गर्मियों के दिन । छुट्टियों का समय । मई के दूसरे या तीसरे सप्ताह में स्कूल और कालेज बंद । घर जाने की उत्सुकता । एक आकर्षण बाबा और दादी की खुशी से चमकती आँखों का । गर्मियों की छुट्टियों के बाद घर से वापस लौटते समय आशीर्वाद में उठे हाथ और भाव-विह्वल आँखों की स्मृतियाँ । ये बचपन के दिन थे । गर्मियों के दिन । आज वे दिन हमें उमस,तपन और चिपचिपपन से भरे लगते है, लेकिन तब ऐसा नहीं था । वे दिन हमारी आजादी के दिन होते थे । किताबों से आजादी के दिन, बड़ों से पढ़ाई लिखाई के लिए डांट-डपट से आजादी के दिन । बाबा-दादी के प्यार - दुलार और अपनत्व के दिन। बाग़-बगीचे से लेकर पोखर-तालाब तक भटकने के दिन । पर ये दिन बहुत छोटे होते थे । पता ही नहीं चलता, कब आए और कब चले गए । हमें फिर वापस उन सबसे दूर आना पड़ता । एक छोटे से कस्बाई जीवन में । यहां गाँव की तरह मिट्टी और खपरैल के छोटे कमरे नहीं होते थे न ही बिजली का अभाव । हाँ तब कूलर तो यहां भी नहीं था । लेकिन इन डोलते हुए पंखों और खुले बड़े कमरों में वह शीतलता कभी नहीं मिली जो गर्मियों की दोपहर में दादी के आँचल में छुपकर सोने में मिलाती थी । अक्सर हमें सुलाते-सुलाते दादी भी सो जाती, कभी-कभी उसका फायदा उठाकर हम धीरे से निकल पड़ते बाग़-बगीचे की ओर । पर ऐसा होता कम ही था दादी की नींद बहुत कच्ची थी। अक्सर हम चोरी से सरकते हुए पकड़ लिए जाते । पर मुझे याद नहीं कि कभी उसके लिए मैंने दादी की डाँट खाई हो। वे हमेशा पुचकार कर मना लेतीं । उनके अस्थि-शेष हाथों में इतना दुलार और उनके झुर्रियों से भरे चहरे में इतना स्नेह था कि हम उसके बंधन को कभी अस्वीकार न कर सके । मुझे याद है घर में जब भी कोई डांटता या मारने को दौड़ाता मैंने हमेशा दादी की शरण ली । उनका आँचल हमारा अमोघ कवच था । अब भी जबकि उस आँचल को हमारे सिर से उठे एक अरसा बीत गया,गर्मियों की इस लू और तपन में मुझे वह आँचल बहुत याद आता है ।
सोमवार, 23 मई 2016
गर्मियों के दिन
गर्मियों के दिन । छुट्टियों का समय । मई के दूसरे या तीसरे सप्ताह में स्कूल और कालेज बंद । घर जाने की उत्सुकता । एक आकर्षण बाबा और दादी की खुशी से चमकती आँखों का । गर्मियों की छुट्टियों के बाद घर से वापस लौटते समय आशीर्वाद में उठे हाथ और भाव-विह्वल आँखों की स्मृतियाँ । ये बचपन के दिन थे । गर्मियों के दिन । आज वे दिन हमें उमस,तपन और चिपचिपपन से भरे लगते है, लेकिन तब ऐसा नहीं था । वे दिन हमारी आजादी के दिन होते थे । किताबों से आजादी के दिन, बड़ों से पढ़ाई लिखाई के लिए डांट-डपट से आजादी के दिन । बाबा-दादी के प्यार - दुलार और अपनत्व के दिन। बाग़-बगीचे से लेकर पोखर-तालाब तक भटकने के दिन । पर ये दिन बहुत छोटे होते थे । पता ही नहीं चलता, कब आए और कब चले गए । हमें फिर वापस उन सबसे दूर आना पड़ता । एक छोटे से कस्बाई जीवन में । यहां गाँव की तरह मिट्टी और खपरैल के छोटे कमरे नहीं होते थे न ही बिजली का अभाव । हाँ तब कूलर तो यहां भी नहीं था । लेकिन इन डोलते हुए पंखों और खुले बड़े कमरों में वह शीतलता कभी नहीं मिली जो गर्मियों की दोपहर में दादी के आँचल में छुपकर सोने में मिलाती थी । अक्सर हमें सुलाते-सुलाते दादी भी सो जाती, कभी-कभी उसका फायदा उठाकर हम धीरे से निकल पड़ते बाग़-बगीचे की ओर । पर ऐसा होता कम ही था दादी की नींद बहुत कच्ची थी। अक्सर हम चोरी से सरकते हुए पकड़ लिए जाते । पर मुझे याद नहीं कि कभी उसके लिए मैंने दादी की डाँट खाई हो। वे हमेशा पुचकार कर मना लेतीं । उनके अस्थि-शेष हाथों में इतना दुलार और उनके झुर्रियों से भरे चहरे में इतना स्नेह था कि हम उसके बंधन को कभी अस्वीकार न कर सके । मुझे याद है घर में जब भी कोई डांटता या मारने को दौड़ाता मैंने हमेशा दादी की शरण ली । उनका आँचल हमारा अमोघ कवच था । अब भी जबकि उस आँचल को हमारे सिर से उठे एक अरसा बीत गया,गर्मियों की इस लू और तपन में मुझे वह आँचल बहुत याद आता है ।
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