रविवार, 9 जनवरी 2011

कबूतर

मैं नभचारी
मैं उन्मुक्त
पर दरख्तों की टहनियों पर नहीं बसता
नहीं बनाता आशियाने अपने लिए
मुझे तलाश रहती है
रोशनदनों, झरोखों और मुरेडों की नक्काशीदार
अब भी.
अब भी लगाता हूं चक्कर
बीरान खण्डहरों की
जहां बची है थोडी सी जगह
मेरे लिये
थोडी सी आस
गुजारने कि रात
सहने कि शीत-घाम-वर्षा.
जो अनुपयोगी हैं
तुम्हारे लिए अब.

आखिर
समय कि पीठ पर पैर रख कर गुजरना ही तो सीखा है
अब तक तुमने
और मैंने
मुड-मुड के देखना
आवाज देना वक्त को __ गुटुरगूं-गुटुरगूं.
तभी तो तुम ठहरे मनुष्य
और मैं कबूतर.

शनिवार, 8 जनवरी 2011

भाई गिरगिट

भाई गिरगिट !
मैंने सुना है तुम रंग बदलते हो
परिस्थितियों के अनुकूल.
पर पता है
आजकल परिस्थितियाँ बदली जारही हैं
रंगों के अनुकूल.
तुम नहीं कर पाये ऐसा
सिर हिलाते रहे
सत्ता कि हाँ मेंहँ मिलाते रहे
पर तुम्हारी दुम--
जड थी
पर हमने
सिर और दुम दोनों
हिलाने की कला सीख ली है साथ-साथ.
मेरे भाई तभी तो तुम गिरगिट ठहरे
और हम मनुष्य.

छतें जिन्दा थीं



खडा हूँ,
आज फिर उसी छत पर
बहुत दिनों बाद,
अपनी उसी नियत जगह पर
जहाँ खडा होता रहा था तब तक
जब सिल-सिला बन्द नहीं हुआ था
आने का छत पर
खडे होने का --
छत के उस कोने में
दो रस्तों के कटन विन्दु पर
देखता था सडक पर
आती-जाती साइकिलें,रिक्शे और कभी कभी तांगे भी
आते-जाते पैदल लोगोंको देखने की जरूरत नहीं थी
वे दिख जाते थे -- आते-जाते यूँ ही
तब,
कुछ ऊधम मचाते शरारती बच्चे
सडक के भीतरी हिस्से में,
बस्ते से लदे-फदे बोझिल बच्चे,
कितबों को बहोन मेन समेटे स्कूली लडकियाँ
हँसी ठठ्ठा करते स्कूली लडके,

तब छतें मनसयन थीं
हर छत पर नियत थी किसी ना किसी की जगह --
नहाने की खाने की
बैठ कर सेंकने की देह गुनगुनाती धूप मेँ
या फिर गपियाने और निहारने की बेवजह सडकों को
आते-जाते लोगों को गाडियों को तांगों और रिक्शों को .

तब छतें बोलती थीं, बतियती थीं
कनबतियाँ-अँखबतियाँ करती थी
कभी-कभी लडती झगडती भी थीं

तब छतें जिन्दा थीं.