जन समुदाय के आत्माभिव्यति का माध्यम भी। यह जितना सही आज है लगभग उतना ही सही कबीर के जमाने में भी था। इसलिए कबीर भारत के उन तमाम लोकप्रिय कवियों में शुमार किये जा सकते हैं, जिनका भारतीय चित्त और मानस की निर्मिति में बड़ा योगदान रहा है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि आज कबीर केवल कबीरपंथियों और सिक्खों (गुरुग्रंथ साहेब में संकलित अंशों के कारण) में ही लोकप्रिय नहीं बल्कि आम भारतीय लोकमानस में बहुत में भी बहुत गहराई से बैठे हैं। पिछले दिनों जब अपने गांव की दलित बस्तियों में ‘चमरुआ’ और ‘कहरुआ’ लोकगीतों के संकलन का प्रयास किया तो यह पाया कि ये ज्यादा तर कबीर के पदों के ही या तो नए लोक-प्रचलित रूप हैं या उसी की तर्ज पर रचे गए निर्गुण और उलटबांसियां। और तब मैंने यह महसूस किया कि कबीर हिन्दी निर्गुं संत-परंपरा के न तो पहले कवि थे न प्रवर्तक, बल्कि यह एक किसी पुरानी चली आती हुई परंपरा के ही चरम विकास थे, जो निची समझी जने वाली जातियों के लोक-कवियों द्वारा विकसित हुई थी। यह मान लेने पर कबीर की उलटबांसियों को चार्यापद या गोरख की परंपरा से जोडने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, बल्कि इससे यह भान होता है कि इन सभी का स्रोत एक ही है और वह है, नीची कही जाने वाली अछूत और कामगार जातियों की लोक परंपरा। अन्यथा केवल एक कवि के कारण यह इतनी लोकप्रिय नहीं हो सकती थीं। उलटबांसियों और निर्गुण साहित्य का स्रोत श्रमिक, अपवंचित और अन्त्यज वर्ग ही है इस मान्यता का एक प्रमाण यह भी है कि इनमें न केवल अटपटापन है बल्कि विषाद की एक गहरी रेखा भी है जो संसार की असारता के रूप में बार-बार व्यक्त हुई है। जो समाज निरन्तर प्रताणित और उपेक्षित रहेगा और हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद जीवन की जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहेगा उसके लिए क्या जन्म और क्या मृत्यु ? क्या बधावा और क्या शोक-वाद्य ?उसे ये दोनों ही स्थितियां समान ही नज़र आयेंगी— “जिहि घर जिता बडावणा तिहिघर तिता अदोह।”
शनिवार, 28 नवंबर 2015
कबीर
कबीर हिन्दी के पहले जातीय कवि थे। उनकी कविताई की भाषा में लगभग उन सभी बोलियों के शब्द खोजे जा सकते हैं जो हिन्दी का लोक-वृत्त निर्मित करती हैं। यह कहना असंगत होगा कि हिन्दी समूचे भारत की भाषा है लेकिन इस तथ्य में भी कोई सन्देह नहीं कि यह बहुसंख्यक भारतीयों की भाषा है और इसलिए भारत के एक बड़े
जन समुदाय के आत्माभिव्यति का माध्यम भी। यह जितना सही आज है लगभग उतना ही सही कबीर के जमाने में भी था। इसलिए कबीर भारत के उन तमाम लोकप्रिय कवियों में शुमार किये जा सकते हैं, जिनका भारतीय चित्त और मानस की निर्मिति में बड़ा योगदान रहा है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि आज कबीर केवल कबीरपंथियों और सिक्खों (गुरुग्रंथ साहेब में संकलित अंशों के कारण) में ही लोकप्रिय नहीं बल्कि आम भारतीय लोकमानस में बहुत में भी बहुत गहराई से बैठे हैं। पिछले दिनों जब अपने गांव की दलित बस्तियों में ‘चमरुआ’ और ‘कहरुआ’ लोकगीतों के संकलन का प्रयास किया तो यह पाया कि ये ज्यादा तर कबीर के पदों के ही या तो नए लोक-प्रचलित रूप हैं या उसी की तर्ज पर रचे गए निर्गुण और उलटबांसियां। और तब मैंने यह महसूस किया कि कबीर हिन्दी निर्गुं संत-परंपरा के न तो पहले कवि थे न प्रवर्तक, बल्कि यह एक किसी पुरानी चली आती हुई परंपरा के ही चरम विकास थे, जो निची समझी जने वाली जातियों के लोक-कवियों द्वारा विकसित हुई थी। यह मान लेने पर कबीर की उलटबांसियों को चार्यापद या गोरख की परंपरा से जोडने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, बल्कि इससे यह भान होता है कि इन सभी का स्रोत एक ही है और वह है, नीची कही जाने वाली अछूत और कामगार जातियों की लोक परंपरा। अन्यथा केवल एक कवि के कारण यह इतनी लोकप्रिय नहीं हो सकती थीं। उलटबांसियों और निर्गुण साहित्य का स्रोत श्रमिक, अपवंचित और अन्त्यज वर्ग ही है इस मान्यता का एक प्रमाण यह भी है कि इनमें न केवल अटपटापन है बल्कि विषाद की एक गहरी रेखा भी है जो संसार की असारता के रूप में बार-बार व्यक्त हुई है। जो समाज निरन्तर प्रताणित और उपेक्षित रहेगा और हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद जीवन की जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहेगा उसके लिए क्या जन्म और क्या मृत्यु ? क्या बधावा और क्या शोक-वाद्य ?उसे ये दोनों ही स्थितियां समान ही नज़र आयेंगी— “जिहि घर जिता बडावणा तिहिघर तिता अदोह।”
जन समुदाय के आत्माभिव्यति का माध्यम भी। यह जितना सही आज है लगभग उतना ही सही कबीर के जमाने में भी था। इसलिए कबीर भारत के उन तमाम लोकप्रिय कवियों में शुमार किये जा सकते हैं, जिनका भारतीय चित्त और मानस की निर्मिति में बड़ा योगदान रहा है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि आज कबीर केवल कबीरपंथियों और सिक्खों (गुरुग्रंथ साहेब में संकलित अंशों के कारण) में ही लोकप्रिय नहीं बल्कि आम भारतीय लोकमानस में बहुत में भी बहुत गहराई से बैठे हैं। पिछले दिनों जब अपने गांव की दलित बस्तियों में ‘चमरुआ’ और ‘कहरुआ’ लोकगीतों के संकलन का प्रयास किया तो यह पाया कि ये ज्यादा तर कबीर के पदों के ही या तो नए लोक-प्रचलित रूप हैं या उसी की तर्ज पर रचे गए निर्गुण और उलटबांसियां। और तब मैंने यह महसूस किया कि कबीर हिन्दी निर्गुं संत-परंपरा के न तो पहले कवि थे न प्रवर्तक, बल्कि यह एक किसी पुरानी चली आती हुई परंपरा के ही चरम विकास थे, जो निची समझी जने वाली जातियों के लोक-कवियों द्वारा विकसित हुई थी। यह मान लेने पर कबीर की उलटबांसियों को चार्यापद या गोरख की परंपरा से जोडने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, बल्कि इससे यह भान होता है कि इन सभी का स्रोत एक ही है और वह है, नीची कही जाने वाली अछूत और कामगार जातियों की लोक परंपरा। अन्यथा केवल एक कवि के कारण यह इतनी लोकप्रिय नहीं हो सकती थीं। उलटबांसियों और निर्गुण साहित्य का स्रोत श्रमिक, अपवंचित और अन्त्यज वर्ग ही है इस मान्यता का एक प्रमाण यह भी है कि इनमें न केवल अटपटापन है बल्कि विषाद की एक गहरी रेखा भी है जो संसार की असारता के रूप में बार-बार व्यक्त हुई है। जो समाज निरन्तर प्रताणित और उपेक्षित रहेगा और हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद जीवन की जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहेगा उसके लिए क्या जन्म और क्या मृत्यु ? क्या बधावा और क्या शोक-वाद्य ?उसे ये दोनों ही स्थितियां समान ही नज़र आयेंगी— “जिहि घर जिता बडावणा तिहिघर तिता अदोह।”
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