राजीवरंजन
जब भारतीय साहित्य की बात होती है, तो प्राय: यह कहा जाता है, “भारतीय साहित्य एक है जो विभिन्न भाषाओं में लिखा जाता है।” यही बात संस्कृति के संबंध में भी दोहराई जाती है, “भारतीय संस्कृति तमाम विभिन्नताओं के बावजूद एक है।” अब सवाल यह उठता है कि इस एकता का अधार क्या है? और दूसरा सवाल यह भी कि आखिर इन भिन्नताओं के बावजूद यह ‘भारतीय’ क्यों है ? तात्पर्य यह कि आखिर ‘भारतीयता’ क्या है? ये सवाल अलग अलग नहीं हैं, एक ही सवाल के हिस्से हैं और परस्पर पूरक भी। हमें सबसे पहले ‘भिन्नता के बावजूद एकता’ के सवाल पर विचार करना चाहिए । बिना इसे समझे अन्य पक्षों की सम्यक समझ संभव नहीं है क्योंकि यही इस 'महाभारतीय संस्कृति' (भारतीय संस्कृति में निहित बहुलता को रेंखांकित करने के लिए इसे महाभारतीय संस्कृति भी कहा जाता है) का प्राण-भूत तत्त्व है और इस तथ्य का सबसे लोकप्रिय उदाहरण है, ‘महाभारत’ जो स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि ‘धर्म’ सदैव अविरोधी होता है—
धर्मः यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत्।
अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मः सत्य विक्रमः॥
—महाभारत
धर्म’ का अर्थ रिलीजन या मजहब नहीं। यदि ऐसा होता तो निश्चित तौर पर धर्म से पूर्व कोई विशेषण जरूर प्रयुक्त होता, जैसा कि इस्लाम, यहूदी या ईसाई के साथ है, लेकिन ऐसा नहीं है। कई बार यह भ्रम भी होता है कि धर्म का अर्थ ही सनातन धर्म है जिसे बाद में हिन्दू धर्म कहा गया। लेकिन यह सच नहीं है। मनु और बुद्ध दोनों ने ‘सनातन धर्म’ का प्रयोग किया और अपने-अपने धार्मिक मतों को सनातन धर्म कहा है। यदि आज की मान्यता पर चलें तो ये दोनों ‘परस्पर विरोधी धर्म’ आपस में सनातन की पदवी पाने के लिए लड़ रहे थे। यह भी हो सकता है कि वे आपसी गठबंधन द्वारा किसी पूर्व प्रचलित धर्म को अपदस्थ कर रहे थे। यदि ऐसा नहीं है, तो दो ‘धुर विरोधी’ गुट किसी मिस्टर सनातन कुमार के मंच पर इकट्ठे खडे होकर क्यों भाषण दे रहे थे ? मजे की बात यह की दोनों एक ही बात एक ही अंदाज़ में कह रहे थे-
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियं।
प्रियंच नानृतंब्रूयादेष धर्म सनातनः॥
- मनु स्मृति
न हि बेरेनि बेरानि समन्तीध कुदाचन।
अवेरेन हि समंतीध एसो धम्मो सनन्तनो॥
- धम्मपद
इन दोनों के लिए धर्म जीवन के प्रति एक दृष्टि थी। एक ऐसी दृष्टि जो व्यावहारिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण थी, मानवीय थी इसलिए सनातन थी। मानवीयता ही इस सनातनता की सबसे बडी कसौटी थी। ऐसे में, सनातन का अर्थ है, वह धर्म जो निरन्तर काल से या अनन्त काल से चला आ रहा है और मनुष्य के लिए हितकर है। ‘सनातन’ अपने-आप में बड़ा गतिशील शब्द है क्योंकि इसमें केवल निरंतरता और प्राचीनता का नहीं बल्कि निरन्तर नये होते चलने या विकसित होते चलने का अर्थ भी निहित है। इसीलिए बुद्ध और मनु को विरोधी नहीं हैं, बल्कि धर्म-चिंतन की एक सनातन चलने वाली प्रक्रिया का एक पड़ाव मानता हूँ। दोनों ही सनातन धर्म के विकसनशील चिंतन की दो स्थितियाँ है, एक दूसरे से द्वंद्वात्मक नहीं बल्कि पूर्वापर क्रम में जुड़ी हुई। इन दोनों को समानांतर रखकर द्वंवात्मकता में देखना आधुनिक चिंतनशैली की देन है। भारतीय आर्ष-परंपरा इस द्वंद्वात्मकता में विश्वास नहीं करती। वह युग्म में विश्वास करती है। वह विरोध नहीं, अविरोध में विश्वास करती है और इसी लिए धर्म को अविरोधी मानती है। जो विरोधी है, द्वंद्व मूलक है, परस्पर संघर्ष उत्पन्न करता है वह अधर्म है और ऐसा करने वाला अधर्मी। यही नहीं जहाँ विरोध होगा वहाँ सनातनता का वास भला कैसे हो सकता है, सनातनता की कल्पना तो अविरोध मूलकता में ही संभव है। अतः जो अविरोधी है, वही सनातन है और वही धर्म भी। यह तथ्य है और इसे पुरानी पीढ़ी बहुत मजबूती से पकड़े हुए थी। देश की स्वतंत्रता कुछ ही पहले इकबाल जब यह लिख रहे थे कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना’, तब उनके भीतर से वही परंपरागत भारतीयता बोल रही थी। हाँ बाद में वही धार्मिक आधार पाकिस्तान के प्रस्तावकों में से एक बने और भारत-पाकिस्तान का बँटवारा हुआ। तब उनके परंपरागत बोध के ऊपर उस आधुनिक मन ने कुंडली जमा ली थी, जो ‘धर्म’ को अस्वीकार कर उसकी जगह मूल्य (Value) को ला बिठाता है।
आज हम धर्म की जगह संस्कृति, मूल्य या जीवन-दर्शन जो कह लें, पर इसका पुराना शब्द अपनी भारतीय शब्दावली में ‘धर्म’ ही रहा है। ‘संस्कृति’ और ‘मूल्य’ नए हैं और अंग्रेजी के Culture तथा Value के सगोत्रीय यानी ‘गोतिया’। सगोत्रीय की तुलना में उसका भोजपुरी संस्करण गोतिया ‘कल्चर’ और संस्कृति के रिश्ते को समझने के लिए अधिक सटीक है। मैं इन्हें समानार्थी या अनुवाद की श्रेणी में इसलिए नहीं रखता क्योंकि भाषा शब्द-समूह या संरचना(structure) मात्र नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक परिघटना है। शब्दों के भी अपने संस्कार होते हैं। एक बहुप्रचलित उदाहरण लें तो भारतीय पारिवारिक संबंधों के हिंदी में नाम और यूरोपीय पारिवारिक संबन्धों के अंग्रेजी नामों में भिन्नता की बात कर सकते हैं जो भारतीय भाषा और भारतीय सामाजिक संबंधों दोनों की संपन्नता के उदाहरण हैं; साथ ही सांस्कृतिक संपन्नता के भी। संस्कृति शब्द और व्याकरण दोनों को प्रभावित करती है। एक जमाने में भारत में संस्कृत का व्यवहार होता था, जो श्लिष्टयोगात्मक भाषा थी। उत्तरोत्तर प्राकृत, पालि, अपभंश, और हिन्दी तक आते-आते यह संरचना बदल गई। परसर्गों का विकास हुआ और पद और प्रत्यय अलग होते गए। ऐसा क्यों हुआ इसकी सही और सटीक जानकारी तो समाज-भाषाविज्ञानी ही दे सकते हैं, लेकिन मेरा अनुमान है कि समाज की जरूरतें बदलीं, हम संस्कृति के नए सोपान चढ़ते गए और क्रमशः भाषा के व्यहृत रूप में भी बदलाव आता गया। शब्दों ने अपने अर्थ भी बदले; कुछ का अर्थ-संकोच हुआ और कुछ का विस्तार। कुछ शब्दों ने तो अपने आपको पूर्णतः बदल लिया। स्वयं ‘संस्कृति’ का ही बात करें, इसका आरंभिक प्रयोग आद्यतन प्रयोग से सर्वथा भिन्न है। ऐतरेय ब्राह्मण में एक अंश आता है- ‘आत्मसंस्कृतिवाशिल्पानि। छन्दोमयं वा। एतर्यजमानआत्मानंसंस्कुरुते’। यह भारतीय साहित्य में ‘संस्कृति’ पद का संभवतः पहला प्रयोग है। यहाँ संस्कृति का प्रयोग संस्कार के संदर्भ में हुआ है और इस संस्कार के माध्यम है शिल्प। छंद एक शिल्प है और इसलिए साहित्य या काव्य भी एक कला है, जो आत्म-संस्कृति के लिए रचा जाता है। ये स्थापनाएँ निश्चित तौर पर आदिम या कबालाई जीवन से बहुत आगे बढ़े हुए समाज के चिंतन की उपज है, जहाँ काव्य और शिल्प को जीवन के संस्कार का माध्यम माना जाता हो।
अंग्रेजी का शब्द ‘कल्चर’ कृषि से जुडा है और ‘संस्कृति’ निर्माण से। अगर समाज के ऐतिहासिक विकास के लिहाज़ से देखें और ‘संस्कृति’ की ‘कल्चर’ से तुलना करें तो जाहिर है हम उनसे जेठे ठहरते हैं। यह आत्म गौरव और आत्म-श्लाघा की बात नहीं, बल्कि शब्दों में निहित यथार्थ का उद्घाटन है। इतिहास के अनुसार शिल्प का विकास कृषि के बाद की अर्थात विकसित अवस्था है। पश्चिम का बर्बर जर्मन समुदाय जब कृषि के क्षेत्र से जुडा वह युरोप के लिए सांस्कृतिक विकास का समय था पर भारतीय समाज ने शिल्प के विकास से संस्कृति को जोडा। जाहिर है, हमारे लिए संस्कृति के मूल्यमान उंचे रहे हैं। इतिहास के विद्यार्थियों को कम से कम यह मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिये कि सिन्धु-घाटी सभ्यता नगर सभ्यता थी और नगर-सभ्यता व्यापार से जुडी है। निश्चित तौर पर तब तक शिल्प का विकास हो चुका था, बल्कि वह अपने विकास की एक अच्छी अवस्था में था। इस तथ्य की पुष्टि उस नगर के खंडहरों और अवषेशों से होती है। भवन निर्माण कला, नगर की सुनियोजित बसावट और प्रस्तर मूर्तियों के निर्माण के जो अवशेष वहां मिले हैं, वे उसकी शिल्पगत विकास की स्थिति के गवाह हैं। अतः यह केवल शब्दों के अन्तर या केवल भौगोलिक या भाषायी भिन्नता का मामला नहीं, बल्कि मन-मिजाज अन्तर की पहचान कराता है। यह मानसिक संपन्नता और बौद्धिक विकास का अंतर है। यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि बाहरी सम्पन्नता या आर्थिक विकास मनुष्य को भौतिक समृद्धि तो देती है, लेकिन आत्म-संस्कार के लिए यह कभी-भी कोई शर्त नहीं रही है। यह आवश्यक नहीं कि सम्पन्न दिखने वाला व्यक्ति सुसंस्कृत भी हो। युरोप में औद्योगिक विकास के साथ समृद्धि की एक गगनचुम्बी लहर उठी और उसकी सभ्यता का विश्वव्यापी विस्तार भी हुआ, किंतु औपनिवेशिक शोषण और नरसंहारों से लेकर विश्वयुद्धों की निर्मम दास्तानें उसके सांस्कृतिक औदात्य पर कलंक हैं और ठीक उसी के समानांतर महात्मागांधी के नेतृत्व में सत्य और अहिंसा का आधार लेकर चलने वाला भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन संपूर्ण मानव-संस्कृति की एक अनमोल निधि है। यह इसलिए संभव हुआ कि सम्पन्नता की दृष्टि से पीचे छूटता हुआ भारत आधुनिक सभ्यता के पैमाने पर भले युरोप से पिछड़ने लगा हो उसके अपने आत्म-संस्कार (आत्मिक मूलाधार ) अब भी दृढ़ थे। सत्य और अहिंसा हमारे भीतर संस्कार रूप में पहले से स्थित थे। गांधी ने बस उसे आवाज देकर सजग भर दिया था— हमें अपनी उस शक्ति का ‘प्रतिभिज्ञान’ करा दिया था जिसके अभाव में हम अर्द्ध-निद्रा में झूल रहे थे।
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