बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

संवेदना

संवेदना


कितना बेजान है
वह सच
जिसे सुन अब
नहीं होती उत्तेजना
न मातम
न कोई आह

मर जाना किसी का
किसी का मारा जाना सरेआम
किसी को कर देना घर्षित
सरे-राह
दिन दहाड़े ही लूट लेना
किसी बेबस गरीब को

नहीं सुनाता  कोई भी
चीख आह या कराह
चोट खाये मन कि
नहीं देखता सैलाब
आंसुओं कि
तड़प या बेचैनी

तय होता सब
बस एक  कद से
कौन है खास कितना
या
कितना आम

उदासी , गमगीन माहौल
आंसुओं में डूबा सैलाब
विरोध में उठे हाथ
कितने हैं
कितनी संवेदनाएं
और बुझे हुए चेहरे--
अनुभूतियों में वेदना की
कितने हैं

सब होता तय
सब पूर्व नियोजित
टी आर पी कि होड़ में
सब कुछ बस
आयोजित-प्रायोजित

अपनी तो बस
जुड़ आती एक शाम
खाते में और उदासी के।

……............................................ उन बेगुनाहों के लिए, जो पटना में शहंशाह के दिग्विजय- रथ के पहियों से कुचल गए