रविवार, 17 नवंबर 2013

बदमाश



वह बेजुबां  नहीं 
हिल रही थी उसकी जीभ
वह चुप है 
क्योंकि नहीं चाहता 
बोलना 

वह नहीं है गरीब 
ढकी है उसकी देह 
कपडे से, 
ये बात और-
नहीं है तहजीब
लपेटे है  लुंगी
फटी-मैली 
अपने तन पर
बजाय पहने के 
सलीके से ,

और भूखा .. 
बिलकुल ग़लत
खर रहा था घास
कल ही
पिछवाड़े मेरे बंगले के 
है शाकाहारी जो,

बेहद बदमाश .. 
कुंकियता रहा फिर भी
दरवाजे पर मेरे
पहरेदारी में लग गई
ठण्ड 
नाहक मेरे डौगी को। 



बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

संवेदना

संवेदना


कितना बेजान है
वह सच
जिसे सुन अब
नहीं होती उत्तेजना
न मातम
न कोई आह

मर जाना किसी का
किसी का मारा जाना सरेआम
किसी को कर देना घर्षित
सरे-राह
दिन दहाड़े ही लूट लेना
किसी बेबस गरीब को

नहीं सुनाता  कोई भी
चीख आह या कराह
चोट खाये मन कि
नहीं देखता सैलाब
आंसुओं कि
तड़प या बेचैनी

तय होता सब
बस एक  कद से
कौन है खास कितना
या
कितना आम

उदासी , गमगीन माहौल
आंसुओं में डूबा सैलाब
विरोध में उठे हाथ
कितने हैं
कितनी संवेदनाएं
और बुझे हुए चेहरे--
अनुभूतियों में वेदना की
कितने हैं

सब होता तय
सब पूर्व नियोजित
टी आर पी कि होड़ में
सब कुछ बस
आयोजित-प्रायोजित

अपनी तो बस
जुड़ आती एक शाम
खाते में और उदासी के।

……............................................ उन बेगुनाहों के लिए, जो पटना में शहंशाह के दिग्विजय- रथ के पहियों से कुचल गए

शनिवार, 21 सितंबर 2013

देहरी


झुक जाता सिर
रखता हूँ जब भी कदम 
देहरी पर 

मां का दुलार 
दादी की नाम आंखे
बाबा के उठे हुए हाथ
आ टिकते सब
बस एक देहरी पर

चल-चलाई आँखों से
विदा करती मां
वापसी की उम्मीद में

हुलास पड़ते ठिठके कदम
लौटते हुए देहरी पर

यह कोई हिस्सा नहीं
घर के भूगोल का
वजूद मेरा
मेरे होने का
मेरे घर का
सब कुछ टिका है
बस एक देहरी पर .

शब्द



शब्द !
मुझे शब्द चाहिए-
हथौड़े का नहीं 
चोट खाए लोहे का शब्द.

मधुमयी रात में रति-गृह के प्रेमालाप नहीं,
निशीथ के निःशब्द एकांत को
चीरने वाले झींगुर के निर्मम शब्द,

दो पाटों के बीच बहाने वाली
नदी की मधुर कल-कल नहीं,
निःसीम गरलगर्भ सागर की
गर्जना के भीषण शब्द,

जीवन के उल्लास
मरण की शांति
के बीच तडफडाती
उत्तेजना के शब्द.

मुझे चाहिए –
अघाकर डकारते कंठ का स्वर नहीं,
भूख से कुलबुलाती अंतड़ियों के शब्द ,
बाजरे के भात के बुद-बुदाते शब्द नहीं,
उसकी ओर उम्मीद से ताकती
भूखी निगाहों के शब्द.

मुझे चाहिए -
तबे पर पलटी जाती
पहली रोटी के शब्द,
चिमटे का शब्द,
खालि बटलोई में
चलते हुए कलछुल के शब्द.

शब्द ! शब्द !!
मुझे शब्द चाहिए -
नहीं चाहिए प्राणवाक्षर ,
नहीं चाहिए सतश्री अकाल,
नहीं चाहिए अल्ला हो अकबर,

मुझे चाहिए ,
इन ध्वनिओं की ओट में दबे शब्द
अजन्मी बच्ची के ,
जलती रही जो
हिंसा-प्रतिहिंसा की आग में
जन्म-जन्मान्तर ,

शब्द,
मुझे सिर्फ शब्द वह चाहिए
जिसमें
मैं होऊं तुम होवो
हमारी बातें हों
बिना किसी ‘वह’ की गुंजाईश के.

रविवार, 8 सितंबर 2013

सब साजिश है….



कोई चील 
लगता है चक्कर 
ठीक ऊपर मेरे सिर के
घट न जाय कोई अघट
बैठ जाता मैं दुबक कर। 

रात भर
लगाता रहा रट
उल्लू कोई
मेरे ही नाम की

सुबह दिखी लाश
बिछी हुई
आँखों के आगे
अपनी ही

तैनात फौजें
दिन रात मेरी ही खातिर
फिर भी लूटा गया मैं
बार-बार संगीनों के साये में

खैरियत की खातिर
तैनात रहा अमला
हकीमों का
हर वक्त
लेकिन
सताता रहा जुलाब
बढती रही धुक-धुकी कलेजे की
अंदेशा रुकने का सांसों के

वेंटिलेटर पर लेटा हुआ
मससूस करता रहा
निकल आया
खतरे की सीमा के भीतर
फिर भी मैं जिन्दा हूँ

वे चिल्लाते रहे
किले की दीवार से
कि
मैं अभी जिन्दा हूँ

वे बंद कमरे
में करते रहे
कुसूर-फुसुर
कि
मैं अभी जिन्दा हूँ

उछला सवाल संसद में
जवाब आया
कि
मैं अभी जिन्दा हूँ

हडबडाई-सी आई आवाज़
मेरे पीछे से
सचमुच क्या जिन्दा है -
राष्ट्रधर्म!
अर्थव्यवस्था !!
देश !!!

हौले से कहा
किसी ने
चुपकर
सब साजिश है….

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

खुला-खुला-सा कुछ

खुला-खुला-सा कुछ


खुली हवा के लिए 
बैठीं हैं औरतें
खिडकियों पर 
ढांपे हुए मुंह

ले रही हैं खुली धूप
आंगन में घर के

खुलासे के लिए
बातों की
खड़ी हैं
लगे हुए ओट
किवाड़ की

कानों में खुसुर-फुसुर
कहनी हैं बातें
खोलकर कर अपना मन

मर्दाने दालान की ओर
टिकी हुई ऑंखें
रह जातीं खुलीं-खुलीं

खुला-खुला-सा सबकुछ है

चाहती हैं फिर क्यों
औरतें
हो अपने भी जीवन में
खुला-खुला-सा कुछ ।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

वक्त

वक्त

सुनाता रहा बोलना
शब्द-प्रतिशब्द
टटोलता रहा आहट
हर एक पद-चाप की
झांकता रहा
हर नीम अँधेरे कोने में
पर
वक्त फिसलता रहा
धीरे-धीरे
बिना किसी शब्द
बिना आहट
बिना पहचान .

सच




सच !
तुम तनहा हो कितने ?
तुम्हें नहीं आते वादे 
सुन्दर भविष्य के 
बाँचने हाथों की लकीरें 
दिखने जादू-तमाशे 
या फिर
गाजे-बाजे
झंडे-पताके के बीच
दिखाना अपना खुशदिल मुस्कुराता चेहरा?

सच !
तुम हो कितने उदास
नहीं खेल सकते तुम
भावनाओं से लोगों की
दुखों से नहीं कर सकते चुहल
औरों के,
क्या सचमुच
नहीं मुस्कुरा सकते तुम
किसी के आंसुओं के बदले ?

सच!
कितने उपेक्षित हो तुम
क्या है तुम्हारा जाति-गोत्र-शील
क्यों नहीं झूमते
डाल गलबहियाँ
साथ अपने गोतियों के ?

बोलो तो
कब तक रहोगे चुप
बांधे लाल रिबन
मुंह पर ?

आओ बैठो
करें बातें
कुछ अपने मन की
कुछ तुम्हारे.

भाई सच !
मैं भी हूँ
तनहा
उदास
उपेक्षित
तुम्हारी तरह
पर अब
नहीं रहा जाता चुप
दम साधे.

अब बोलना ही होगा
मुझे
तुम्हें
और उन्हें
जो रहते आये हैं चुप
सदियों से .

बुधवार, 16 जनवरी 2013

घरौंदे


लड़कियाँ बनती हैं घरौंदे
रखती हैं
एक अदद चूल्हा
मिट्टी का,
लकड़ियाँ , चारपाई
छोटे छोटे बर्तन-भाड़े
फूस और मिट्टी के
देखती है स्वप्न
रचने का अपना घर ,
लड़कियाँ बनती हैं पुतली
जोड़-गांठ कर फटे-पुराने कपडे
सजाती हैं उसे गहनों से
बनती हैं दुल्लहन
रचती हैं ब्याह--
स्वप्न भविष्य का
लडके बाराती बनते हैं
खाते हैं महुए के पत्तलों में
भांति भांति के व्यंजन
बिदा करते हैं दुल्हन
बर्तन-भाड़ों के साथ

लड़कियाँ अगोरती हैं
खाली घर ओसारे
आंगन में चारपाई से सर टिका
सो रहती हैं जैसे सोईं हों मांएं
बाद बेटी की बिदाई के.

पगडंडियाँ

संवदिया के युवा कविता विशेषांक में प्रकाशित मेरी कविता ............ 

पगडंडियाँ 

(1)
पगडंडियों से 
सड-कों की ओर
भाग रहा सरपट ,
भागना सड-कों की ओर
शुरुआत
भागने की गाँव से शहर
बसने की नया गाँव शहरों में
न पगडंडियाँ
न सड़कें
न सुथरी हवा
पतली गलियां
बजबजाती नालियां
नालियों में रेंगते
'बच्चे शहर के' A

(2)
पगडंडियाँ
जाती हैं गाँव
हरे-भरे खेतों के बीच से,
साँझ की मीठी हवा में
ठहर जाते बोझिल कदम
पगडंडियों से जाते-जाते घर
कोई एक झोंका हवा का
बांध लेता बढे हुए कदमों को
जगा देता चाह विलमकर सुस्ताने की
तब याद आता घर
चल पड़ते कदम
घर की ओर पगडंडियों से

(3)
पगडंडियाँ
जाती हैं खेतों की ओर
घरों से - गाँव से ,
चरती हैं गाएँ
पगडंडियों के अगल-बगल
झुकी है चनरी घसियारिन
तय करती रिश्ते खुरपी के घास से
तय करते रिश्ते तो आदित महराज भी
तिथि और वर देख पतरों से
पुराना है लेकिन उससे कहीं
रिश्ता चनरी का घास से

(4)
पगडंडियाँ
रोकती हैं
घेतरी हैं
बांध लेती हैं
घुमावदार मोड़ों में ,
कहतीं -
ठहर जाओ
जाते-जाते दूर पगडंडियों से,
आओ
बैठो
सुस्ता लो
पी-लो
घूंट- दो घूँट पानी
लेकर कुँए से
चूस लो दो गन्ने
नहीं बोलेगा कोई
मैं हूँ न A

लौटे थे बहुत दिन बाद
फिर कहाँ ?

रुको न , पल दो पलA
कहाँ-कहाँ भटकोगे
धुप में - लू में ?

लो अच्छा,
ले-लो टिकोरे दो-चार
उखड लो थान-दो थान पुदीना
कम आएंगें
हरी-बीमारी में
वहां नहीं होगा कोई अपना A

सुनते जाओ
कथा एक राहगीर की
गया पर लौटा नहीं
लौटेगा अब क्या ...
लौटे नहीं अब तक वे
पठाया था सनेसा
जिन-जिन से लौटने का .

(5)
लो,
लौट आया
उन्हीं पगडंडियों पर
फिर से ,
खोजता नए छोर
कटान-दिशाएँ ,
कितने घुमाव
कितने मोड़
कितनी गुँथी हैं ये पगडंडियाँ...
क्या नहीं जाता कोई रास्ता
सीधे
सडकों से गाँव की ओर ?