शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

उठ जाग मुसाफ़िर : विवेकी राय




विवेकी राय हिन्दी ललित निबन्ध परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं. इस विधा में उनकी गिनती आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदि, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय जैसे शीर्षस्थानीय निबन्धकरों के साथ की जाती है. उनके निबन्ध सग्रह ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ और ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ उनकी पहचान के शुरुआती आधार बनते हैं तो ‘वन तुलसी की गन्ध’ और ‘जगत तपोवन सो कियो’ निबन्ध के क्षेत्र में नए क्षितिज के विस्तर के प्रमाण हैं . इस विधा में उनके अब तक ग्यारह संग्रह प्रकशित हो चुके हैं. ‘उठ जाग मुसफ़िर’ उनका बारहवां निबन्ध संग्रह है. 

     ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ की भूमिका में विवेकी राय ने लिखा है- ‘‘कई बार चर्चाओं में यह बात आई कि ललित निबन्ध एक ठहरी हुई विधा है और इसमें अब ज्यादा कुछ लिखने-करने की सम्भावना नहीं है .’’(पृष्ठ ७) ठीक यही बात रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य संवेदना का विकास’ में लिखी है- ''पर इस माध्यम की कठिनाई यह है कि इसका स्वरुप और इसके आंतरिक तत्व कुछ ऐसे प्रतिमानीकृत हो चुके हैं कि उसमें किसी बड़े प्रयोग की  सम्भावना नहीं रह जाती। प्रताप नारायण लेकर अब तक ललित निबंध के ढांचे में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ" (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास-255). एक ललित निबन्धकार के लिए यह एक बडी चुनौती है . विवेकी राय इस चुनौती  को स्वीकर करते हैं- “मेरे भीतर एक प्रबल संकल्प बनकर उठ गया ‘ अवश्य, ऐसा लग रहा है कि ललित-निबन्ध ठहरी हुई विधा है ' मगर यह ललित निबन्धकार ठहरा हुआ नहीं है.” यही वह चुनौती है जिसने उक्त संग्रह के निबन्धों के लेखन की भूमिका तैयार की. इस पूरी कृति में कुल १० निबन्ध हैं- ‘मेरी दिनचर्या : कुछ आयाम’, ‘नमो वक्षेभ्यः’, ‘उठ जाग मुसाफ़िर’, ‘केना’, ‘ग्रीष्म बहार’, ‘ततः किम्’, ‘तिनडंडिया चोट से उभरा समय और सवाल’, ‘चिन्ता भारत के उजडते गांवो की’, ‘गांव पर बनाम गांव में,’ ‘सवाल जीवन का’.   

विवेकी राय की पहचान बहुआयामी है. वे ललित निबन्ध के साथ ही कथा और कविता विधा में भी सक्रिय रहे हैं. यही कारण है कि कथात्मकता, काव्यत्मकता और वैचारिकता उनके निबन्धों में भी साथ-साथ उपस्थित रहे हैं . ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ समूचा संग्रह इसका अद्वितीय उदहरण है . ‘उठ जग मुसफ़िर’ संग्रह में भी इस तरह के उदहरणों की भरमार है.  इस पुस्तक का ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ निबन्ध मस्टर साहब से मिलने जाने की घटना से शुरू होता है - “वहां जाते समय कल्पना कर रहा था कि सदा की भांति तन-मन से पूर्ण स्वस्थ होंगे , पूर्ववत् धधाकर सहास मिलेंगे, सदाबहार से दिखेंगे फ़ुल्ल-कुसमित...’’( पृष्ठ ४२). यह अन्दाज़ किस्सागोई का है. लेकिन, निबन्ध के अन्त तक आते-आते, सन्दर्भों और तर्कों से गुजरते हुए,वे क्रमशः वैचरिक होते जाते हैं - “यह है माता, मातृ-भूमि, जन्मभूमि, स्वर्गलोक से भी प्यारी, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, एक जगा हुआ व्यक्ति इसके लिए तडप रहा है. इस तडपन में गीता के ऊंचे ज्ञान की गूंज है. यह भूमि (अष्टभेदी प्रकृति में प्रमुख) ही माता है और पुरुष ही परमात्मा पिता है. और न कोई माता है न पिता. वे तो निमित्त मात्र हैं. इसी माता, भूमि, मातृभूमि और सबका भाव जिसके सपनो में डूबा मुसाफ़िर पूरे देश को जगाता है. माता बिन आदर कौन करे, एक धन्यता का भाव है एक भावभीनी जननी जन्मभूमि की प्रार्थना है, एक मन्त्र है, सुमिरन भजन और कीर्तन है, जीवन साधना का सार है,....अन्तिम परीक्षा की घडी में वाल्मीकि की सीता जी ने भी पुकारा था- ‘माधवी देवी विवंर दातुमर्हति.’”. (पृष्ठ-५२) वैचरिक अनुशासन और कथात्मक प्रवाह की यह समन्विति ही विवेकी राय के निबन्धों को अलग पहचान देती है, जो इस संग्रह के अधिकांश निबन्धों में मौजूद है. इसी तरह इस पुस्तक से निबन्धों पर लेखक के कवि मन की छाप के भी कई उदारहरण दिये जा सकते हैं; जैसे, “वह वृक्ष भी आम का ही था जिसे सडक के पास एक खेत में अकेले मस्ती में झूमते हुए देखा था. अरे, वह झूम क्या रहा था, उद्धत-उन्मत्त नृत्य कर रहा था. फल-भार से झुकी डालियां पुरवा हवा के झकोरे खाकर जैसे अंग-अंग मरोडकर, झहर-झहरकर, दाहिने-बाएं झूम-झूमकर, कुछ ऊपर उठ, नीचे झटक जैसे झूले के पेंग में लहरकर स्वयं उत्सवी त्यौहार मना रही थीं. नीचे से ऊपर तक हर डाली का, हर टहनी का, हर पत्ती का और लट्टू-से डांटियों में लटके, झूमते भूरे-कष्णाभ फलों का, अकेले या झोंप-के-झोंप फलों का अलग-अलग जलवा था” (पृष्ठ३०). यहां वर्णन में कविता की-सी लय है और कला जैसी सजीव चित्रात्मकता.            
          ग्रामीण जीवन के प्रति गहरी रागात्मकता उनके लेखन की अपनी एक खास पहचान है. गंवई जीवन के प्रति ऐसा जुडाव हिन्दी के किसी भी निबन्धकार में सर्वथा दुर्लभ रहा है. रेणु के उपन्यासों ने उपन्यास विधा को नई पहचान और एक नया विशेषण ‘आंचलिक उपन्यास’ दिया, उसी तरह विवेकी राय के निबन्ध भी निबन्ध विधा के भीतर खुद को आंचलिक निबन्ध के रूप मे अलग पहचन दे पाते, यदि आचर्य द्विवेदि और उनके पर्वर्ती निबन्धकारों ने ‘ललित निबन्ध’ पद को स्वीकार कर सारे व्यक्ति-व्यंजक निबन्धों को इसकी परिभाषा में समहित न कर लिया होता. ‘नवनिकष’ के विवेकी राय विशेषांक में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में उन्होंने कहा है -“ मेरे लेखन की पष्ठ्भूमि ग्राम-जीवन है. वास्तव में वही मेरा जीवन भी है. लगभग आधी उमर धुर देहत के एक गांव मे गुजारने के बाद  एक अत्यन्त पिछडे और छोटे शहर में आया भी तो शहरी नहीं बन पाया...एक पैर गाजीपुर में रहता है तो एक पैर गांव सोनवानी में रहता है. भारत सरकार की कृपा से गांव वाले पैर को आराम बहुत है क्योंकि गाज़ीपुर से गांव पर जाने के लिए छोटी लाइन के पांचवे स्टेशन ताज़पुर-डेहमा पर उतरने के बाद जाडे-गरमी के दिनों में डेढ घंटा पदयात्रा करना अनिवार्य होता है. बाढ-बरसात के दिनो में यह समय दुगुना से ले कर चौगुना तक हो जाता है. सडक एक दुःस्वप्न है. भारत के लाखों गावों की भांति अभी मेरा गांव भी बिजली और सडक से वंचित है.”(पृष्ठ-७) यही कारण है कि उनके यहां ग्रामीण जीवन के प्रति गहरी लोक-संसक्ति है. उन्होंने अपने समूचे लेखन में गांव को बेहद संजीदगी से जिया है . प्रेमचन्द के ’लमही’ और विवेकी राय के ‘सोनवानी’ में फ़र्क है . लमही बनारस से बहुत नज़दीक है और इसलिए शहर से गांव का लगभग सीधा सम्वाद भी है, गांव और शहर के बीच सम्वाद की यह झलक प्रेमचन्द के लेखन में बार-बार दिखाई भी देती है. ‘गोदान’ में भी ग्रामीण और शहरी परिवेश की एक साथ उपस्थिति है. होरी, धनिया, गोबर, मतादीन, सिलिया आदि ग्रामीण पत्रों के साथ ही रायसाहब, मेहता, मालती, खान्ना जैसे नगरीय जीवन के अभ्यस्त पात्र भी हैं. लेकिन, विवेकी राय ने जिस गांव की बात की है वह इसससे अलग है. यदि सीधे-सीधे कहने की सुविधा हो तो यही कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द के यहां ग्रामीण जीवन का चित्रण है और विवेकी राय के यहां गंवई जीवन और परिवेश की आत्मीय उपस्थिति. गंवई जीवन के प्रति उनके जैसी आत्मियता और उसमें घटित होने वाले बदलावों का वैसा सूक्ष्म रेखांकन केवल फ़णीश्वर नाथ रेणु के उपन्यसों में ही देखा जा सकता है. 
             निबन्ध विधा के भीतर भी उनकी पहचान का एक मजबूत आधार ग्रमीण जीवन के प्रति गहरा लगाव है. ‘उठ जाग मुसाफ़िर’ संग्रह के दो निबन्ध ‘चिन्ता भारत के उजडते गावों की’ और ‘गांव पर बनाम गांव में’ तो शीर्षक से ही ग्रामीण परिवेश से जुडाव व्यक्त करते हैं. ‘तिनडंडिया चोट से उभरा समय और सवाल’ शीर्षक निबन्ध में उन्होंने लिखा है,- “सायंकाल किसी के खेत में ‘कोठा’ छूट जाने का अनुमान होता, अर्थात लगता कि खेत का कुछ भाग छूट जाएगा, तो कुछ समय पहले काम समाप्त हुए किसी भाई का सहयोग मिल जाता-बिना मांगे भी. एक दिन मुझे भी अकस्मात ऐसा ही सहयोग मिल गया और सूर्यास्त होते-होते ‘मेरा कोठा मार दिया गया’...यह प्रेम,भाईचारा,सहयोग और सहकार का अमृत है, जिसे पीकर अकाल पीडित गरीब गांव जीवित है...साठ-सत्तर साल पूर्व का था यह जीता जागता परिदृश्य...स्वराज्य, विकास, नई खेती, नए ढांचे, नई-नई साधन-सम्पन्नता, सुविधा, नए तन्त्र-यन्त्र और मनी-मन्त्र में फंस किसान निरानन्द और गांव उदास क्यों हो गए ?...यह तुम्हरी कैसी सुराजी विकास की नई यान्त्रिक-व्यापरिक खेती है, जिसने ग्राम-देवता को मार डाला और गांव भलमानुस-विहीन हो गया? "(८५-८६). यहां स्वराज, पंचायती राज और समन्वित-विकास की सरकारी होर्डिंगों पोस्टरों और बैनरों से इतर, सरकारी स्लोगनों के ठीक उलट, आज के गांव की वास्तविक तस्वीर है जो पुरानी पिढी की स्मृतियों के गांव के रूप में आज के गांव के सामने डट कर खडी है. लेखक स्मृतियों के उस गांव को अपने लेखन में फ़िर से जी रहा है. यह पुरातनता का मोह या उसके पुनर्जीवन कि आकांक्षा नहीं बल्कि, परम्परा के ‘अस्ति-पक्ष’ को बचाए रखने की एक रचनात्मक जिद है.गांवों की उपेक्षा और उनसे निरन्तर कटते जाने का आभास महात्मा गांधी को बहुत पहले ही हो गया था. ‘हरिजनसेवक’ में ३०-०७-१९३८ को उन्होंने यह लिखा था-“जिन्हें शिक्षा का सौभाग्य प्राप्त है, उन्हें गावों की बहुत समय से उपेक्षा की है. उन्होंने अपने लिए शहरी जीवन चुना है.” इसके बर-अक्स उन्होंने जिस ‘ग्राम-स्वराज’ की बात की थी वह उस ‘सुराज’ से बहुत अलग है, जिसपर विवेकी राय ने व्यंग किया है. उनके सुराज में सहकारी खेती और सहकारी पशुपालन की बात शामिल थी. वे ग्रामीण जीवन के सहयोग और सहकारिता से परिचित थे. उन्होंने गांवों के लिए एक अहिंसक अर्थव्यवस्था की कल्पना की थी, “अहिंसा की रचना कारखानों की सभ्यता की बुनियाद पर नहीं हो सकती है. मेरी कल्पना की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था शोषण का पूरा बहिष्कार करती है और शोषण ही तो हिंसा का सार-तत्व है. इस लिए आपको अहिंसक बनने के लिए पहले ग्रामदृष्टि का विकास करना पडेगा. ” (हरिजन सेवक,१.९.१९४०) स्पष्ट है गांधी ‘ग्राम-दृष्टि’ और ‘ग्राम-जीवन’ को नष्ट किए बिना विकास की बात कर रहे थे गांवों के तथाकथित नगरीकरण और आधुनिकीकरण के नाम पर संसाधनों से लेकर जीवन तक अन्धाधुन्ध यांत्रिकीकरण की नहीं. विवेकी राय की चिन्ता इसी ‘यान्त्रिकीकरण’ के विरोध से जन्मी है. पुराने जमाने की बात करते हुए उक्त अंश में विवेकी राय जिस रागत्मकता को रेखांकित कर रहे हैं, वह आज यांत्रिक होते ग्रामीण जीवन के कारण क्रमशः छीजती जा रही है-“ इसी करवट में ग्राम-विकास की बढती गाडी गावों के उजाड तक पहुंची. विकास तन्त्र, नवजीवित जातिवाद, चुनाव की राजनीति. इन चार रास्तों से चार चोर शनैः शनैः काल्क्रम से, छद्म वेश में घुसे गावों में...गांव बेपहचान हो गया. उसकी सामजिक एकता, पारस्परिक राह-रस्म. भाईचारा और भोज-भात की अन्यतम विशेषताएं तथा ग्राम-भाव के केंद्रीय तत्व-स्वरूप सांस्कृतिक परंपराएं सबकुछ घिस-पिट बदरंग हो समाप्त प्राय है. ”(पृष्ठ-८८) उनकी चिन्ता इन छीजते हुए जीवन-मूल्यों को बचाने की चिन्ता है जो एक बाहरी आदमी के लिए सम्भव नहीं, उसके लिए गांव या तो पिकनिक-स्पाट है या तमाम कुरूपताओं, विसंगतियों और विडम्बनाओं की शरणस्थली. वह या तो उसे संरक्षित करना चाहता है, या फ़िर बदलना. लेकिन विवेकी राय के निबन्ध उससे जुडने, उसे अनुभव करने और जीने के लिए आमंत्रित करते हैं.
विवेकी राय का मन गांव-घर और सिवान-मथार में खूब रमा है. अर्ध-नगरीय कस्बाई जीवन से आ जुडने के बावजूद, वह अब भी उनकी सैर करने निकल जाता है. निबन्ध उनकी इसी मनोयात्रा के सहचर हैं. गांवों के प्रति गहरा आकर्षण बल्कि, मोह की स्थिति के कारण प्रायः यह महसूस होता है कि उनके यहां एक ही विषय का अतिशय दोहराव है और वे इससे बाहर नहीं निकल पाए हैं. लेकिन यह एक सतही अनुभव है. उनके निबन्धों में आहिस्ते-आहिस्ते उतरा जाय तो ऊपर से बहुत सरल और सीधे लगने वाले या रोचक लालित्यपूर्ण निबन्ध भी बहुत गहरी अर्थ-व्यंजकता, उदात्त जीवन-दर्शन और सामजिक-बोध से सम्पन्न हैं. गांव उनके लिए शहस्र-शीर्षा, शहस्र-पाद भारत की एक लघु इकाई हैं. कहा जाता है, एक चावल देख कर तसले के भात के पकने का अंदाज़ा लग जाता है, गांव तसले के उसी चावल की तरह हैं जिनसे भारत में हो रहे बदलावों की नब्ज टटोली जा सकती है. विवेकी राय गांवों के बहाने पूरे भारत की बात करते हैं. भूख, बेरोजगारी, बेकारी, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी तमाम समस्याएं, उनके यहां इसी माध्यम से व्यक्त हुई हैं. ‘फ़िर बैतलवा डाल पर’ संकलन के ‘सोने की लूट’ निबन्ध में गांव के दशहरे के बहाने उन्होंने सामजिक-यथार्थ के अनेक धूप-छाहीं रंगों को मिलाकर ललित निबन्ध के फ़लक पर भारतीय जीवन का एक वास्तविक चित्र अंकित किया है “अब मेरे सामने यह मुट्ठीभर मिट्टी है.यह मिट्टी नहीं लंका का सोना है. सकल विश्व-सम्पदा की राशि को चाकर रखने वाला रावण जल गया. उसकी सोने की लंका में ‘रहा न कुल कोऊ रोवनिहारा’. रामराज्य का श्रीगणेश हो गया.....काश कि वह दिन दूर न होता जब विश्वमंच पर शोषण,बर्बरता,अन्याय...धर्मान्धता और पैशचिकता के दशानन का बध होता” (फ़िर बैतलवा डाल पर,४४). यह एक स्वप्न है, एक शुभाकांक्षा है, जो उनके निबंधों में बार-बार ध्वनित होती है, ‘ग्राम-जीवन’ इसी स्वप्न की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और ऐसा शायद इसलिए कि यहां नगरीय जीवन से कम जतिलताएं हैं और सहज मानुस-भाव अब भी कुछ-न-कुछ हद तक बचा हुआ है-“ रामलीला है, त्यौहारी उल्लास हैं, उर्जस्वित अखाडे हैं, आह्लादक मंगलिक गीत हैं, एक परिवार का मंगलिक महोत्सव जैसे पूरे गांव का है..... सह जीवन सामूहिकता और सहयोग-भाव सर्वोपरि है. ऐसा तो एक दम नहीं हमसे क्या मतलब ?”(पृष्ठ,९८). लेकिन, इन स्थितियों के भीतर भी आधुनिकता ने एक फ़ांक पैदा कर दी है. मांगलिक गीतों की धुन फ़िल्मी गीतों के तिलिस्म में  कहीं खोती जा रही है. कंहरुआ,लोरकी,बिरहा से लेकर विवह गीत, सोहर और देवी गीत तक धीरे -धीरे संग्रहालयों की ओर रुख कर रहे हैं. ‘मास-कल्चर’ और ‘पपुलर कल्चर’ के वर्तमान दौर में देशी; गंवई परंपराओं की बहुरंगी संस्कृति, ‘फ़िल्मी कल्चर’ के छ्तनार वृक्ष के नीचे ‘बोनसाई’ जैसी या एकरूपता के नीरस असीमित विस्तार के बीच किसी ‘ओएसिस’(मरुद्यान) की तरह भूले भटके ही दिखाई दे जाती है. विवेकी राय के शब्दों में, “गांव नकलबाजी में शहर का कर्टून बनकर रह गया है”(पृष्ठ,८९)
देश की आजादी के बाद व्यवस्था के नये तंत्र में गांव सबसे अधिक पीसे गए हैं-उनकी सर्वाधिक क्षति हुई है. शहर जहां आधुनिकता की दौड में बहुत तेजी से आगे निकल गए हैं और उन्होंने अपना ऊपरी केंचुल उतार फ़ेंका है (यह बात अलग है कि मनोग्रंथियां और जटिल हुई हैं) वहीं गांव आधुनिक जीवन की विसंगतियों और पुराने केंचुल दोनों को एक साथ ढो रहे हैं-“ बदलाव के संक्रमणशील आधुनिक स्रोतों के प्रभाव से सीधा-सादा गांव अब विचित्र प्रकार का तिकडमी-फ़ितरती हो गया है.शहर के लोग यदि गांव में चले गए तो ग्रामीण उन्हें लंगी मारकर गिरा सकता है”(चिंता भारत के गावों की,उठ जाग मुसाफ़िर,९३).या फ़िर “ लगता है गांव सडक से उठकर सडक पर आता जा रहा है.  किसान दुकानदार बनता जा रहा है. खेत में खडा है तो उसका चेहरा कुछ और तरह का है तथा सडक पर कुछ और तरह का...अच्छा है बदलाव को विकास कहें...”(गांवपर बनाम गांव में, उठ जाग मुसाफ़िर,१०७). कारण; ‘विकास’, यानी एक बहुत बडा छद्म, जिसे वर्तमान व्यवस्था ने रचा है. विवेकी राय इस छ्द्म का प्रतिवाद करते हैं,“ मैंने वैसे आत्मतुष्ट गावों को देखा है और जिया है जिनके आधे-अधूरे लोग भी अपने आपमें पूरे थे और गांव-पर-गांव का अधिकार रखते थे.” ( वही,८९).  तो फ़िर क्या गांवई जीवन की ओर फ़िर लौट चला जाय, फ़िर उस परम्परा का पुनरुत्थान किया जाय जो पुरानी पड गई है, जो लगातार कदम-कदम पर तार-तार हो रही है, “ मेरा उत्तर है नहीं, यह असम्भव है”(वही,९९). फ़िर उपाय क्या है - शहरों के निरन्तर विस्तार और गांव में घुस आए शहरीपन का स्वागत ! विवेकी राय इससे भी असहमत हैं. वे पुनरुत्थान को तो नकारते ही हैं, अन्धाधुन्ध नगरीकरण के भी परम विरोधी हैं- “मगर उसे इस प्रकार उपेक्षित, प्रवंचित और अधकचरी शहरी मानसिकता में प्रवाहित-पतित आत्मघाती अवस्था में लुढकते जाने देने का समर्थन भी तो नहीं किया जा सकता.”(पृष्ठ-९९). यह द्वंद्व लेखक का निजी द्वंद्व नहीं समुचे गंवई समाज का द्वंद्व है. वह खुद को, अपनी परम्परा को बचए रखने की जद्दोजहद भी कर रहा है और साथ ही आधुनिक जीवन से ताल-मेल बिठाने की कोशिश भी कर रहा है. इन दोनों के बीच वह निरन्तर लिथड रह है-“ पुरातन परम्पराओं, रीति-रहनि और वैश्विक सटाव के दो ध्रुवांतों के बीच आज का ग्राम जीवन अटका-भटकापरम अनिश्चय की स्थिति में है. यह अपने पुरानेपन के सुखद व्यामोह को विस्मृत नहीं कर पाता है...नई पीढी के लिए पुरानी परंपराएं असंगत हो गई हैं. उसे लगता है पुरातनता मात्र एक निष्क्रिय भावात्मक सत्ता है”(पृष्ठ-९१). विवेकी राय इसके समाधान की बात भी करते हैं, जो गांधी-मार्गी है. उनके लिए यही स्वाभाविक भी है क्योंकि वे गांधी-चिन्तन में आस्था रखते हैं. यह बात उनके लेखन से गुजरते हुए, एक सचेत पाठक सहजता से समझ सकता है.
‘उठ जाग मुसाफ़िर’ को पढते समय कभी यह अनुभव होता है कि अपने ही गांव का कोई बडा-बुजुर्ग, कोई पुरनिया नई पीढी के किसी पढे-लिखे युवक को अपनी स्मृतियों की दुनिया की सैर करा रहा है तो कभी लगता है कि ‘कविर्मनीषी परिभूस्वयंभू’ को चरितार्थ करता हुआ कोई लेखक आधुनिक गंवई जीवन की संहिता का दर्शन (ऋषयः मंत्र द्रष्टारः) कर उसके मंत्रों का गान कर रहा है. फ़र्क यह है कि ये मंत्र आदिम मन के मुग्ध-गायन नहीं जैसा कि वैदिक ऋचाओं के सम्बन्ध में माना जाता है, बल्कि लेखक ने यहां असहमतियों के लिए प्रर्याप्त छूट ली है. वह स्वयं उनका भाष्य भी करता चल रहा है.  इस पूरी प्रक्रिया में लेखक का ‘किसान-मन’ अत्यन्त सजग है. इसलिए खेती-बारी, घर-दुआर, गांव-जवार की ही बात नहीं करता बल्कि, वह ऋतु और मौसम की, बतास और बयार की खबर भी रखता है. जब वह प्रकृति में रमता है, तो निरन्तर डूबता जाता है; आकण्ठ नहीं आपद-मस्तक. उसका दर्शन ही है- ‘ज्यों-जों बूडे श्याम रंग त्यॊं-त्यॊं उज्ज्वल होय’. बिना इसके ग्रिष्म जैसे भुतहे मौसम में ‘बहार’ (ग्रिष्म बहार) की कल्पना कहां संभव है ? एक किसान ही है जिसे इस मौसम में भी मजा लेने की आदत है. चैती कटी है, बाग में महुए की मादक गन्ध है, आम के टिकोरे हैं, जौ या चने का सत्तू और आम की चटनी या ‘पन्ना’ है. बारहों महीने यह मौज कहां - कभी फ़ांका और कभी आधा-पेट.  लेखक आज की ‘अपरिचित’ गरमी के बीच उन्हीं दिनों की याद कर रहा है- “किसी बगीचे में पेड के नीचे आराम से सोते-बैठते, हंसते-बोलते लू भरी दोपहरी कट जाती. अब न बाग न वृक्ष ! झंखन में अचेत पडे-पडे भीतर-ही-भीतर गुनावट में डूबे हैं गांव या शहर के वृद्धजन!”(पृष्ठ-६२). किसान का प्रकृति से गहरा नाता है. वह भी उसके परिवार की एक सदस्य है- “गांव के बाहर कचनार अमराइयां हैं, चीं-चीं चहचह से गुलजार बंसवारियां हैं.....वृक्ष देवता भी मानवी रिश्तों में बंधे हैं. नया लगाया गया बाग फ़लदार होने लगा तो उसका विधिवत विवाह हुआ. लगाने वाला व्यक्ति फ़ल नहीं खाएगा” (पृष्ठ-९८). यह है किसान और प्रकृति का रिश्ता. यहां मानव विजेता और प्रकृति विजित नहीं है. डार्विन के ‘श्रेष्ठतम् की उत्तरजीविता’ और सम्भावनावादी भूगोलवेत्तओं का मनव-प्रकृति संबंध यहां लागू नहीं है. यहां मानव  उपभोक्ता और प्रकृति उपभोज्य नहीं है. दोनों में रागात्मक संबन्ध है, साहचर्य और आत्मीयता है. विवेकी राय की चिन्ता मानव और प्रकृति के बीच इस साहचर्य और आत्मीयता को बचए रखने की चिन्ता है. यही गांधी के अहिंसा दर्शन की भी विशेषता है. ये दोनों ही ‘ईशावास्योपनिषद्’ के इस श्लोक से प्रभावित जान पडते हैं –
ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्.
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्चिद्धनम्..
यह केवल आस्था और आस्तिकता की बात नहीं है; बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन है, जिसपर समूचा भारतीय मानस टिका है. भोग के लिए भोग या अनन्त लिप्सा और अनन्त उपभोग नहीं, त्याग और भोग का समन्वय- दोनों की सम स्थिति, यही भारतीय जीवन-दर्शन है- ‘तत्तु  समन्वयात्’. यही भारतीय सौन्दर्य-दृष्टि और भारतीय आर्ष-चिन्तन की रीढ है. यहां वृक्ष देवता है, नदी देवता है, पर्वत देवता है, सूर्य, अग्नि, वायु, थल सब देवता हैं. यहां तक कि अन्न भी देवता है, उससे फ़ूटा अंकुर और हरीभरी फ़सल भी देवता है. भोजपुरी किसान के लिए ‘हर-हर महादेव’ का नारा नहीं; ‘हरियर-हरियर महादेव’ की कामना अधिक महत्व रखती है. विवेकी राय ने उसी किसान और उसकी चेतना की बात की है- “वृक्ष देवता हैं उन्हें काटना या क्षतिग्रस्त करना पाप है”(९८).


 इसी संग्रह में ‘नमो वृक्षेभ्यः’ शीर्षक पूरा निबन्ध ही प्रकृति-मानव-सबन्धों के इसी साहचर्य पर केन्द्रित है. इसमें इस साहचर्य की अनेक स्थितियों का वर्णन किया गया है और  इस परस्परता के क्रमशः क्षरण की चिन्ता भी है- “आश्रय वाली पैरों तले की जमीन खिसकती रहे और ग्लोबल वार्मिंग अफ़वाह नहीं सिर घहराई नाना रूपों वाली सत्यानाशी आपदा बन गहराती रहे तथा वृक्षाश्रित पक्षी-प्राणी बंजर जन-मन को कोसते रहें,मरते रहें,विलुप्त होते रहें, चिन्ता कौन करता है ? भीड में पैर उठे हैं सबका जो होगा, हमारा भी वही होगा.” स्पष्ट है, लेखक के प्रकृति से लगाव का कारण किसान-मन की प्रकृति से सहजात आत्मीयता मात्र नहीं है बल्कि, वैश्विक जीवन की चुनौतियों के प्रति सजग और विवेक-संयुत् मानस की मानव-हित चिन्ता की अभिव्यक्ति भी है. अतः गंवई जीवन और प्राकृतिक परिवेश से विवेकी राय का यह लगाव और आत्मीयता ‘भावुकतापूर्ण अरण्यरोदन’ नहीं, वर्तमान उपभोक्तावादी समय की चुनौतीयों का एक सार्थक विकल्प भी है. 

9 टिप्‍पणियां:

पूजा यादव ने कहा…

आपका बहुत बहुत आभार

Chhatrapal sharma ने कहा…

विवेकी राय जी ने अपनी ग्रामीण जीवन के प्रति जो मनोदशा व्यक्त की है उसे पढ़कर ऐसा मालूम होता है कि उनका जीवन दर्शन ग्रामीण परिपेक्ष में अधिक रमा है इस कारण से कहा जा सकता है कि गांव के विषय में जो बात कही जाती है कि भारत गांव में बसता है यह बात सौ फीसदी सच है किंतु बड़े पदों पर आसीन होने वाले अधिकारियों नेताओं ने गांव के ह्रदय मानस कि हमेशा चिंता नहीं की और गांव आज बिछड़ते और पिछड़ते चले गए जिस प्रकार विवेकी राय जी बताते हैं कि मैं शहरी बनना चाहता था किंतु मेरी दृष्टि गांव में अधिक रमी और मैं शहर में भी आकर के शहरी नहीं बन पाया क्योंकि वह एक सच्चे कृषक का जीवन भोग चुके थे इसी कारण वे शहर की विभिन्न प्रकार की जालसाजी का जीवन को नहीं भोगना चाहते थे इसी प्रकार शहर में एक दूसरे के नजदीक होते हुए भी लोग आपस में आदर सत्कार नहीं करना चाहते जिस प्रकार गांव में आते जाते लोग एक दूसरे को स्वत ही राम-राम कर लेते हैं और ह्रदय के विभिन्न पक्षों को एक दूसरे से लगातार साक्षात्कार करते रहते हैं क्योंकि किसान में कृषक अकेला ही कार्य नहीं करता पूरा परिवार के साथ कार्य करता है इसी प्रकार आस-पड़ोस के सभी कृषक मिलजुल कर एक दूसरे के लिए सुख दुख के साथी होते हैं इसी कारण से यह जो मनोदशा विवेकी राय की हुई यह एक सच्चे ग्रामीण जीवन की है और इसमें कहा जा सकता है आज की आधुनिकता वादी सोच जो शहरों में हावी है जो लोग गांव को छोड़कर आए हैं अक्सर कहते हुए सुने जाते हैं कि देसी खाना और देसी नहाना यह गांव की बात है क्योंकि गांव में हर प्रकार के फल फूल सब्जी सब पहुंच में होता है अधिकार में होता है क्योंकि अपनी मिट्टी से जुड़े हुए किसान मनमाफिक चीजों को उगा सकता है और शहर में आदमी इनका मजा लेने के लिए कृषकों पर आश्रित होता है यह कृषक श्रम होता है जिन्हें शहरी लोग भागते हैं. ग्रामीण जीवन की गाथा को प्रकट करने के लिए तो प्रेमचंद ने अपने गोदान उपन्यास ने बखूबी ग्रामीण जीवन को भोगे हुए यथार्थ का चित्रण किया है जो संपूर्ण जीवन को प्रकट करता है जिस पर और भी लिखा जा सकता है किंतु हमें ग्रामीण जीवन की समस्याओं में यथार्थ को भोंकते हुए अपने ऊपर आदर्श की ही बातों में हमेशा रहना पड़ता है जो गांव की भाग्य रेखा को लिख रहा है.

Chhatrapal sharma ने कहा…

विवेकी राय जी ने अपनी ग्रामीण जीवन के प्रति जो मनोदशा व्यक्त की है उसे पढ़कर ऐसा मालूम होता है कि उनका जीवन दर्शन ग्रामीण परिपेक्ष में अधिक रमा है इस कारण से कहा जा सकता है कि गांव के विषय में जो बात कही जाती है कि भारत गांव में बसता है यह बात सौ फीसदी सच है किंतु बड़े पदों पर आसीन होने वाले अधिकारियों नेताओं ने गांव के ह्रदय मानस कि हमेशा चिंता नहीं की और गांव आज बिछड़ते और पिछड़ते चले गए जिस प्रकार विवेकी राय जी बताते हैं कि मैं शहरी बनना चाहता था किंतु मेरी दृष्टि गांव में अधिक रमी और मैं शहर में भी आकर के शहरी नहीं बन पाया क्योंकि वह एक सच्चे कृषक का जीवन भोग चुके थे इसी कारण वे शहर की विभिन्न प्रकार की जालसाजी का जीवन को नहीं भोगना चाहते थे इसी प्रकार शहर में एक दूसरे के नजदीक होते हुए भी लोग आपस में आदर सत्कार नहीं करना चाहते जिस प्रकार गांव में आते जाते लोग एक दूसरे को स्वत ही राम-राम कर लेते हैं और ह्रदय के विभिन्न पक्षों को एक दूसरे से लगातार साक्षात्कार करते रहते हैं क्योंकि किसान में कृषक अकेला ही कार्य नहीं करता पूरा परिवार के साथ कार्य करता है इसी प्रकार आस-पड़ोस के सभी कृषक मिलजुल कर एक दूसरे के लिए सुख दुख के साथी होते हैं इसी कारण से यह जो मनोदशा विवेकी राय की हुई यह एक सच्चे ग्रामीण जीवन की है और इसमें कहा जा सकता है आज की आधुनिकता वादी सोच जो शहरों में हावी है जो लोग गांव को छोड़कर आए हैं अक्सर कहते हुए सुने जाते हैं कि देसी खाना और देसी नहाना यह गांव की बात है क्योंकि गांव में हर प्रकार के फल फूल सब्जी सब पहुंच में होता है अधिकार में होता है क्योंकि अपनी मिट्टी से जुड़े हुए किसान मनमाफिक चीजों को उगा सकता है और शहर में आदमी इनका मजा लेने के लिए कृषकों पर आश्रित होता है यह कृषक श्रम होता है जिन्हें शहरी लोग भागते हैं. ग्रामीण जीवन की गाथा को प्रकट करने के लिए तो प्रेमचंद ने अपने गोदान उपन्यास ने बखूबी ग्रामीण जीवन को भोगे हुए यथार्थ का चित्रण किया है जो संपूर्ण जीवन को प्रकट करता है जिस पर और भी लिखा जा सकता है किंतु हमें ग्रामीण जीवन की समस्याओं में यथार्थ को भोंकते हुए अपने ऊपर आदर्श की ही बातों में हमेशा रहना पड़ता है जो गांव की भाग्य रेखा को लिख रहा है.

हिंदी की दुनिया ने कहा…

काफी प्रभावी शब्द प्रयोग किया है आपने , बहुत ही उम्दा 👌👌

बेनामी ने कहा…

अच्छी टिप्पणी

Unknown ने कहा…

बहुत ही अच्छा।

team building color personality test ने कहा…

Since its development in 1978, True Colors™ has become a popular personality type indicator because of its simplicity—it categorizes personality type with colors. Don Lowry took previous personality type concepts and applied them to the metaphors of colors—Gold, Green, Orange, and Blue—as the four temperaments. Results from other personality type indicators could be difficult to remember, Lowry said, so he wanted to develop an assessment that had results everyone could understand and remember. True Colors bases its assessment of personality on several tiers of three-word clusters for people to choose from. By ranking the word cluster they most identify with through the one that they least identify with, respondents can easily and quickly see which of the four personality type "colors" they most closely align with. The True Colors personality type assessment can be answered in less than 20 minutes.

Lowry points out that each person is made up of all of the four personality color types, but that some colors "shine brighter" than others. The color with the highest point total in the True Colors assessment is the "brightest" color, while the one that scores the lowest is the "palest" color, and the two other colors emerge in varying "shades" (Miscisin, 2010). If a person's brightest color is Gold, the person tends to have these characteristics: steadfast, loyal, traditional, rule follower or rule maker, parental, orderly, structured, punctual, and precise. Those scoring highest as Orange are adventurers and have a zest for life; they are charming, witty, and spontaneous, and like to entertain others. They have a hunger for excitement and light-heartedness. Blues are relational. They are compassionate, romantic, empathetic, and nurturing; they see the best in others and like to please people. Greens are analytical. They are logical, rational, objective, knowledgeable, and self-controlled. The four personality types correspond roughly to some of the dichotomies in the Myers-Briggs Personality Type Indicator, which is discussed in Using the Myers-Brigg Personality Type Indicator to Strengthen Extension Programs: Thinking (Green), Feeling (Blue), Judging (Gold), and Perceiving (Orange).

letter of recommendation request ने कहा…

Depending on context and issuer, reference letters can be either:

specifically requested to be written about someone, and therefore addressed to a particular requester (such as a new employer, university admissions officer)
or may be issued to the person being recommended without specifying an addressee
For example, a German Arbeitszeugnis is usually issued automatically to a leaving employee, and is therefore not addressed to a particular requester. A letter of recommendation for a university of college in the US is usually written for and addressed to a specific institution the student wants to apply to.

If the letter is addressed to a particular requester, the letter will often be sent directly to that requester, and not to the applicant. In that case, applicants usually have the right to view a copy of the letter. Some applications, such as professional schools, give applicants the choice to waive their right to view their letters. Usually, applicants are encouraged to waive their rights because if they do not, it is a sign they are not confident in their recommenders.

बेनामी ने कहा…

बहुत बढ़िया