शनिवार, 14 दिसंबर 2024

ह्यूमन एक्ट्स: हान कांग


"ह्यूमन एक्ट्स" दक्षिण कोरियाई लेखिका हान कांग का एक ऐसा उपन्यास है, जो मानवाधिकार, हिंसा, और पीड़ा के मुद्दों पर गहराई से विचार करता है। यह पुस्तक 1980 में दक्षिण कोरिया के ग्वांगजू विद्रोह और उसके भीषण दमन के दौरान हुई घटनाओं को आधार बनाकर लिखी गई है। इसमें न केवल ऐतिहासिक सच्चाईयों का चित्रण है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं की जटिलताओं को भी उजागर किया गया है।


कहानी का सारांश:

ग्वांगजू विद्रोह में एक युवा छात्र डोंग-हो की मौत के साथ कहानी शुरू होती है। उसकी मृत्यु के इर्द-गिर्द घूमते हुए, यह उपन्यास उन लोगों की भावनाओं और संघर्षों को सामने लाता है, जो इस हिंसा से प्रभावित होते हैं। हर अध्याय एक अलग पात्र की दृष्टि से लिखा गया है—कभी डोंग-हो के मित्र, कभी एक संपादक, और कभी एक मृत आत्मा के रूप में। यह संरचना पाठकों को हिंसा के व्यक्तिगत और सामूहिक प्रभाव दोनों से जोड़ती है।


मुख्य विषय:

  1. हिंसा और पीड़ा:

    • उपन्यास यह दिखाता है कि कैसे एक तानाशाही सत्ता निर्दोष नागरिकों के जीवन को तहस-नहस कर सकती है।
    • हिंसा का शारीरिक और मानसिक प्रभाव उपन्यास की प्रत्येक पंक्ति में झलकता है।
  2. स्मृति और सामूहिक दर्द:

    • इसमें उन यादों और दर्द की बात की गई है, जिन्हें समय मिटा नहीं सकता।
    • यह पुस्तक हमें उस दर्द से जोड़ती है, जो पीढ़ियों तक लोगों को प्रभावित करता है।
  3. मानवीय गरिमा:

    • "ह्यूमन एक्ट्स" इस सवाल को उठाती है कि क्रूरता और अमानवीयता के बीच मानवता कैसे जीवित रह सकती है।

शैली और भाषा:

हान कांग की लेखनी मार्मिक और गहराई लिए हुए है। उनकी भाषा में एक ऐसी काव्यात्मकता है, जो पाठकों को घटनाओं का हिस्सा बना देती है। अनुवाद (डेबोरा स्मिथ द्वारा) भी अत्यंत प्रभावशाली है, जो मूल कोरियाई भाषा के भावों को सुंदरता से प्रस्तुत करता है।


सकारात्मक पहलू:

  1. भावनात्मक गहराई:
    यह उपन्यास पाठकों को गहराई से झकझोरता है और उन्हें हिंसा के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने पर मजबूर करता है।
  2. चरित्र चित्रण:
    हर पात्र का अनुभव और उसकी प्रतिक्रिया कहानी को और जीवंत बनाते हैं।
  3. संदेश:
    उपन्यास सहानुभूति, करुणा और मानवता की शक्ति को रेखांकित करता है।

नकारात्मक पहलू:

  1. कठिन पढ़ाई:
    कुछ पाठकों के लिए यह उपन्यास पढ़ना कठिन हो सकता है क्योंकि इसकी विषयवस्तु बहुत ही भावुक और दुखद है।
  2. धीमी गति:
    कहानी की संरचना धीमी गति से आगे बढ़ती है, जो कभी-कभी धैर्य की परीक्षा लेती है।

पुस्तक का संदेश:

"ह्यूमन एक्ट्स" पाठकों को यह समझने का मौका देती है कि हिंसा और क्रूरता केवल शारीरिक क्षति तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह स्मृतियों और आत्मा तक को घायल कर देती है। यह पुस्तक न्याय, मानवाधिकार और सहनशीलता के महत्व पर जोर देती है।


निष्कर्ष:

यह पुस्तक उन लोगों के लिए है, जो गंभीर साहित्य पढ़ने और मानवता के गहरे सवालों का सामना करने का साहस रखते हैं। "ह्यूमन एक्ट्स" केवल एक ऐतिहासिक कथा नहीं है; यह मानवता का दर्पण है।

मंगलवार, 26 नवंबर 2024

हान कांग की रचना द वेजिटेरियन की समीक्षा



हान कांग का उपन्यास द वेजिटेरियन (2007) न केवल दक्षिण कोरियाई साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, बल्कि यह विश्व साहित्य में भी एक अलग स्थान रखता है। 2016 में इस पुस्तक ने अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता और हान कांग को वैश्विक ख्याति दिलाई। यह उपन्यास नारीवाद, मानवता, मानसिक स्वास्थ्य, और सामाजिक दबावों जैसे जटिल विषयों को खूबसूरती और गहराई के साथ प्रस्तुत करता है।


कथानक और संरचना

उपन्यास तीन भागों में विभाजित है, और प्रत्येक भाग एक अलग दृष्टिकोण से कहानी को प्रस्तुत करता है। यह कहानी एक साधारण महिला यॉन्गहे के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अचानक मांसाहार छोड़ने का फैसला करती है।

यह निर्णय एक प्रतीत होने वाला साधारण कदम है, लेकिन इसका उसके परिवार और समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। यॉन्गहे का मांसाहार छोड़ना केवल एक व्यक्तिगत पसंद नहीं, बल्कि वह सामाजिक और पितृसत्तात्मक संरचनाओं के खिलाफ एक मौन विद्रोह है।

तीन दृष्टिकोण

  1. पहला भाग (द वेजिटेरियन):
    कहानी यॉन्गहे के पति के दृष्टिकोण से शुरू होती है, जो उसे "साधारण और उबाऊ" महिला मानता है। यॉन्गहे का अचानक शाकाहारी बनने का निर्णय उसके पति के लिए असुविधा और क्रोध का कारण बनता है। पति का व्यवहार एक ऐसे समाज का प्रतीक है, जहां महिलाओं की स्वतंत्रता और उनकी पसंद का सम्मान नहीं किया जाता।

  2. दूसरा भाग (मंगोल स्पॉट):
    यह हिस्सा यॉन्गहे के जीजा की दृष्टि से बताया गया है। वह यॉन्गहे के शरीर को कला और कामुकता के माध्यम से देखता है। यह भाग यॉन्गहे की वस्तुकरण और समाज द्वारा उसकी पहचान मिटाने पर केंद्रित है।

  3. तीसरा भाग (फ्लेम्स):
    कहानी यॉन्गहे की बहन के दृष्टिकोण से खत्म होती है, जो उसकी मानसिक और शारीरिक गिरावट को देखती है। यॉन्गहे की बहन का संघर्ष दिखाता है कि पारिवारिक संबंधों के बीच व्यक्तिगत स्वतंत्रता की खोज कितनी मुश्किल हो सकती है।


प्रमुख विषय

  1. मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक दबाव:
    यॉन्गहे का शाकाहारी बनने का फैसला उसकी मानसिक स्थिति का प्रतिबिंब है। यह समाज के पितृसत्तात्मक और दमनकारी रवैये के खिलाफ उसका एकमात्र विद्रोह है। उपन्यास मानसिक स्वास्थ्य के प्रति समाज की उदासीनता को उजागर करता है।

  2. शरीर और स्वायत्तता:
    द वेजिटेरियन शरीर पर नियंत्रण, इच्छा, और समाज द्वारा लगाए गए मानकों पर सवाल उठाती है। यॉन्गहे के शरीर को उसके पति, जीजा, और डॉक्टर सभी अपने-अपने नजरिए से देखना चाहते हैं, लेकिन उसकी अपनी पहचान और इच्छाओं को अनदेखा करते हैं।

  3. कला और हिंसा:
    उपन्यास में कई प्रतीकात्मक दृश्य हैं, जहां कला और हिंसा एक साथ दिखाई देती हैं। यॉन्गहे का जीजा उसकी नग्नता को कला के रूप में देखता है, लेकिन यह उसकी स्वायत्तता का उल्लंघन भी है।

  4. पर्यावरण और आध्यात्मिकता:
    यॉन्गहे के शाकाहारी बनने और अंततः खाना छोड़ने का निर्णय प्रकृति और शांति की ओर लौटने की उसकी इच्छा को दर्शाता है। वह पेड़ बनना चाहती है—एक ऐसा अस्तित्व जो हिंसा और उपभोग से मुक्त हो।


भाषा और शैली

हान कांग की लेखनी काव्यात्मक और तीव्र है। उपन्यास के छोटे-छोटे वाक्य, सरल भाषा, और प्रतीकात्मकता इसे गहराई प्रदान करते हैं। यॉन्गहे के सपनों के दृश्य डरावने और भ्रामक होते हैं, लेकिन वे उसके मन की स्थिति को गहराई से व्यक्त करते हैं।


समीक्षा और आलोचना

  1. प्रशंसा:
    द वेजिटेरियन को उसके गहन प्रतीकवाद, साहसिक विषयों, और यथार्थवादी चरित्रों के लिए सराहा गया। इसकी काव्यात्मकता और गहराई इसे एक असाधारण कृति बनाती है।

  2. आलोचना:
    कुछ आलोचकों का मानना है कि उपन्यास का प्रयोगात्मक स्वरूप और अधूरे संवाद हर पाठक के लिए सहज नहीं हो सकते। यॉन्गहे का चरित्र कई जगह रहस्यमय लगता है, जो उसे समझने में कठिनाई पैदा करता है।


उपसंहार

द वेजिटेरियन केवल एक कहानी नहीं है, बल्कि यह समाज, शरीर, और स्वतंत्रता पर एक गहन दार्शनिक चिंतन है। हान कांग ने इस उपन्यास के माध्यम से मानवीय स्वभाव, रिश्तों, और सामाजिक संरचनाओं पर तीखे सवाल उठाए हैं। यह पुस्तक उन पाठकों के लिए है, जो साहित्य के माध्यम से गहराई और जटिलता का अनुभव करना चाहते हैं।

अनुशंसा: यदि आप साहित्यिक गहराई और मानवीय संवेदनाओं को समझने की इच्छा रखते हैं, तो द वेजिटेरियन आपकी पढ़ने की सूची में अवश्य होनी चाहिए।

रविवार, 10 नवंबर 2024

गाँधी-दर्शन और कुबेरनाथ राय

 


कुबेरनाथ राय खांटी भारतीय चिंतक रहे हैं। उनके लेखन और मानसिक संस्कार दोनों में भारतीयता कूट-कूट कर भरी हुई है। लेकिन वे आधुनिक विश्व-चिंतन से न तो अनाभिज्ञ रह रहे हैं और न ही तटस्थ हैं। उन्होंने अपने आलेख का पहला उद्देश्य 'हिन्दुस्तानी मन को आधुनिक विश्व-चिंतन से लेकर बाबा की चित्तवृत्ति तक' का विस्तार बताया है। यह काम उन्होंने अपनी भाषा में लिखा है। इसकी अहासा आशिक कृतियों में होमर, वर्जिल, शेक्सपियर द्वारा लिखे गए निबन्धों µ 'होमरः आत्मकथ्य', 'निसंह-द्वार का कवि प्रेत'; संस्करण , कवि-प्रेत ने कहाः शेक्सपियर' ; त्रि 'रस-आलेख' में संग्रहालयीताद्ध µ में उन्होंने दिया था। वे इन निबंधों में उस जमीन की तलाश करते दिखाई देते हैं, जिस पर आधुनिक विश्व-चिंतन ने आकार दिया है। 'विषाद-योग' में इस पक्ष का पूर्ण विकास है। उन्होंने आधुनिक विश्व-चिंतन पर दस निबन्ध लिखे हैं। इनमें समाजवाद, साध्यवाद और व्यवहारवाद पर विचार हैं। 'कामू, सात्र, हरवर्ट मैक्यूज़ आदि पर उन्होंने स्वतंत्र निबन्ध भी लिखे हैं। इन निबन्धों में उद्देश्य उनके तथ्यात्मक गुरु या विश्लेषण से भिन्न है। भारतीय मानस की प्रति-अनुकूलता और वर्तमान की प्रति-अनुकूलता के सिद्धांतों पर नजर रखी जा रही है।

गांधी-दर्शन कुबेरनाथ राय के लेखन की चौथी दिशा है। यद्यपि जगह-जगह उन्होंने गांधी से असहमतियां भी व्यक्त की गई हैं, तथापि , गांधी जी की मान्यताओं को स्वीकार भी करते हैं। उनका मानना ​​है कि सत्य और अहिंसा का गांधी सूत्र भारतीय जीवन-दृष्टि का सार-तत्व है। इसमें एक का प्रतिनिधि ब्राह्मण-परम्परा है और दूसरे का प्रतिनिधि ब्राह्मण-परम्परा है। ये दोनों समन्वित रूप से भारतीयता की स्थापना रचित हैं। गांधी ने इन दोनों को ग्रहण करके अपने युगीन आविष्कार के संग्रहालय अभय को जोड़ा है। इसलिए वे उन्हें असली भारतीय मानते हैं। वे उनकी सौन्दर्य दृष्टि और साहित्य दृष्टि के कायल थे। वे इस स्तर पर उन्हें बौळ और जैन दर्शनों के निकट मानते थे। उनका था गांधीजी की सौन्दर्य दृष्टि का सूत्र बौतों के 'शीलगंधो अनुत्तरो' का अनुकरणीय सूत्र के और भी करीब है। वे इसे 'शातं सहजं सुंदरम्' के सूत्र द्वारा परिभाषित करते हैं। उन्होंने गांधीजी के केंद्र में पूरी तरह से एक पुस्तक 'पत्र: मणिपुतुल के नाम' लिखी है। इस पुस्तक का पहला निबन्ध 'पाँत का आखिरी आदमी' आधुनिक युवा पीढ़ी को मूर्ति और बेरोजगारी की समस्या पर केन्द्रित है। उन्होंने गांधी की आर्थिक-दृष्टि के सन्दर्भ में एक जगह लिखा है-''भारतीय परंपरा का अनुष्ठान करते हुए गांधी जी ने आत्मा पर आधारित एक अर्थशास्त्र की परिकल्पना की है जो शास्त्र में सही अर्थों की श्रावक पूर्णता प्रदान करता है। यह अहिंसा और जीवन-निष्ठा पर आधारित है। जिस तथ्य से किसी प्रकार का अवदमन या दमनकारी कार्यकर्ता हो , अपना या किसी और का , वह अहिंसा नहीं है।'' ; मेराल: पृष्ठ , 68 द्ध उन्होंने इस पुस्तक से भिन्न गांधी-दर्शन पर अनेक फुटकर निबन्ध लिखे हैं। इनमें से 'मेराल' में 'गांधी की मुक्ति' और 'चिन्मय भारत' का 'गांधी चिंतन का महायान' प्रमुख हैं।

भारत का सांस्कृतिक उत्तराधिकार और कुबेरनाथ राय

 


आर्येतर भारत और गंगातीरी लोक जीवन पर केन्द्रित कुबेरनाथ राय की प्रमुख कृतियाँ ‘निषाद बाँसुरी’,‘मनपवन की नौका’ ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’ और ‘उत्तरकुरू’ रही हैं। इनमें उन्होंने भारत की नृजातीय संरचना पर विस्तार से विचार किया है। ‘निषाद बाँसुरी’ मुख्यतः ‘गंगातीरी लोक जीवन’ पर केन्द्रित है। इसमें उन्होंने गंगातीरी निषाद संस्कृति की बात की है। इसके बहाने उन्होंने भारत की जातीय निर्मिति में निषाद ;आस्ट्रिकद्ध जाति के अवदान की विस्तार से चर्चा की है। ‘मन पवन की नौका’ द्वीपान्तर भारत ;दक्षिण-पूर्व एशियाद्ध का सांस्कृतिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करती है। इसमें उन्होंने इस क्षेत्र की नृजातीय संरचनाµ ‘चाम्’ ‘मान्-ख्मेर’µ एवं सांस्कृतिक संरचना में भारतीय तत्त्वों की उपस्थिति की तलाश की है। वे इसे नृजातीय एवं अन्य तत्त्वों की दृष्टि से सांस्कृतिक भारत का ही एक अंग मानते हैं। ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’ भारतीयता की निर्मिति के एक अन्य घटक ‘किरात’ जाति के सांस्कृति अवदानों की पहचान से संबंधित ‘निषाद बाँसुरी के अन्तिम दो निबन्धों ‘महाबाहु ब्रह्मपुत्र: ;1द्ध प्रवाहपर्व’ और ‘महाबाहु ब्रह्मपुत्र: ; अवतरणपर्व’ में भी उन्होंने इसी क्षेत्र को लेखन का विषय बनाया है। ये तीनों संग्रह भारतीयता की निर्मिति में आर्येतर जातियों के अवदान की पहचान कराते हैं तो ‘उत्तर कुरू’आर्यों के साथ इनकी मिलीजुली बुनावट के स्वरूप को व्यक्त करता है। इसमें मुख्यतः कुरूओं की विभिन्न कथाओं को माध्यम बनाया गया है। यहाँ उन्होंने कालिदास के ही दो नाटकांे ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ और ‘विक्रमोर्वशीयम्’ को आधार बनाकर तीन निबन्ध लिखे गये हैंµ ‘शकुन्तलाः प्रतीक और अर्थ’ ‘शैवाल में उलझा एक मुख कमल’ तथा ‘भारतीय इतिहास की अप्सरा-नाभि’। ये तीनों निबन्ध भारतीयता की बनावट को व्यक्त करते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘उत्तरकुरू’ ‘कदलीवन’ आदि प्राचीन साहित्यिक रूढ़ियों के बहाने भारतीय इतिहास की अनेक ग्रंथियों को सुलझाया है। ‘अनार्यावर्त’ निबन्ध में उन्होंने भारतीयता की नृजातीय निर्मिति की संघटक जातियों की पहचान नृतात्विक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट की है। उनका मानना रहा है कि ‘‘सारा भारतवर्ष एक ‘मुस्तर्का मिल्कियत’ है। एक सर्वनिष्ट सांस्कृतिक उत्तराधिकार है और भारत का कोई अंश चाहे वह गंगा की घाटी हो या ब्रह्मपुत्र-कावेरी की एक ही साथ सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से ‘निषाद-किरात-द्रविण और आर्य’ चारों है, तो ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद या किरात राष्ट्रवाद का अलगाववादी तार्किक आधार स्वयं समाप्त हो जाता है’’ ;उत्तरकुरुः पृष्ठ, टप्प्प्द्ध। वे अपने समूचे लेखन में इस बात पर जोर देते रहे हैं कि भारत में कोई भी जाति विशुळ नहीं रही। सब के सब अविशुळ हैं। भारतीयता इन सभी जातियों की संयुक्त विरासतµ‘कामन-वेल्थ’ है।

रामकथा और कुबेरनाथ राय


 

कुबेरनाथ राय के लेखन का तीसरा विषय-क्षेत्र हैµ रामकथा इसमें वे खूब रमे हैं। उन्होंने इस विषय पर तीन स्वतन्त्र किताबें ही लिख डाली हैं। ‘महाकवि की तर्जनी’ इस विषय पर लिखी गयी पहली उनकी स्वतंत्र पुस्तक है। इसमें रामकथा का आश्रय लेकर रस-बोध, बौळिकता और शील-बोध का एक त्रिकोण उपस्थित हुआ है। इसके तीन भाग हैं। पहले में वाल्मीकि ;रामकथा के रचयिताओं?द्ध पर विचार हुआ है। दूसरे भाग में राम-कथा में शील-तत्व सम्मिलित हैं। इसमें उन्होंने आदि कवि वाल्मीकि से लेकर असमिया कवि माधव कदली तक पर विचार हुआ है। माधव कदली को उन्होंने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में रामकथा का पहला कवि माना है। ‘रामचरित मानस’ के प्रारम्भिक श्लोकों में से चार के अंशों ‘वन्देवाणीविनायकौ’,‘भवानीशंकरौवन्दे’,‘कवीश्वरौ कपीश्वरौ’,‘वन्दे बोधमयं नित्यं’ पर आधरित चार निबन्ध हैं। इसी भाग में एक पाँचवा निबन्ध ‘युग सन्दर्भ में मानस’ भी है। इसके अतिरिक्त मानस पर अन्य छिटपुट निबन्ध भी अन्य संग्रहों में संकलित हैं। ‘वाणी का क्षीर सागर’ के ‘मानस, सुरधुनी के उसपार’ और ‘मानसः दृढ़ता और संघर्षशील चरित्र का सूत्र’ इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

दूसरी कृति है, ‘त्रेता का वृहत्साम’। इसमें उनकी मान्यता है कि बाल्मीकि रामायण का मूल स्वरूप सूर्यात्मक है। यह अपने मूलरूप में एक सूर्य गाथा है। इस महाकाव्य के भीतर निहित सूर्य-प्रतीकों और सूर्योपासना के तत्वों का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। साथ ही राम के चरित्र में त्याग, तप, संकल्प, पुरूषार्थ, तेज से समन्वित उनके तेजोदीप्त सौन्दर्य का उद्घाटन किया गया है। इस कृति में उनकी मूल-स्थापना यह है कि रामायण ‘जिजीविसा-करूणा-अभय’ का त्रिकोण त्यक्त करता है। यही इसकी मूल्यवत्ता का आधार है। उनके अनुसार यह संकल्प प्रधान महाकाव्य है।

तीसरी कृति ‘रामायण महातीर्थम्’ राम-कथा में उनके अवदान की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। इसमें उन्होंने राम कथा के स्वरूप के क्रम-विकास का अध्ययन किया है। वैदिक और याजक परम्पराओं से जोड़ते हुए उन्होंने इसकी कथा रूढ़ियों और प्रतीकों के विकास का स्वरूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने इन्द्र, पूषा, सीता, सविता, आदि वैदिक देवताओं के बीच से रामकथा के महत्त्वपूर्ण पात्रों के चारित्र-विकास की प्रक्रिया को पहचानने का प्रयास किया है। इस ग्रन्थ में एक अन्य स्तर पर राक्षस और बानर जातियों की वास्तविक पहचान का भी प्रयास किया गया है। राक्षस और यक्ष को यहाँ उन्होंने निषाद ;आॅस्ट्रिक जातिद्ध का ही दिव्य रूप बताया है और बानर-समाज को निषाद-द्रविड़-विमिश्र जाति का प्रतिनिधि। यहाँ उन्होंने ‘रामायण’ को आदिम आर्यत्व और नव्य आर्यत्व को बीच का संघर्ष माना है। रावण को वे आदिम आर्यत्व का प्रतिनिधि मानते हैं और राम को नव्य-आर्यत्व का। उन्होंने यहाँ आदिम और नव्य के बीच के अन्तर को नृजातीयता के बजाय मूल्य बोध और संस्कृतियों से जोड़ा है। उनके अनुसार राम नये मूल्योंµशीलµके प्रतिनिधि हैं और रावण आदिम परम्पराओं का। वे राम को भारत के राष्ट्रीयशील का प्रतीक मानते हैं और राम-कथा को भारतीय शील का महाकाव्य।