कृतिक परंपराएँ सब कुछ घिस-पिट बदरंग हो समाप्तप्राय हैं।” ये नब्बे के बाद के गाँव है । नब्बे यानी भूमंडलीकरण का दौर और नब्बे के गाँव यानी भूमंडलीकरण के बाद के गाँव । इसकी आशंका विवेकी राय ने लगभग डेढ़ दशक पहले ही व्यक्त कर दी थी; जबकि हिंदी लेखकों के लिए भूमंडलीकरण शब्द बिल्कुल अनजान था, स्वयं विवेकी राय के लिए भी। जुलूस रुका है (1977 ई.) के अपने एक निबंध ‘सावधान ! गाँव में शहर आ पहुँचा’ में उन्होंने इस संभावना पर बहुत विस्तार से लिखा है ।
गाँवों के संबंध में यह धारणा है कि ये एक खास आर्थिक अवस्था की देन हैं और उसमें बदलाव के साथ उनका अंत एक अनिवार्यता है । ये आर्थिक पिछड़ेपन के साथ ही सामजिक और सांस्कृतिक पिछ्ड़ेपन की पहचान हैं । विवेकी राय ने अपने समूचे लेखन में इसका प्रतिवाद किया है । वे बार-बार हमें आगाह करते हैं कि ये गाँव ही भारत की सांस्कृतिक पीठिका हैं । बिना इसके हमारी सांस्कृतिक पहचान की ऊँची-से-ऊँची मीनार भी एक झटके में भरभरा कर ढह जाएगी और हम तमाशबीन की तरह उसे देखते रह जाएँगे । जिसे हम भारतीय संस्कृति या भारतीयता कहते हैं, वह भारत के गाँवों में बसती है; न कि नगरीय जीवन में । नगरीय जीवन तो उसका ‘शोरूम’ है, जिसमें उसकी सजी-सँवरी आकृतियाँ मिल सकती हैं, लेकिन उसे रचने वाले कारखाने नहीं । ये कारखाने तो उन किसानों के घरों में हैं,जिन्होंने भारत के इस विशाल सांस्कृतिक वृक्ष को अपने श्रम-स्वेद से सींचा है । उसकी सारी सौम्यता, सारी आत्मीयता, बहुलता और सृजनशीलता इन्हीं गाँवो की देन है । जिस संस्कृति की ऊँची मीनार पर खड़े हो कर हमारे कवि और शायर उसका जय-गीत गाते हैं — ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’; गाँव ही उस मीनार के आधार हैं और उस अमिट हस्ती को अंकित करने वाली सतह भी उन्हीं की पंकिल मिट्टी से बनी है । अन्यथा शहर के भंगुर शील-बोध, अस्थिर नैतिकता और गहमागहमी वाले जीवन परिदृश्य में भला वह अमिट कैसे रह पाती ? ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं को पल भर में जमींदोज कर बिना मोह-छोह वहाँ एक दूसरी इमारत तान देने वाला शहर, भला इस संस्कृति की भीत को कब तक लीप-पोत सकता था और कबतक इसके छान-छप्पर साज-सँभाल कर उसे बचा सकता था । उसमें न इतना धैर्य है और न फुरसत । यह काम तो गाँव और गँवई मनुष्य ही कर सकता है जिसे माटी से मोह है और जो अपनी धरती, अपने पूर्वज और अपने पास-पड़ोस से एक रागात्मक रिश्ता रखता आया है, उसे अपने जीवन और अपनी स्मृतियों में सदियों-सहस्राब्दियों सँजोता आया है । भारत के स्थापत्य की नुमाइश देखनी हो तो शहर जाइए, लेकिन अगर उसके कला-दृष्टि, जीवन-दृष्टि और मूल्यों को समझना हो तो आपको हमारे गाँवों में आना होगा । इस तथ्य को समझने की जितनी गहरी अंतर्दृष्टि विवेकी राय के पास थी, उतनी शायद ही हिंदी के किसी अन्य समकालीन लेखक के पास रही हो । उन्होंने लिखा भी है—“बेचारा गाँव न नगर बन सका और न ही गाँव रह सका । नगर का हर धक्का कुछ न कुछ तोड़ जाता है । लड़ाई भोले भाव और चकन्नेपन की है । गाँव एक राग है, एक कल्पना है, एक विस्तार है और सहजता है…’’ संक्षेप में कहें तो संस्कृति का आधान है । गाँवों को देखने की उनकी यह दृष्टि अद्वितीय थी ।
गाँवों से विवेकी राय का रागात्मक संबंध कुछ वैसा ही था जैसा कि एक प्रिय का अपनी प्रेयसी या प्रेयसी का अपने प्रिय के साथ होता है । इसलिए गाँवों को देखते समय उनकी चितवन स्वतः स्नेहिल हो उठती है । उनका सारा प्रेम, दुलार, ममत्व और अनन्यासक्ति उनकी दृष्टि में झलकने लगता है। उनकी चितवन प्रेम से कहीं-कहीं इतनी बोझिल हो उठती है कि आलोचकों कई बार यह भ्रम होता है कि विवेकी राय गाँव की ओर से (उसके नकारात्मक पक्षों की ओर से ) आँखें बंद कर चुके हैं । लेकिन नहीं, यह आकलन गलत है । उन्हें अपनी इस प्रेयसी के नाज-नखरों का भी अहसास है । वे यह भी जानते हैं कि ये नखरे जिद्द बनकर एक परिवार (गाँव) में अलग्योझा करा देंगे, उसे कंगाली, बेहाली और भुखमरी के कगार पर ला खड़ा करेंगे और तब उसकी सहानुभूति जताते हुए उसे अकेला और कमजोर पा उसी का गोतिया (नया शहर) उसका घर-दुआर, जमीन-जायदाद और इज्जत-मर्जाद सब हजम कर जएगा । इसलिए वे आगह करते चलते हैं— “गाँवों में बैर, विरोध, हिंसा, बिखराव, वैमनस्य, अराजकता,तनाव और अलगाव ऐसा बढ़ा कि सही अर्थों में वह जंगल हो गया है । मनुष्य जंगली जानवरों की भाँति एक दूसरे पर घात लगाए गुमसुम गुर्राते ऐसे मरे-मरे जीते हैं कि उनके देश, समाज, नैतिकता, मानवता और यहाँ तक कि आनंद उल्लास और सहकार-सहयोग की सुख-भागिता के लिए भी कोई कोना बचा नहीं होता है ।… गाँव के भीतर से उसका देवत्व उजड़ गया है ।” इसलिए यह सोचना कि गाँव के प्रति प्रेम ने उन्हें दृष्टिहीन कर दिया है; गलत है । वे एक मर्मभेदी दृष्टि वाले लेखक थे और उन्हें गाँवों के मर्म की पहचान बहुत गहरी थी।
विवेकी राय का मन एक भारतीय किसान का मन है— सहज और उत्फुल्ल । वह रहस्य, गोपन, दुराव-छिपाव की ‘एम्बीगुइटी’ नहीं जानता । उसका जो भी दुःख-सुख है उसे साहित्य के खुले सिवान में बैठकर वह कहीं-भी, कभी-भी और किसी से भी बाँट लेता है । वह यह नहीं देखाता— आलोचना के खुले खेत में खड़ा है, कहानी की रंग-बिरंगी फुलवारी में बैठा है, गर्मी की दुपहरिया खटिया डाले उपन्यास के घने बगीचे में ऊँघ रहा है, डायरी की छोटी बावड़ी में अपना पैर पखार रहा है या निबंध की प्रशस्त ‘छवर’ पर सिर पर विचारों का बोझ लेकर चल रहा है; उसे तो बस एक श्रोता चाहिए । वह अपना सब कुछ खोल कर रख देगा— अपना अनुभव, अपना मर्म, अपनी हँसी, खुशी, दुःख, नाराजगी, रुचि-अरुचि – सब । विवेकी राय में बतरस का लोभ अपने अन्य सहयात्रियों से अधिक है । अपने निबंधों में वे विचार और चिंतन की ओर बढ़ते हुए अचानक कब छवर पर खड़े होकर गाँव के किसी खेतिहर से बतियाने लगते हैं, पता ही नहीं चलता—
“नशों में सुर्ती श्रेष्ठ है, क्यों महेश बाबू ?” मैंने पूछा । महेश बाबू मौन हो गये । क्षण भर सोचकर बोले:
“नशे सब खराब हैं मास्टर! तुम्हें क्या बताना है । यही कहो कि एक गंदी लत पड़ गयी, अब जब तक मर नहीं जाते गले पड़ी रहेगी ।”
“मेरे कहने का मतलब था,” मैंने झेंपते हुए कहा, जैसे किसी प्रकार बात जारी रखनी थी,“कि कम नुकसान करती है।”
“कम नुकसान करती है? कौन कहता है? देखो!” और खड़े हो कर महेश बाबू ने मेरे सामने मुंह बा दिया । बोले “देखो! अगले चार दांत सुर्ती की वलिवेदी पर चढ़ गये । धन की बरबादी अलग, समय की बरबादी अलग, गन्दी आदत अलग ।”
“जब ऐसा है तो क्यों खाते हैं?” मेरे मुंह से निकल गया ।
“और यही सवाल मैं भी पूछता हूं…..मैं तो गृहस्थ हूं मूर्ख हूं….तुम मास्टर….गुरु….होकर क्यों खाते हो? बोलो जवाब दो।”
विवेकी राय इसतरह के संवादों का जगह-जगह प्रयोग किया है । ये संवाद इतने सहज और चुटीले हैं कि इनसे निबंध जैसी चिंतन-प्रधान विधा में भी रोचकता पैदा हो जाती है । यूँ तो, ललित निबंध विधा ही संवादाश्रयी विधा है । बिना ‘मैं’ के उसका काम ही नहीं चलता । चाहे आचार्य द्विवेदी हों, पंडित विद्यानिवास मिश्र हों या कुबेरनाथ राय— सबने इस संवाद को माध्यम बनाया है, लेकिन विवेकी राय के यहाँ इस तरह के संवादों की भरमार है । इस विधा के वे इसलिए भी विशिष्ट लेखक रहे कि उन्होंने अपने ‘मैं’ को न आचार्य द्विवेदी की तरह विद्वान गपोड़ बनाया, न तो पंडित मिश्र की तरह एक विचारक मनुष्य न ही, कुबेरनाथ राय की तरह तर्कशील और विवेकी मनुष्य के रूप में गढ़ा; उन्होंने अपने ‘मैं’ को अपने परिवेश में सहज छोड़ दिया । वह बस गाँव, घर, दुःख-सुख और आस-पड़ोस की बात बतियाता है । पर, है बड़ा बातूनी । कब अपनी बातों में बाँधे-बाँधे शहर के एक शिक्षित-मानस, सभ्य, संभ्रांत और सुसंस्कृत नागर को भी गाँव के धुरियाए छान-छप्परों के बीच ला खड़ा कर देगा, कह पाना मुश्किल है । नागरिक बोध से सर्वथा दूर ठेठ करइल के सोनवानी गाँव की मिट्टी कब उसके कदमों को बाँध लेगी यह समझना मुश्किल है । करइल की इस मिट्टी की पकड़ बहुत मजबूत होती है, यह बात बरसात के मौसम में सोनवानी की मिट्टी पर पैर रखने वाला ही समझ सकता है । विवेकी राय का मन इसी मिट्टी के रस से पुष्ट हुआ था । इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि उनमें पाठक को बाँध लेने की अनूठी क्षमता थी ।
आज, जबकि विवेकी राय एक व्यक्ति के रूप में हमारे सामने नहीं हैं; उनसे संवाद का एकमात्र जरिया उनका लेखन ही है । उससे बतियाते हुए मुझे अब भी उनके सहज, मृदु और आत्मीय व्यक्तित्व का स्मरण हो आता है । उन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि किसी पंक्ति के बीच में ही वे खिलखिला कर हँस पड़ेगें । उनकी यह सहजता उनकी गँवई मनोभूमि की देन थी। साहित्य में भी वे हमेशा किसान रहे और जीवन में भी। पेशे से अध्यापक जरूर रहे । वहाँ भी वे खाँटी गँवई मास्टर ही रहे— मनबोध मास्टर । एक किसान, एक मास्टर और एक लेखक तीनों ही भूमिकाओं में उनकी मनोभूमि की निर्मिति ठेठ भारतीय थी । एक विशिष्ट अर्थ में वे भारतीय संस्कृति और भारतीय परंपरा की अमूल्य थाती हैं । जब गाँव अतीत की गर्भ में समा चुके होंगे, मॉल और मल्टीप्लेक्स की चमकदमक के बीच गाँव का आदमी पूरी तरह खो चुका होगा, पश्चिम की भंगुर नैतिकता और अस्थिर शील-बोध हमारे शहरों से होते हुए हमारे गावों ( तब की मलिन बस्तियों) को लील चुका होगा; तब भी भारतीय गाँव, भारतीय शील-बोध और भारतीयता की संहिता विवेकी राय का साहित्य हमारे लिए उतना ही प्रासंगिक होगा ।